पूरी श्रद्धा से करें पितरों की विदाई

- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोश
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विगत पंद्रह दिनों से पृथ्वी की परिधि में पधारे पितर गण अमावस्या के दिन विशेष तर्पण एवं भोज्य पदार्थों को ग्रहण करते हुए अपने वंशजों को राजी-खुशी एवं सुख समृद्धि का आशीर्वाद देते हुए अपने गन्तव्य के लिए पितृ लोक प्रस्थान करेंगे। शास्त्रों के अनुसार सोलह श्राद्धों में तिथि श्राद्ध के बाद भी पितृविसर्जनी अमावस्या को पितरों की विदाई के लिए भोजन बनाकर हाथ में तिल और जौ युक्त जल धारा से पितरों की अखंड तृप्ति के लिए तर्पण अवश्य करना चाहिए।

यदि किसी कारण श्राद्धों में पितरों का श्राद्ध छूट गया हो तो अमावस्या के दिन सर्वप्रथम छूटे हुए श्राद्ध के निमित्त विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म करना चाहिए और उसके बाद पितृ विसर्जन तर्पण करके भोजन ग्रहण करना चाहिए।

पितृ विसर्जन के समय भी श्राद्ध की तरह इस बात को विशेष सावधानी रखनी चाहिए कि पकवान भोज्य पदार्थों को साफ-सुथरे पत्तलों में ही परोसना चाहिए। हो सके तो केले अथवा तोरी के ताजे पत्तों में भोजन प्रसाद परोसना कर तर्पण करना चाहिए। भोजन पत्तल के साथ ही अलग-अलग पाँच पत्तों में गौमाता, देवताओं, श्वान, कौआ, चीटिंयों के निमित्त पंच वैश्वबलि निकालनी चाहिए।

साथ ही पिता कुल की तीन पीढ़ियों एवं नाना कुल की तीन पीढ़ियों के पुरखों का स्मरण करना चाहिए, ताकि उनके साथ समस्त पितरों को तर्पण का जल तृप्ति के रूप में मिलता है। हाथ जोड़कर पितृ गायत्री का तीन बार पाठ कर पितरों का विसर्जन करना चाहिए।

पितरों के श्राद्ध तर्पण में तिल, जौ एवं चंदन का प्रयोग होता है, रोली और चावल वर्जित है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं। इस बारे में पंडित जनार्दन गौड़ कहते हैं रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। चावल भी लौकिक उपलब्धियों के लिए देवताओं पर चढ़ाते हैं लेकिन जौ और तिल बिना कुटे यथा रूप होने के कारण पितरों को अर्पित किए जाते हैं।

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अतः पितरों की उपासना परम सात्विक मानी गई है। पं. योगेश शर्मा कहते हैं यद्यपि हर महीने की अमावस्या को दान-पुण्य कर पितरों को प्रसन्न किया जाता है लेकिन महालय (पितृ पक्ष) की अमावस्या का अत्यधिक महत्व है। इस दिन किए गए पितृ तर्पण से पितरों को तृप्ति मिलती है। अतः कुछ भी नहीं कर सकने की स्थिति में स्नान कर गायत्री जप करते हुए पूर्वजों का स्मरणपूर्वक सूर्य को जल चढ़ाएँ तथा गऊ ग्रास दें, गऊ माता में समस्त देवी-देवताओं, पितरों एवं तीर्थों का निवास होता है। ऐसा हमारे धर्म ग्रंथों में कहा है। ब्राह्मण भोजन एवं दान पुण्य का इस दिन विशेष महत्व है।

शास्त्रों में पितरों को स्मरण करने तथा उनको प्रसन्न कर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पितृगीत का विशेष उल्लेख हुआ है जिसमें धनवान, निर्धन, घर-परिवार के साथ रहते हों या एकान्त निर्जन स्थान में अकेलेपन की जिस स्थिति में भी वंशज हों यदि वह पितृगीत का श्रद्धापूर्वक उच्चारण करता है तो पितरों को श्रद्धाभाव से भी परम संतुष्टि एवं तृप्ति मिल जाती है।

वराह पुराण में मुनि गौरमुख को पितृ गीत का महत्व बताते हुए मार्कण्डेय जी कहते हैं कि- स्वयं पितृ गण यह कहते हैं कि कुल में क्या कोई ऐसा बुद्धिमान धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपता को छोड़कर हमारे निमित्त पिंड दान करेगा? संपत्ति होने पर जो हमारे उद्देश्य से ब्राह्मणों को धन-धान्य, वस्त्र आदि सामग्रियों का दान करेगा अथवा केवल अन्न, वस्त्र मात्र वैभव होने पर श्राद्धकाल में विनम्र चित्त से भक्ति कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन ही कराएगा।

अन्न देने में भी असमर्थ होने पर ब्राह्मण श्रेष्ठों को अन्न, फल-मूल, जंगली शाक देगा, यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजेष्ठ को प्रणाम करके एक मुठ्ठी काला तिल ही देगा। इससे हमें परम संतुष्टि प्राप्त होगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पूर्वज पितरों को श्रद्धापूर्वक जो कुछ भी दिया जाता है उसे वह सहर्ष स्वीकार करते हैं।

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