सूतजी ने कहा- इस व्रत को पहले किसने किया? अब मैं आपको सुनाता हूँ। बहुत रमणीय काशीपुरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख-प्यास से दुखित यहाँ-वहाँ भटकता रहता था। इस ब्राह्मण को दुःखी देख एक दिन भगवान ने स्वयं एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर, इस ब्राह्मण से आदर के साथ प्रश्न किया। हे विप्र! तुम सदा ही दुःखी रह पृथ्वी पर क्यों भटकते रहते हो। मैं यह जानना चाहता हूँ।
ब्राह्मण उवाच ब्राह्मणोऽति दरिद्रोऽहं भिक्षाथं वै भ्रमे महीम् ॥4॥ उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।
निर्धन ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वह अत्यंत निर्धन ब्राह्मण है। और भिक्षा के लिए पृथ्वी पर भटकता है। अगर आप इस निर्धनता को मिटाने का उपाय जानते हों तो कृपया बताएँ। बूढ़े ब्राह्मण ने कहा कि सत्यनारायण स्वरूप विष्णु, मन चाहा फल देते हैं। अतः विप्र तुम उनका उत्तम व्रत-पूजन करो। ऐसा व्रत-पूजन करने से मनुष्यों के सब दुःख दूर हो जाते हैं।
सत्य व्रत का विधान ठीक तरह बताकर वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए भगवान सत्यनारायण अंतर्ध्यान हो गए। निर्धन ब्राह्मण ने कहा कि वह बूढ़े ब्राह्मण द्वारा बताया व्रत करेगा। इसी विचार के कारण उसे रात्रि में नींद नहीं आई।
दूसरे दिन वह यह संकल्प लेकर कि मैं श्री सत्यनारायण का व्रत करूँगा भिक्षा माँगने निकला। उस दिन भिक्षा में निर्धन ब्राह्मण को बड़ी मात्रा में दान प्राप्त हुआ। इसी धन से ब्राह्मण ने अपने बंधु-बांधव सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से दुःख से मुक्ति पाकर वह सम्पत्तिवान हो गया। तब से वह ब्राह्मण हर माह सत्यनारायण व्रत करता रहा। सब पापों से मुक्त हो, मोक्ष को प्राप्त हुआ।
हे विप्र! पृथ्वी पर जो कोई भी इस व्रत को करेगा, उसके सभी दुःख नष्ट होंगे। श्रीमन् नारायण ने यही श्री नारदजी से कहा था। श्री सूतजी बोले यह सब तो मैंने कहा अब और क्या बोलूँ। तब ऋषिगण बोले कि इस ब्राह्मण से सुनकर यह सत्यव्रत और किसने किया है। यह जानने की हमारी इच्छा है। सूतजी बोले- अच्छा ऋषियों अन्य जिन लोगों ने यह व्रत किया, उनके बारे में सुनो। यही ब्राह्मण पर्याप्त धन आ जाने के कारण एक बार सत्यनारायण का व्रत कर रहा था कि एक लकड़हारा आया।
बहिःकाष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ । तृष्णाया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रं कृतव्रतम् ॥18॥
तस्मादेतद्व्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेताऽतिहर्षितः । पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा च नगरं ययौ ॥21॥
लकड़ी का बोझा बाहर रख प्यास मिटाने वह ब्राह्मण के घर में गया। उसने ब्राह्मण को व्रत करते देखा। ब्राह्मण को प्रणाम कर उस लकड़हारे ने पूछा कि हे प्रभो! आप क्या कर रहे हैं? इस पूजन का क्या फल है? विस्तारसे कहें। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मनवांच्छित सभी फलों को देने वाला यह सत्यनारायण का व्रत है। इन्हीं की कृपा से मेरा यह धन-धान्य है। यह जान लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ और प्रसाद ले, जल पी, लकड़ी बेचने शहर में चला गया।
ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदलीफलम् । शर्कराघृतदुग्धं च गौधूमस्य च चूर्णकम् ॥25॥
लकड़ी का बोझा सिर पर लेकर उसने विचार किया कि इन लकड़ियों के बेचने पर आज जो धन मिलेगा, उससे वह सत्यनारायण का पूजन करेगा। वह सत्यनारायण का उत्तम व्रत करेगा यह मन में विचार कर लकड़हारे ने लकड़ी का बोझ सिर पर धारण किया और निकल पड़ा। वह धनवान लोगों की बस्ती में गया, जहाँ उसे अपनी लकड़ियों की दूनी कीमत मिली। तब वह प्रसन्न होकर पके केले, शकर, घी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया बनवाकर अपने घर ले आया।
वहाँ अपने भाई-बंधुओं के साथ मिलकर विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से वह पुत्रवान, धनवान बना और इस लोक में सुख भोगकर अंत में सत्यनारायण के लोक में गया।