निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 21 अगस्त के 111वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 111 ) में सभी देवता माता पार्वती से भोलेनाथ की तपस्या भंग करने की आज्ञा मांगने के लिए जाते हैं। यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं कि बुद्धि भ्रष्ट हो गई है आपकी क्या? महाप्रलय को निमंत्रण देना चाहते हैं और ये भी चाहते हैं कि आत्महत्या के इस कार्य में मैं आपकी सहायता करूं? इतना भी नहीं जानते कि भोलेनाथ की तपस्या भंग करते ही उनके क्रोध का ज्वालामुखी फट पड़ेगा और ना जाने कौन-कौन शिवजी के क्रोध के लावे में भस्म हो जाएगा। यह सुनकर सभी चौंक जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
यह सुनकर देवराज इंद्र कहते हैं कि तारकासुर नामक संकट से उभारने के लिए यदि थोड़ीसी हानि होती है तो उसे स्वीकार करना ही होगा। फिर नारदजी कहते हैं- देवी माता सभी देवताओं को इस संकट से उभारने के लिए कामदेव ये खतरा मोल लेने के लिए तैयार हैं। तब माता कहती हैं- अच्छा तो ये है बली का बकरा, भेंट चढ़ाने के लिए तुमने इस ना समझ बालक का चयन किया है। इसकी नादानी का लाभ उठाना चाहते हैं आप सब? ये बिचारा तो केवल प्रेमवाणी को जानता है। प्रेम करता है और प्रेम करना सिखता है। इसे क्या मालूम की क्रोध क्या होता है और फिर महादेव का क्रोध? यह सुनकर देवराज इंद्र कहते हैं कि हमारी बुद्धि तो काम नहीं कर रही है। अब आप ही हमें इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई मार्ग दिखाएं।
तब माता पार्वती कहती हैं कि मैं पूछती हूं कि विष्णुजी क्या कर रहे हैं जिनका काम है संकट से जूझना और संकट से उभारना। क्या उनका दायित्व नहीं है, वो क्यों नहीं करते तारकासुर का वध?
तब देवराज इंद्र कहते हैं कि वे अवश्य कर सकते हैं परंतु धर्मसंकट के कारण करना नहीं चाहते। ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार तारकासुर का वध केवल शिवजी और आपके पुत्र के हाथों ही होगा। यदि विष्णुजी ने तारकासुर का वध किया तो यह ब्रह्माजी का अपमान होगा। इसी धर्मसंकट से बचने के लिए आपको तपस्या से जगाना पड़ा ताकि शिवजी से आपका विवाह हो और आपके पुत्र के हाथों तारकासुर का वध हो जाए।
यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं कि ये तो सचमुच ही धर्मसंकट है। तब नारदमुनि कहते हैं कि यह तो समय संकटों का है माता। एक संकट खत्म नहीं होता की दूसरा आ जाता है। और, लगता है कि आने वाला संकट आपके लिए ही है माता। यह सुनकर माता कहती हैं हां मुनिवर आप लोगों ने मुझे भी संकट में डाल दिया है।...फिर सभी देवी और देवता माता पार्वती से एक साथ विनती करते हैं तब मजबूर होकर माता पार्वती उनकी तपस्या भंग करने की आज्ञा दे देती हैं और कहती हैं कि ठीक है मैं आप दोनों को (कामदेव और रति) शिवजी के प्रकोप से बचाने का प्रयास करूंगी। आप शिवजी की तपस्याभंग करने की तैयारी करें।
फिर कामदेव और रति महादेव के तपस्या स्थल पर जाकर शिवजी को प्रणाम करते हैं। उनके पीछे माता पार्वती और सभी देवी एवं देवता भी प्रणाम करते हैं। फिर कामदेव और रति सभी देवी-देवताओं को नमस्कार करके उनसे आज्ञा मांगते हैं और अंत में नृत्य एवं गान प्रारंभ हो जाता है। फूल और सुंगंध बिखेर दी जाती है। नृत्य और गान से कुछ नहीं होता है तो फिर कामदेव अपने मनमथ साधकर काम का बाण चलाते हैं जो सीधा शिवजी के हृदय में जाकर लगता है। इससे भी शिवजी की तपस्या में कोई असर नहीं होता है। फिर वे कंठ में बाण चलाते हैं तब भी कुछ नहीं होता है। रति ये देखकर डरने लगती है तब कामदेव अंत में मस्तक पर तीसरे नेत्र के स्थान पर बाण चला देते हैं।
इससे शिवजी की समाधि भंग हो जाती है। कामदेव, रति सहित सभी देवी और देवता भयभित हो जाते हैं। फिर शिवजी की जैसे ही आंखें खुलती है तो वे अपने सामने दूर खड़े कामदेव को क्रोधवश देखते हैं तभी उनका तीसरा नेत्र खुलता है और कामदेव को वे भस्म कर देते हैं।
यह देखकर रति विलाप करने लगती है और माता पार्वती आकर शिवजी से कहती हैं- कामदेव को भस्म कर दिया आपने? यह सुनकर शिवजी कहते हैं- हां क्योंकि उसने हमारी तपस्याभंग की थी और उसे इस दुस्साहस का दंड तो भोगना ही था। इस पर माता पार्वती कहती है कि परंतु इसमें उनका कोई दोष नहीं था क्योंकि स्वयं मैंने ही उनको आज्ञा दी थी। यह सुनकर शिवजी कहते हैं- क्या! आपने उन्हें आज्ञा दी थी परंतु क्यों? क्या आप जानती नहीं कि हमारी तपस्या युग-युगों तक चलती रहती है। तब माता पार्वती कहती हैं- जानती हूं। तब शिवजी कहते हैं- तो फिर आपने उन्हें हमारी तपस्या भंग करने की अनुमति क्यों दी?
फिर माता पर्वती बताती है कि क्यों हमें ऐसा करना पड़ा। यह जानकर शिवजी कहते हैं कि तब तो हमने अकारण ही कामदेव को भस्म कर दिया। यह सुनकर माता पर्वती कहती हैं कि आपके क्रोध की आग में सुरक्षा का वो आश्वासन भी भंग हो गया जो मैंने कामदेव और देवी रति को दिया था। बताइये महादेव अब मैं देवी रति को क्या जबाव दूं? कहां से लाकर दूं कामदेव को?
रति विलाप करते हुए कहती है- माते मुझे मेरा सुहाग लौटा दीजिए। महादेव से कहिये की वो उनकी भूल को क्षमा करें। उनको फिर से जीवित करें, उनके प्राण वापस कर दें माते। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती।... यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं कि देवी रति जीवत नहीं रहना चाहती तो तीनों लोकों में कोई भी नया प्राणी जन्म नहीं लेगा। विडम्बना ही विडम्बना है, संकट ही संकट हैं प्रभु। यह सुनकर शिवजी कहते हैं- ये आप क्या कह रहे हैं मुनिवर? इस पर नारदजी कहते हैं कि कामदेव तीनों लोकों में हर किसी के मन में प्रेम और काम की आग भड़काते थे। जब वो ही नहीं रहे तो काम और प्रेम की भावना कैसे जागेगी और न कोई किसी से प्रेम करेगा और न कोई जनम लेगा, संकट ही संकट है महेश्वर! संकट ही संकट।
फिर माता पार्वती सहित सभी देवी-देवता उनसे कामदेव को फिर से जीवित करने की प्रार्थना करते हैं। तब शिवजी कहते हैं कि असंभव! कामदेव का शरीर भस्म हो चुका है। अब वह माटी का पुतला नहीं बन सकता, अब ये केवल राख है राख। यह सुनकर रति कहती हैं कि तो फिर मुझे भी भस्म कर दीजिये, मेरे शरीर को भी राख बना दीजिये। मैं उनसे अलग नहीं रह सकती। तब शिवजी कहते हैं कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं देवी! कामदेव का केवल शरीर ही भस्म हुआ है। अब इसके लिए उन्हें एक नया शरीर देना होगा और इसके लिए लाखों वर्षों तक प्रतीक्षा करना होगी। आज से लाखों वर्ष बाद द्वापर युग में पृथ्वीलोक पर अधर्म का संहार करने के लिए जब भगवान विष्णु श्रीकृष्ण का अवतार लेंगे तब उनके पुत्र के रूप में देवी लक्ष्मी के गर्भ से प्रद्युम्न जन्म लेंगे और यह प्रद्युम्न कामदेव का अवतार होंगे।
तब नारदमुनि कहते हैं कि तब देवी रति का कामदेव से पुर्नमिलन होगा? तब शिवजी कहते हैं- नहीं पहले प्रद्युम्न को तारकासुर जैसे असुर संभरासुर का वध करना होगा। उसके पश्चात ही दोनों का मिलन संभव है।
इस घटना के पश्चात आदिमाता पार्वती का विवाह शिवजी से होता है और एक पराक्रमी पुत्र जन्मा जिसका नाम उन्होंने षडानंद रखा, जिसे मुरुगन और कार्तिकेय भी कहते हैं। फिर कुमार षडानंद ने दैत्यराज तारकासुर का वध करके देवलोक का उद्धार किया। इसके बाद रति अपने पति कामदेव के साथ द्वापर तक उनके फिर से जन्म लेना का इंताजार करती है। रति के साथ कामदेव अपने सूक्ष्म शरीर में रहते थे। वह दोनों साथ थे पर फिर भी साथ नहीं थे।
फिर देवर्षि नादरमुनि आकर बताते हैं कि आप देनों की प्रतीक्षा का समय अब समाप्त ही होने वाला है क्योंकि भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतार ले चुके हैं और देवी लक्ष्मी रुक्मिणी के रूप में अवतार ले चुकी हैं। फिर नारदमुनि कामदेव से कहते हैं कि अब प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेकर आपको संभरासुर का वध करना है तभी आपका मिलन देवी रति से होगा।
फिर संभारासुर को अपने पुत्र मायासुर के साथ बताते हैं। दोनों ने श्रीकृष्ण के विरुद्ध युद्ध की तैयारियां पूरी कर ली हैं और अब वो युद्ध के लिए निकलने ही वाले हैं। संभासुर की पत्नी उनकी आरती उतारती है और फिर वह आरती की थाली एक दासी को देती हैं जिसे वह दासी ठीक से पकड़ नहीं पाती है और थाली नीचे गिर जाती है। यह देखकर संभरासुर भड़क जाता है और उस दासी की हत्या कर देता है। तब उसकी पत्नी कहती है- ये शगुन अच्छा नहीं हुआ महाराज। तब संभरासुर कहता है- ये शगुन अच्छा नहीं हुआ परंतु युद्ध भूमि में उतरने से पहले ही हमारी तलवार ने रक्त का स्वाद चख लिया है तो ये शगुन अच्छा है। फिर संभरासुर तलवार पर लगे रक्त से खुद को और अपने पुत्र मायासुर को तिलक लगाता है और कहता है- रानी मायावती इसी को विजयी तिलक समझो। सेनापति सेना को रणभूमि में कूच करने का आदेश दो।
उधर, बलराम और श्रीकृष्ण के पास एक गुप्तचर आकर कहता है- दैत्यराज संभरासुर अपने पुत्र मायासुर के साथ विशाल सेना लेकर निकल पड़ा है। वह किसी भी क्षण द्वारिका पर आक्रमण कर देगा। यह सुनकर बलरामजी भड़क जाते हैं तब श्रीकृष्ण पूछते हैं- परंतु किस कारणवश वह हमसे युद्ध करना चाहता है, हमने तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा है? गुप्तचर बताओ क्या बात है? तब गुप्तचर बताता है कि दैत्यराज संभरासुर और मायासुर तीनों लोकों पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं। पिता और पुत्र दोनों मायावी शक्ति में निपुण है इसीलिए वो घमंड में पड़ गए हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु वो दोनों हमी से युद्ध क्यों करना चाहते हैं? तब गुप्तचर कहता है कि वह दोनों आपको उनके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा समझते हैं। इसलिए वह सबसे पहले आपको अपने रास्ते से सबसे पहले हटा देना चाहते हैं।
यह सुनकर बलराम जी कहते हैं कि उससे पहले में उन दोनों को नष्ट करके हटा दूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं दाऊ भैया, यदि वह युद्ध करना चाहते हैं तो हम अवश्य युद्ध करेंगे परंतु पहला वार हमारा नहीं होगा। जय श्रीकृष्णा।
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