भगवान शिव और महाशिवरात्रि

- नारायण तिवारी
भुजंग भूषण देवाधिदेव भगवान शंकर सहज, कृपालु और औघड़दानी हैं। जैसी कर्पूर और उनकी अंगकांति है, वैसा ही निष्छल और पारदर्शी हृदय, जिसमें जीवमात्र के लिए करुणा के सिवा कुछ नहीं है। महाशिवरात्रि शिवभक्तों का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण त्योहार है। स्वयं शिवजी इस दिन का व्रत अनुष्ठान करने वाले साधक पर कुछ अतिरिक्त ही कृपा करते हैं।
 
शिवरात्रि व्रत
प्राचीनकाल की बात है, किसी वन में गुरु द्रुह नाम का एक भील रहता था। वह स्वभाव से ही क्रूर था। अवसर मिलने पर मार्ग से गुजरने वालों को लूटने या चोरियाँ करने से भी न चूकता। शिवरात्रि के दिन भी वन में आखेट के लिए चला आया। उसे तो तिथि, पर्व इत्यादि से कोई मतलब न था।
 
उसे उस दिन कोई शिकार न मिला। ये सोचकर वन के एक सरोवर के किनारे आया कि यहाँ तो जरूर कोई न कोई वन्यजीव पानी पीने आएगा ही, तो वह उसे मारकर अपने घर ले जाएगा। रात्रि में सरोवर के किनारे खड़े एक बिल्व वृक्ष पर चढ़ गया जिसके नीचे एक प्राचीन शिवलिंग था। साथ में पीने का पानी ले लिया कि जाने कितनी देर प्रतीक्षा करनी पड़े।
 
भुजंग भूषण देवाधिदेव भगवान शंकर सहज, कृपालु और औघड़दानी हैं। जैसी कर्पूर और उनकी अंगकांति है, वैसा ही निष्छल और पारदर्शी हृदय, जिसमें जीवमात्र के लिए करुणा के सिवा कुछ नहीं है। महाशिवरात्रि शिवभक्तों का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण त्योहार है।      
 
रात के पहले पहर में एक हिरणी वहाँ पानी पीने आई। भील ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया। ऐसा करते समय हिलने से पानी के पात्र से कुछ पानी और बिल्वपत्र शिवलिंग पर जा गिरे। अनजाने ही शुभफलदायिणी शिवरात्रि तिथि में, उस भील से भगवान शंकर की प्रथम प्रहर की पूजा हो गई। खड़खड़ाहट से भयभीत मृगी ने ऊपर देखा तो भील के वेष में मृत्यु ही वहाँ बैठी थी। उसने भोले भाव से पूछा- हे ब्याध इतनी रात तुम यहाँ क्या कर रहे हो। उत्तर दिया- आज मैं और मेरा परिवार पूरे दिन से भूखे हैं, मैं तुम्हें मारकर अपनी जीवन रक्षा करूँगा।
 
भयभीत मृगी ने कहा- हे ब्याध जीवन सबको प्रिय है और ये तुम्हारी आजीविका ही है, किंतु मैं अपने घर पर अपने छोटे-छोटे बच्चों को अकेला छोड़ आई हूँ। उन्हें अपनी बहन और स्वामी को सौंपकर मैं अभी आती हूँ। और मैं शपथपूर्वक सत्य कह रही हूँ, सत्य से ही सृष्टि है, सत्य से समंदर अपनी सीमा में है, सत्य से ही सरोवरों में जल है, सत्य ही सबका आधार है।
 
ब्याध हँसने लगा कि चतुर मृगी प्राण बचाने का तुमने अच्छा उपाय सोचा है।
 
तब मृगी बोली- मैं शपथपूर्वक कहती हूँ यदि मैं लौटकर न आऊँ तो मुझे दूसरों से द्रोह करने, ब्राह्मण द्वारा वेद बेचने, अपत्र निहित कर्म न करने, अपनी कुल मर्यादा का ध्यान न रख स्वेच्छा चारिणी स्त्री को जो पाप लगता है, भगवान शंकर की उपेक्षा करने, छल करने, विश्वासघात के पाप की भागीदार होऊँ।
 
यह सुनकर उसे घर जाने दिया। दूसरे प्रहर में उस मृगी की बहन जल पीने सरोवर पर आई, फिर ब्याध ने सतर्क हो अपना तीर संभाला। ऐसा करते समय पुनः पानी के पात्र से कुछ पानी और बिल्वपत्र शिवलिंग पर जा गिरे जिससे पुण्य पर्व की दूसरे पहर की पूजा भी पूरी हुई। भील को देखकर मृगी ने कहा- हे ब्याध दूसरों के काम आने से बड़ा कोई पुण्य नहीं है, किंतु मैं भगवान विष्णु की शपथ खाकर कहती हूँ कि घर पर रह गए छोटे-छोटे बच्चों को मैं अपने स्वामी को सौंपकर फिर आपके पास लौट आऊँगी। यदि मैं ऐसा न करूँ तो वचन देकर बदल जाने वाले- भगवान शिव और विष्णु में भेद करने वाले, अपने पूज्य पितरों का श्राद्ध न करने वाले प्रमादी मनुष्यों को जो पाप लगता है वो मुझे लगे। मेरा विश्वास करो मुझे जाने दो। ब्याध ने इस मृगी को भी जाने दिया।
 
भूखे-प्यासे ब्याध ने तीसरे पहर एक हृष्ट-पुष्टहिरण को सरोवर पर देखा, उसकी सारी थकान जाती रही। उसने तीर निकाला, किंतु पहले की ही तरह इस बार भी जलपात्र से कुछ जल और बिल्वपत्र शिवलिंग पर जा गिरे। तीसरे पहर की पूजा भी अनजाने में ही हो गई। बाण चढ़ाए भील को देखकर हिरण ने भी ब्याध से घर की बातकही। ब्याध ने कहा कि ऐसा पहले भी दो मृगी कहकर गई है, किंतु उनमें से कोई नहीं लौटा। किंतु मृग ने उसे विश्वास दिलाया कि किसी प्रकरण में झूठी गवाही देने, विश्वासघात करने, किसी की धरोहर हड़प लेने, झूठ बोलने से व्यक्ति के समस्त पुण्य तत्काल नष्ट होजाते हैं। अतः मेरा विश्वास करो मैं लौट आऊँगा अवश्य, क्योंकि मैं मृत्यु से नहीं, धर्म से डरता हूँ।
 
तीन प्रहर की पूजा के पुण्य से भील का पुण्योदय हुआ और मन निर्मल। उस भूखे भील ने हिरण को भी जाने दिया।
 
घर लौटकर हिरण को सारी बात पता चली कि उसके सहित दोनों हिरणियाँ प्रतिज्ञाबद्ध हैं। वे धर्मभीरू पशु पहले तो एक-दूसरे को ब्याध के पास जाने का आग्रह करते रहे, किंतु फिर सर्व सहमति से वे सभी ब्याध के पास जाने को तत्पर हुए। ये देख उनके बच्चे भी अपने माता-पिता का अनुसरण कर ब्याध के पास पहुँचे।
 
एक साथ इतने मृगों को आया देख ब्याध प्रसन्ना हो गया। उसने तत्काल धनुष उठाया फिर जलपात्र से कुछ जल और बिल्वपत्र भगवान के शिवलिंग पर गिरे। अनायास ही चौथे प्रहर की पूजा संपन्न हुई।
 
तभी समूह के स्वामी उस मृग ने ब्याध से कहा- हे ब्याध आज रात्रि आपको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा है अब आप निश्ंिचत होकर हमारा आखेट कर अपनी और अपने परिवार की प्राण रक्षा करें।
 
उनकी यह बात सुनकर ब्याध को बड़ा विस्मय हुआ। ये पशु होकर परोपकार के लिए प्राण देना चाहते हैं। अपना दिया वचन पूरा करना जानते हैं और मनुष्य जैसी श्रेष्ठ योनि पाकर भी मेरा आचरण तो देखो। निश्चय ही ये विवेक उसे देवाधिदेव महादेव की अनजाने में की गई पूजा एवं महाशिवरात्रि के व्रत से ही प्राप्त हुआ था।
 
उसने मृगों को वापस लौट जाने को कहा, कि बस वृक्ष के नीचे के शिवलिंग से आशुतोष भगवान शिव प्रकट हो गए और ब्याध की पूजा एवं इस स्वभाव परिवर्तन से प्रसन्न होकर उसे गुहनाम देकर अयोध्या के पास श्रृंगवेदपुर जाकर राजधानी बनाकर राजा की तरह वैभव संपन्न होकर सुखी होने का वरदान तो दिया ही, साथ ही त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के दर्शन एवं सेवा का अलभ्य वरदान भी दिया।
 
भगवान का दर्शन-कृपा अमोघ है। उनके दर्शन पाकर वे प्रतिज्ञाबद्ध वचन का पालन करने वाले मृग भी दिव्यदेह को प्राप्त कर भगवान के दुर्लभ शिवलोक के वासी बने।
 
यह है संयोग से अनायास ही महाशिवरात्रि व्रत का महत्व, जो लोग स्वेच्छा से शुद्ध हृदय से विश्वास और श्रद्धा से विधिपूर्वक इस व्रत को करते होंगे उनके पुण्य का क्या?
 
वैसे तो भगवान शंकर का पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय ही अमोघ एवं मोक्षदायी है, किंतु इस विषम काल में यदि विश्वासी साधक पर कोई कठिन व्याधि या समस्या आन पड़े तो उसे श्रद्धापूर्वक ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरू कुरू शिवाय नमः ॐ के मंत्र का एक लाख जाप बड़ी से बड़ी समस्या और विघ्न टाल देता है।

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