Shri Krishna 9 Sept Episode 130 : संभरासुर का वध और श्रीकृष्ण के चतुर्भुज रूप के दर्शन

अनिरुद्ध जोशी

बुधवार, 9 सितम्बर 2020 (22:30 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 9 सितंबर के 130वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 130 ) में संभरासुर की माया से प्रभावित होकर प्रद्युम्न यह समझता है कि उसकी मां भानामति को बंधक बना लिया गया है तो वह उसे छोड़ दिए जाने के शर्त पर खुद को संभरासुर के समक्ष समर्पित कर देता है तब संभरासुर अति प्रसन्न हो जाता है और वह फिर अपनी माया से एक जंजीर अपने हाथ से निकालकर प्रद्युम्न के शरीर के आसपास लपेटकर उसे बंदी बना लेता है। फिर प्रद्युम्न अपने शरीर को पुन: छोटा करके भानामति के समक्ष खड़ा हो जाता है। इसके बाद संभरासुर हंसते हुए एक चिता तैयार कर देता है और प्रद्युम्न को उठाकर उस पर सुला देता है। भानामति ये सब देखकर कहती रहती है- नहीं प्रद्युम्न नहीं। चिता पर लेटने के बाद प्रद्युम्न कहता है- मुझे क्षमा कर दीजिये माताश्री, मुझे क्षमा कर दीजिये।.. इसके बाद संभरासुर अपनी माया से चिता में आग लगा देता है।
 
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तभी वहां पर भानामति आकाश में प्रकट होगा प्रद्युम्न से कहती है कि पुत्र प्रद्युम्न ये संभरासुर की माया है तो तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य से विचलित कर रही है। तुम उसकी माया में प्रभाव में मत आओ और शस्‍त्र उठाओ और त्रिलोक के कल्याण के लिए उसका वध कर दो। यह देखकर प्रद्युम्न चौंक जाता है और फिर वह चिता पर से खुद को जंजीरों से मुक्त होकर चिता पर से उठकर वह नीचे कूद जाता है और फिर वह अपना एक तीर नकली भानामति की ओर छोड़कर उसकी माया को नष्ट कर देता है और कहता है कि अब मैं तुम्हें अनीति और अधर्म से युद्ध नहीं करने दूंगा।
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फिर प्रद्युम्न एक ऐसी बाण संभरासुर की ओर छोड़ता है जिसके चलते वह अपनी मायावी शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाता है। तभी वहां पर उसके गुरुदेव प्रकट होकर कहते हैं- संभरासुर अब तुम मुगदर का प्रयोग करना चाहते हो ना? संभरासुर कहता है- हां। तब गुरुदेव कहते हैं- परंतु ये मुगदर अब काम नहीं आएगा क्योंकि देवताओं के वरदान धर्म की रक्षा तथा स्थापना के लिए होते हैं। धर्म नष्ट करने के लिए नहीं होते हैं। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि नहीं मेरा मुदगर विफल नहीं हो सकता। तब गुरुदेव कहते हैं कि तुम्हारा मुदगर विफल भी होगा और तुम्हारा वध भी होगा। संभरासुर यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो इसका एक ही उपाय है कि तुम भगवान श्रीकृष्ण की शरण में चले जाओ।
 
यह सुनकर संभरासुर कहता है कि वो ग्वाला और भगवान! नहीं गुरुदेव नहीं, असंभव। तब गुरुदेव कहते हैं- ये असंभव नहीं सत्य है। मरने के बाद मैं इस सत्य को जान गया हूं। तब तक मैं धरती पर था तब तक मैं भी तुम्हारी तरह इस सत्य को देख नहीं पाया था। परंतु मैंने अब देख लिया है कि श्रीकृष्ण धरती पर भगवान का अवतार हैं। संभरासुर हठधर्मी छोड़ दो और उनकी शरण में चले जाओ वो तुम्हें क्षमा करके जीवनदान दे देंगे।
 
यह सुनकर संभरासुर कहता है कि नहीं गुरुदेव! मेरे एक-एक पुत्रों ने बड़ी श्रद्धा, बड़े आदर और बड़े सम्मान के साथ मेरे लिए अपने प्राण त्यागे और मैं उनका अनादर करूं, उनकी श्रद्धा को ठोकर मार दूं? नहीं गुरुदेव नहीं...संभरासुर इ‍तना गिरा हुआ नहीं है। इतना निर्लज्ज नहीं हूं। मुझे मृत्यु आती है तो आ जाए। प्रद्युम्न मेरे प्राण हरण करना चाहती है तो कर ले। गुरुदेव संभरासु कायर नहीं एक योद्धा है योद्धा। संभरासुर ने सिर उठाकर शान से जीना सीखा है और सिर कटाकर शान से मरना भी आता है। यह सुनकर गुरुदेव वहां से चले जाते हैं।
 
इसके बाद संभरासुर माता पार्वती से प्रार्थना करता है कि हे माता पार्वती! आपने मुझे वरदान देते हुए ये कहा था कि जब तुम्हारे प्राण संकट में आ जाए तो मेरे मुदगर का प्रयोग करके अपने प्राण बचा लेना। अब मेरे प्राण संकट में है माते। मैं अब मुदगर का प्रयोग करने जा रहा हूं माते। ऐसा कहकर संभरासुर मंत्र पढ़ने लगता है तो यह देखकर प्रद्युम्न घबरा जाता है। फिर जब संभरासुर मंत्र पढ़ लेता है तो उसके हाथ में मुदगर आ जाता है जिसे वह प्रद्युम्न की ओर छोड़ते हुए कहता है- जाओ और प्रद्युम्न का वध करो।
 
वह मुदगर प्रद्युम्न की ओर बढ़ने लगता है। यह देखकर प्रद्युम्न हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है- मां पार्वती मेरी रक्षा कीजिये। ऐसा कहकर वह आंखें बंद कर लेता है। मुदगर प्रद्युम्न के पास आकर अदृश्य हो जाता है तो यह देखकर संभरासुर चौंक जाता है और कहता है- नहीं..नहीं..धोखा..धोखा, एक बार फिर देवताओं ने मेरे साथ धोखा किया..छल किया है मेरे साथ छल। 
 
फिर संभरासुर अपनी माया से खुद को एक विशालकाय पत्थर में बदलकर प्रद्युम्न की ओर लुढ़क जाता है। यह देखकर प्रद्युम्न वहां से भागने लगता है। आगे-आगे प्रद्युम्न और पीछे-पीछे विशालकाय पत्‍थर। फिर आगे जाकर प्रद्युम्न अपनी माया से एक बड़ी चट्टान निर्मित कर देता है जिससे संभरासुर बना वह पत्थर टकराकर फूट जाता है तो संभरासुर पुन: अपने असली रूप में आ जाता है।  
 
तभी प्रद्युम्न के समक्ष इंद्रदेव प्रकट होकर कहते हैं कि मैं तुम्हें ये समझाने आया हूं कि संभरासुर देवताओं को भी परास्त करने की क्षमता रखता है और तुम्हारे पास कोई ऐसी शक्ति नहीं है तो उसका वध कर सके। इस पर प्रद्युम्न पूछता है कि तो फिर मुझे क्या करना चाहिये? तब इंद्रदेव बताते हैं कि दैत्यराज संभरासुर केवल वैष्णवास्त्र से ही मारा जा सकता है। इसलिए तुम मुझसे ये अस्त्र ग्रहण करो।... फिर इंद्रदेव उसे वैष्णवास्त्र दे देते हैं।
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इसके बाद प्रद्युम्न आकाशमार्ग से भाग रहे संभरासुर के सामने खड़ा हो जाता है और वैष्णवास्त्र का आह्‍वान करता है और कहता है कि यदि मैं वासुदेव श्रीकृष्ण देवी रुक्मिणी का पुत्र हूं और माता भानामति के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा है, यदि मेरे युद्ध से त्रिलोक का कल्याण होने वाला है तो इस वैष्णवास्त्र से इस अधर्मी और दुराचारी संभरासुर का विनाश हो जाए। यह देखकर संभरासुर घबरा जाता है और कहता है- नहीं नहीं मेरा वध कोई नहीं कर सकता, कोई नहीं कर सकता।..तभी वहां पर वैष्णवास्त्र प्रकट हो जाता है। प्रद्युम्न वैष्णवास्त्र को प्रणाम करके उसे संभरासुर की ओर छोड़ देता है। संभरासुर चीखने लगता है और मारा जाता है। 
 
उधर, यह समाचार सुनकर संभरासुर की पत्नी मायावती विलाप करने लगती है और उसे उसकी सभी बहुएं विधवा के वस्त्र पहनानें और चूढ़ियां तोड़ने आती हैं तो वह जोर-जोर से रोने लगती है। फिर संभरासुर की चिता सजी हुई बताई जाती है। फिर चिता को जलते हुए बताया जाता है।
 
फिर भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी के समक्ष कहते हैं- वाह संभरासुर वाह। आज तुमने प्रमाणित कर दिया कि तुम एक महावीर योद्धा हो। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- आप प्रद्युम्न के शत्रु की प्रशंसा कर रहे हो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं संभरासुर की नहीं, उस महायोद्धा की प्रशंसा कर रहा हूं जो सदा ही रणभूमि में वीरों की भांति युद्ध करता है और जो विरगति की प्राप्ति को सम्मान समझता है। वाह..काश संभरासुर ने यह सब धर्मनीति से धर्म की स्थापना के लिए किया होता तो आने वाला इतिहास उसे वीर और महान योद्धा के नाम से पुकारता।
 
उधर, प्रद्युम्न देवी रति के साथ भानामति के पास जाकर उनके चरणों में अपने धनुष-बाण रखकर कहता है कि गुरु के चरणों में वो अस्त्र और शस्त्र अर्पित है जिनके बल पर मैंने संभरासुर का वध कर दिया है। यह सुनकर भानामति खुश होकर कहती है- बधाई हो पुत्र बधाई हो। फिर प्रद्युम्न कहता है- एक शिष्य के अस्त्र गुरु के चरणों में और अब एक पुत्र का सिर उसकी माता के चरणों में। ऐसा कहकर वह अपनी माता के चरणों में अपना सिर रख देता है। यह देखकर भानामति भावुक हो जाती है।
 
फिर प्रद्युम्न कहता है कि क्या बात है माताश्री आप मुझसे नाराज हैं क्या? तब भानामति कहती है- नहीं पुत्र। इस पर प्रद्युम्न कहता है- तो फिर आपने अपने चरणों से उठाकर मुझे गले क्यों नहीं लगाया? मुझे अपने से दूर क्यों पकड़ रखा है। तब भानामति उदास होकर रोते हुए कहती है कि अपने से दूर नहीं पुत्र। अपनी आंखों के रास्ते से तुम्हें मैं अपनी आत्मा के अंदर समा रही हूं। मैं जी भरकर तुम्हारे मुखमंडल को देखना चाहती हूं ताकि तुम्हारे इस सुंदर छवि को मैं अपनी आंखों में बंद करके अपने साथ ले जाऊं।
 
यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है- ले जाऊं! कहां जा रही है आप माताश्री? तब भानामति कहती है कि अपने लोक में। तुम तो जानते हो पुत्र की संभरासुर पर तुम्हारी विजयी के साथ ही मेरी मुक्ति का क्षण आ पहुंचा है। यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है- नहीं नहीं माताश्री मैं आपको नहीं जाने दूंगा।.. फिर भानामति कहती है कि पुत्र ये एक कटु सत्य है कि मैं तुम्हारी सगी मां नहीं हूं। तुम्हारी सगी मां तो रुक्मिणी है। इस तरह मां और बेटे में भावुकता भरी बातें होती हैं। 
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अंत में वहां पर श्रीकृष्‍ण और रुक्मिणी प्रकट हो जाते हैं। सभी उन्हें प्रणाम करते हैं तो प्रद्युम्न कहता है- अब आप ही इन्हें समझाइये। देखिये कैसी नासमझी की बातें कर रही है। तब माता रुक्मिणी कहती हैं कि भानामति! प्रद्युम्न को मैंने जन्म अवश्य दिया है परंतु इस पर संपूर्ण अधिकार तुम्हारा ही है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां भानामति जन्म देने वाली मां से पाल-पोसकर बड़ा करने वाली मां बड़ी होती है। सच्ची मां वही होती है तो अपनी संतान को शिक्षा और दीक्षा देती है। इसलिए मैं अपनी यशोदा मैया का अधिक आदार करता हूं ‍क्योंकि वो मेरी सच्ची गुरु भी हैं।
 
फिर अंत में भानामति कहती है कि मैं मुक्त होना चाहती हूं। मैं जाना चाहती हूं पुत्र। मेरा मोह छोड़ दो। फिर भानामति श्रीकृष्ण को प्रणाम करके कहती हैं- प्रभु मुक्त होने के पहले मेरी एक अंतिम इच्छा है कि मुझे आपके चतुर्भुज रूप के दर्शन हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य भानामति।
 
यह सुनकर आकाश में सभी देवता प्रकट हो जाते हैं और शंख की ध्वनि बजने लगती है। फिर श्रीकृष्ण अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हो जाते हैं। नारदमुनि, ब्रह्मा, शिव आदि सभी देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। प्रद्युम्न और रति भी ये दृश्य देखते हैं और फिर भानामति और प्रद्युम्न उनका स्तुति गान करते हैं। फिर भानामति ज्योतिरूप में बदलकर श्रीकृष्ण के हृदय में विलिन हो जाती है। जय श्रीकृष्णा।
 
 
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