जब महाराज धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज घोषित कर दिया तो दुर्योधन के मामा शकुनि ने पांचों पांडवों को मारने का षड्यंत्र रचा। इस साजिश के तहत पांचों पांडवों को वारणावत भेजकर लाक्षागृह नामक एक महल में रात्रि में जिंदा जालाने की योजना थी। आओ जानते हैं कि आखिर लक्षागृह क्या था और क्या है इसके 10 रहस्य।
1. शकुनि को पता था कि पांडवों के स्वर्गिय पिता प्रतिवष वारणावत जाकर शिव महोत्वस में शामिल होकर प्रजा को दान देते हैं। उनके मरने के बाद वहां वर्षों से कोई नहीं गया था। वहां उनका महल खंडहर बन जाता है। ऐसे में वह एक योजना के तहत महल की मरसम्मत के नाम पर उस महल को लाख का बनवा देता है।
2. फिर शकुनि अपनी अगली चाल के तहत धृतराष्ट्र के माध्यम से पांचों पांडवों को वारणावत में शिव उत्सव में भेजकर उसी महल में रुकवाकर रात्रि में उस महल में आग लगाकर पांडवों को मारने की योजना बनाता है। इसकी जानकारी सिर्फ दुर्योधन को ही होती है और वे विदुर, द्रोण, कृपाचार्य और भीष्म पितामह को इसका पता नहीं चले इसके लिए चारों और अपने गुप्तचर लगा देता है।
3. लेकिन किसी न किस तरह विदुर को अपने एक गुप्तचर से यह तब पता चलता है जबकि पांचों पांडव अपनी माता कुंती के साथ वारणावत के उत्सव में भाग लेने के लिए निकल चुके होते हैं। तब विदुर अपनी योजना के तहत एक शॉर्टकट रास्ते से अपने लोगों को वारणावत भोजकर महल से नदी तक की एक सुरंग बनवाने का कार्य प्रारंभ करवा देता है ताकि रात्रि में महल में आग लगाई जाए तो पांडव उस सुरंग से सुरक्षित बाहर निकल आएं। होता भी यही है कि एन वक्त पर विदुर के गुप्तचर सभी को बचाकर बाहर निकाल लाते हैं और सभी को वे नदी के उस पास छोड़ देते हैं।
3. लाक्षागृह एक ऐसा भवन था जिसे लाक्षा (लाख) से बनाया गया था। आजकल इसकी चूड़ियां बनती हैं। लाख एक प्राकृतिक राल है, बाकी सब राल कृत्रिम हैं। वैज्ञानिक भाषा में लाख को लैसिफर लाक्का (Laccifer lacca) कहा जाता है। लक्ष एक प्रकार का कीट होता है। दुर्योधन ने वारणावत में पांडवों के निवास के लिए पुरोचन नामक शिल्पी से एक भवन का निर्माण करवाया था, जो कि लाख, चर्बी, सूखी घास, मूंज जैसे अत्यंत ज्वलनशील पदार्थों से बना था।
4. कहते हैं कि जिस दिन पुरोचन ने आग प्रज्वलित करने की योजना बनाई थी, उसी दिन पांडवों ने गांव के ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। रात में पुरोचन के सोने पर भीम ने उसके कमरे में आग लगाई। धीरे-धीरे आग चारों ओर लग गई। लाक्षागृह में पुरोचन तथा अपने बेटों के साथ भीलनी जलकर मर गई।
5. लाक्षागृह के भस्म होने का समाचार जब हस्तिनापुर पहुंचा तो पांडवों को मरा समझकर वहां की प्रजा अत्यंत दुःखी हुई। दुर्योधन और धृतराष्ट्र सहित सभी कौरवों ने भी शोक मनाने का दिखावा किया और अंत में उन्होंने पुरोचन, भीलनी और उसके बेटों को पांडवों का शव समझकर अंत्येष्टि करवा दी। दुर्योधन ने तीन दिन तक खाना नहीं खाने का ढोंग किया।
6. यह भी कहा जाता है कि महारानी कुंती के कक्ष में एक सेविका थी तो बाकी पांडवों के कक्ष में एक एक सेवक नियुक्त था वे सभी जलकर मारे गए तो उन्हें ही कुंती और पांडव समझ लिया गया था। यह भी कहा जाता है कि पांडवों की जगह एक निषाद स्त्री और उसके पांच पुत्र जल गए थे। कुंती ने एक निषाद स्त्री से मित्रता कर ली, जिसके पांच बेटे थे।
7. लाक्षागृह की सुरंग से निकलकर पांडवजन हिंडनी नदी किनारे पहुंच गए थे, जहां पर विदुर द्वारा भेजी गई एक नौका में सवार होकर वे नदी के उस पार पहुंच गए।
8. बरनावा हिंडनी (हिण्डन) और कृष्णा नदी के संगम पर बागपत जिले की सरधना तहसील में मेरठ (हस्तिनापुर) से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी स्थित है। यह प्राचीन गांव 'वारणावत' या 'वारणावर्त' है, जो उन 5 ग्रामों में से था जिनकी मांग पांडवों ने दुर्योधन से महाभारत युद्ध के पूर्व की थी। ये 5 गांव वर्तमान नाम अनुसार निम्न थे- पानीपत, सोनीपत, बागपत, तिलपत और वरुपत (बरनावा)।
9. आज भी बरनावा गांव में महाभारतकाल का लाक्षागृह टीला है। यहीं पर एक सुरंग भी है। यहां की सुरंग हिंडनी नदी के किनारे पर खुलती है। टीले के पिलर तो कुछ असामाजिक तत्वों ने तोड़ दिए और उसे वे मजार बताते थे। यहीं पर पांडव किला भी है जिसमें अनेक प्राचीन मूर्तियां देखी जा सकती हैं। गांव के दक्षिण में लगभग 100 फुट ऊंचा और 30 एकड़ भूमि पर फैला हुआ यह टीला लाक्षागृह का अवशेष है। इस टीले के नीचे 2 सुरंगें स्थित हैं। वर्तमान में टीले के पास की भूमि पर एक गौशाला, श्रीगांधीधाम समिति, वैदिक अनुसंधान समिति तथा महानंद संस्कृत विद्यालय स्थापित है।
10. लाक्षागृह से बचने के बाद कुंती सहित पांचों पांडव एक भयानक जंगल में चले गए। वहां बहुतसी घटनाओं से उन्हें जुझना पड़ा। वहीं पर हिडिम्ब नामकर आदमखोर रहता था। उस आदमखोर को भीम ने मार दिया जिसके बाद उसकी बहन हिडिंबा जो भीम से प्रेम करने लग गई थी तो भीम ने माता कुंती की सहमती से उससे विवाह किया और फिर सभी वहां तब तक रहे जब तक कि हिडिंबा का पुत्र नहीं हो गया। भीम के पुत्र जन्म के बाद उस पुत्र का नाम घटोत्कच रखा। फिर कुंती भीम और उसके चार भाइयों को लेकर वन से एक छोटे से नगर में रहने चली गई, जिसका नाम था एकचक्र। यहीं से उसने फिर से हस्तिनापुर का रुख किया।