अवधूत अवतार :- भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडना चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार माता सती ने जब अपने पिता के यज्ञ में कूदकर शरीर त्याग दिया तो तभी से भगवान शंकर उनके वियोग में अवधूत रूप धारण करके रहने लगे। वे हर समय या तो वियोग में रहते या समाधी में रहते। साधारण मनुष्यों के समान पत्नी वियोग से दुखी होकर परमहंस योगिनियों के समान नग्न शरीर, सर्वांग में भस्सम मले हुए मस्तक पर जटा-जूट धारण किए गले में मुण्डों की माला पहने हुए संसार में भ्रमण करते रहे। यही उनका अवधूत रूप है।