निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 7 सितंबर के 128वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 128 ) में जब प्रद्युम्न का भेजा नकली संभरासुर कामिनी को यह विश्वास दिला देता है कि तुम्हारा पति कुंभकेतु प्रद्युम्न के हाथों मारा गया तो कामिनी का विश्वास टूट जाता है और वह अपने गले का मंगलसूत्र तोड़ देती है, अंगुठियां निकाल देती हैं और चूढ़ियां भी उतार कर फेंक देती है। फिर वह क्रोधित होकर यज्ञ की अग्नि को जल से बूझा देती है तब उसमें से अग्निदेव निकलकर कहते हैं- ये तुमने क्या किया कामिनी, तुमने मेरा अपमान कर दिया? अब तुम्हारे पति को कोई नहीं बचा सकता। तब कामिनी आश्चर्य से पूछती है तो क्या मेरे पति जीवित हैं? इस पर अग्निदेव कहते हैं कि हां वे जीवित है और ये तो प्रद्युम्न की माया है। यह सुनकर कामिनी प्रद्युम्न द्वारा भेजे गए नकली संभरासुर की ओर देखने लगती है तो वह जोर जोर से हंसता हुआ अदृश्य हो जाता है।
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उधर, रणभूमि में अचेत कुंभकेतु को एक सैनिक जगा देता है। कुंभकेतु आंखें खोलकर इधर-उधर देखने लगता है और फिर पुन: युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। प्रद्युम्न उसे देखकर मुस्कुराता है। फिर कुंभकेतु और प्रद्युम्न में युद्ध होता है। अंत में कुंभकेतु जब अपने तीर से प्रद्युम्न के सिर का मुकुट गिरा देता है तो प्रद्युम्न क्रोधित होकर ऐसा बाण छोड़ता है कि उसके रथ में अग्नि विस्फोट हो जाता है जिसके चलते कुंभकेतु आसमान में बहुत उचांईं पर उछल जाता है और फिर वह चीखता हुआ भूमि पर गिरकर मर जाता है।
यह समाचार जब कामिनी को मिलता है तो वह विलाप करने लगती है। उधर, मायावती भी विलाप करती है और लगभग पागल जैसी हरकत करके संभरासुर को भला-बुरा कहती है और कहती है कि आपने अपनी महत्वकांशा की पूर्ति के लिए मेरे सारे पुत्रों की बली दे दी। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि तुम क्यों मेरे पुत्रों की हत्या का आरोप मुझ पर लगा रही हो। उनकी हत्या मैंने नहीं की है, शत्रु पुत्र ने की है। इस पर मायावती कहती है कि परंतु इसका कारण केवल आप हैं आप। आपने समय की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया।.. यह सुनकर संभरासुर कहता है कि रुक्मिणी की गोद अवश्य उजड़ेगी मायावती। मैं अपने पुत्रों के हत्यारे उस प्रद्युम्न को जीवित नहीं रहने दूंगा, सर्वनाश कर दूंगा।.. तब मायावती कहती है कि सर्वनाश हो चुका है महाराज। असुरों का ये साम्राज्य शमशान में बदल चुका है। अब तो मैं भी अपने पुत्रों के साथ मर जाना चाहती हूं। यह सुनकर संभरासुर कहता है- मायावती यदि तुम भी मेरा साथ छोड़ना चाहती हो तो छोड़ दो, परंतु मैं प्रद्युम्न और ग्वाले कृष्ण को नहीं छोड़ूंगा।
उधर, कामिनी रणभूमि में जाकर अपने पति कुंभकेतु के शव के पास विलाप करते हुए कहती है- हे ग्वाले कृष्ण! मैं जानती हूं इस सबके पीछे तुम्हारी ही प्रेरणा है, तुम्हारी ही चाल है और तुम्हीं ने ये संहार करवाया है।...उसका ये विलाप श्रीकृष्ण और रुक्मिणी सुन रहे होते हैं।....फिर कामिनी कहती है- हे द्वारिकाधीश! एक दिन तुम्हारा भी कुटुंबक्षय होगा। इसी तरह तुम्हारे परिवार का विनाश होगा..विनाश होगा।...यह सुनकर रुक्मिणी घबरा जाती है- प्रभु कामिनी ने कितना भयंकर श्राप दिया है। वो चाहती है कि सारे यादव कुल का संहार हो।...इस पर श्रीकृष्ण कामिनी के दोहरे चरित्र की बात करते हैं कि जब कुंभकेतु अपने पिता के साथ लोगों का नरसंहार करता था तब यही कामिनी विजय उत्सव मनाती थी। इसी कामिनी ने जब यज्ञ कि अग्नि में यह देखा है कि मेरा पति जिंदा है तो अपने देवरों के वध को भूलकर हंस रही थी। यह जानती थी कि युद्ध का परिणाम क्या होगा फिर भी इसने मायासुर की पत्नी मंदाकिनी के समझाने पर भी युद्ध नहीं रोका और कहा कि अब तो बाण धनुष से निकल चुका है और अब यही कामिनी विलाप कर रही है।
फिर रुकिमणी कहती है कि प्रभु क्या हम इस हिंसा और विनाश को टाल नहीं सकते थे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस तरह की हिंसा और विनाश को टालने का अर्थ यही होता कि जैसे धर्म ने अधर्म के सामने अपना सिर झुका दिया। जैसे सत्य ने असत्य को प्रणाम किया और न्याय ने स्वयं अपने हाथों अन्याय की स्थापना न्याय मंदिर में की है। देवी क्या यह उचित है? तब रुक्मिणी कहती है नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। धर्म की तो सदा विजय ही होना चाहिए। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अधर्म के खिलाफ की गई हिंसा, हिंसा नहीं धर्मयुद्ध है। प्रद्युम्न भी धर्मयुद्ध कर रहा है। तब रुक्मिणी कहती है- अब तो संभरसुर सारे पुत्र मारे गए हैं प्रभु। क्या अब भी वह पश्चाताप करके धर्म के मार्ग पर आएगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि असंभव। फिर भी संभरासुर को संभलने और पश्चाताप करने का अवसर तो अवश्य देना चाहिये। मैंने देवर्षि नारद को संभरासुर से भेंट करने के लिए भेजा है। वो संभरासुर को एक बार फिर सत्य का मार्ग दिखाने का प्रयास करेंगे।
फिर उधर, देवर्षि नारदमुनि संभरासुर के पास उस वक्त पहुंचते हैं जिस समय वह अपने पुत्रों की जलती चिताओं को देख रहा होता है। संभरासुर देवर्षि को प्रणाम करता है। तब देवर्षि चिताओं को देखने लगते हैं। तब संभरासुर कहता है कि आपने मुझे आशीर्वाद नहीं दिया? यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- संभुरासुर ये शमशान घाट है। यहां यज्ञकुंड नहीं जल रहे हैं चिताएं जल रही हैं। मनुष्य अपनों और परायों को छोड़कर यहां से चला जाता है। ये शमशान भूमि जीवन और मृत्यु के बीच खींची हुई एक सीमा रेखा है। जिसके एक ओर मोह-माया और सांसर की हर वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है और दूसरी ओर असीम शांति, मुक्ति है, विशाल और अनंतकाल है। कोई इच्छा नहीं है, कोई आशा नहीं है, परम संतोष है। मनुष्य जब इस शमशान भूमि पर आता है और चिताओं पर जीवन के अवशेष को भस्म होता हुआ देखता है तो इस अर्थहिन जीवन का रहस्य उसे समझ में आ जाता है और कुछ समय के लिए मायाजाल से निकल आता है। आसक्ति की जगह विरक्ति का जन्म होता है।...उपदेश देकर देवर्षि कहते हैं कि तुम अब भी युद्ध के बारे में सोच रहे हो?
इस पर संभरासुर कहता है कि मैं इतना निर्बल और दुर्बल नहीं हूं देवर्षि की प्राण हानि का सोचकर पश्चाताप करूं। मैं अपने पुत्रों का बदला अवश्य लूंगा देवर्षि अवश्य। मैं प्रद्युम्न को जीवित नहीं छोडूंगा देवर्षि। तब देवर्षि कहते हैं कि तुम ऐसा समझते हो कि किसी को भी मृत्यु देना तुम्हारे वश में है तो यदि ऐसा होता तो तुम प्रद्युम्न की हत्या उसी समय कर सकते थे जब वह एक छोटासा बालक था। अभी भी वक्त है अहंकार को त्यागकर सत्य के मार्ग पर आ जाओ और श्रीकृष्ण की शरण में हो जाओ, वे तुम्हें मुक्ति देंगे। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि यह संभव नहीं हो सकता देवर्षि। मैं क्या उसे मेरी शरण में आना होगा। जाइये उस ग्वाले से कहिये की प्रद्युम्न का वध करके वह द्वारिका की ओर आएगा। युद्ध अटल है और अवश्य होगा देवर्षि।
फिर उधर, देवी रक्मिणी श्रीकृष्ण से कहती है कि प्रभु संभरासुर बड़ा भयंकर है। यदि प्रद्युम्न को उसकी शक्तियों के बारे में पता नहीं होगा तो अनर्थ हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि देवी ये एक माता की ममता बोल रही हैं एक देवी की नहीं। देवी आप कदाचित भानामति को भूल रही हैं। संभरासुर के वध का उत्तरदायित्व जितना प्रद्युम्न पर है उतना ही भानामति पर भी है। आप व्यर्थ ही चिंता ना करें गुरुमाता स्वयं संभरासुर के विरुद्ध प्रद्युम्न को सावधान और सतर्क करने आएंगी।
फिर उधर, प्रद्युम्न जब अपने रथ के पहिये को ठीक कर रहा होता है तब भानामति आकर कहती है कि तुम ये मत सोचो की युद्ध में तुम अकेले हो, मैं भी तुम्हारे साथ ही पुत्र प्रद्युम्न। फिर भानामति प्रद्युम्न के घावों पर जड़ी का लेप लगाती हैं। फिर वह बताती है कि पुत्र प्रद्युम्न संभरासुर के पुत्रों का वध जैसा संभरासुर का वध आसान नहीं है। संभरासुर दुराचारी है अधर्मी है फिर भी वह एक महान योद्धा है। इसलिए उसने देवताओं पर भी विजय प्राप्त की है। उसका वध करना तो क्या, उसे परास्त करना भी बड़ा कठिन है। यदि तुम संभरासुर के साथ गंभिरता से युद्ध नहीं करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा क्योंकि संभरासुर के पास कई शक्तियां और अस्त्र तो है ही परंतु उसके पास एक अमोघ अस्त्र है जिसका नाम है मुदगर। ये मुदगर उसने आदिमाता देवी पार्वत से वरदान रूप में प्राप्त किया था और यदि संभरासुर ने इस अस्त्र का प्रयोग तुम पर किया तो उसे विफल करने का सामर्थ तुममें नहीं है पुत्र। इस मुदगर का किसी के पास भी तोड़ नहीं है। इसी के कारण वह अजेय बना हुआ है। इसी मुदगर से देवी माता पार्वती ने शुंभ-निशुंभ का वध किया था।
तब प्रद्युम्न कहता है कि माताश्री तो फिर आप ही बताइये कि संभरासुर का वध करने के लिए अब हमें क्या करना चाहिए? तब भानामति कहती है कि अब हमें देवी माता पार्वती की शरण में ही जाना चाहिए क्योंकि इस अस्त्र के हनन का कवच स्वयं देवी माता पार्वती ही हमें दे सकती है। हमें उन्हीं का स्मरण करना चाहिए..आओ पुत्र। फिर प्रद्युम्न और भानमति दोनों माता भगवती पार्वती की अराधना करते हैं।
माता प्रकट होकर प्रद्युम्न को विजयीभव: का आशीर्वाद देती है तो प्रद्युम्न कहता है- परंतु माते संभरासुर के साथ जो महासंग्राम होने वाला है उसमें मेरी विजय कैसे संभव हो सकती है क्योंकि आप ही ने तो संभरासुर को अपनी तपस्या से निर्मित मुदगर वरदान में दिया है? तब माता कहती है कि हे प्रद्युम्न! मेरा मुदगर कभी निष्फल नहीं हो सकता परंतु जगत के कल्याण के लिए मैं तुम्हें ईष्टवर प्रदान करती हूं अब तुम संभरासुर पर अवश्य विजय प्राप्त करोगे। जब मेरे वरदान का संभरासुर दुरुपयोग करते हुए तुम पर प्रहार करेगा तब मेरा मुदगर तुम्हारे शरीर की परिक्रमा करके मेरे पास वापस लौट आएगा। यह सुनकर प्रद्युम्न प्रसन्न होकर कहता है आपका बहुत-बहुत धन्यवाद माते, बहुत बहुत धन्यवाद। भानामति भी प्रसन्न होकर माता को प्रणाम करती है। फिर माता वहां से चली जाती है।
उधर, संभरासुर जब अपने महल की गैलरी में खड़ा होता है तब वहां पर कालपुरुष उपस्थित होकर कहता है- संभरासुर मैं तुम्हारा काल हूं तुम्हारी मृत्यु। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि तुम अवश्य मुझे भ्रमित करने आया हो। ये सब कृष्ण की माया है। तुम मेरा आत्मविश्वास नहीं तोड़ सकते। जय श्रीकृष्णा।
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