सूतजी बोले- मुनियों! अब हम आगे की कथा सुनाते हैं। सभी उत्तम मुनि श्रवण करें। पूर्व समय में उल्कामुख नाम का बुद्धिमान राजा था। वह जितेन्द्रिय एवं सत्यवादी था। वह नित्य देवालयों में जाता और दान-दक्षिणा द्वारा ब्राह्मणों को संतुष्ट रखता था। उसकी कमल जैसे मुखवाली सती रानी थी। यह राजा-रानी भद्रशीला नदी के तट पर सत्य नारायण का व्रत कर रहे थे। ऐसे समय में साधु नाम का एक वैश्य धन-धान्य से भरी नाव ले वहां पहुंचा।
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति । दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं प्रपच्छ विनयान्वितः ॥5॥
वैश्य नाव को किनारे पर लगा, सत्यव्रत कर रहे राजा को देखा। उस वैश्य ने विनयपूर्वक राजा से प्रश्न किया। साधु नामक वैश्य बोला- 'हे राजन आप भक्ति के साथ क्या कर रहे हैं। मैं यह सुनना चाहता हूं।' राजा बोला- 'हे साधु नामक वैश्य! हम बंधु-बांधवों के साथ विष्णु भगवान सम तेजस्वी श्री सत्यनारायण का व्रत और पूजन पुत्रादि की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं।' राजा के वचन सुनकर साधु ने विनयपूर्वक कहा- 'आप इस व्रत के संबंध में सारा विधान मुझे भी कहिए। मैं भी यह व्रत करूंगा।'
दशमे मासि वै तस्याः कन्या रत्नमजायत । दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी ॥13॥
मेरे भी कोई संतान नहीं है। क्या इस व्रत के प्रभाव से मेरे घर भी संतान होगी? इसके बाद वह खुशी-खुशी अपने घर आया। घर आकर उसने अपनी पत्नी से सबकुछ कहा। साधु बोला यदि हमारे घर संतान होगी तो हम भी सत्यनारायण का व्रत करेंगे। पतिव्रता स्त्री लीलावती ऐसा सुनकर बहुत आनंदित हुई। सत्यनारायण के प्रसाद से संसारवासियों की तरह वह भी गर्भवती हुई। दसवें महीने में लीलावती ने एक कन्या को जन्म दिया। यह कन्या चंद्रमा की कला की तरह दिन-दिन बढ़ने लगी।
नाम्नाकलावती चेति तन्नामकरणं कृतम् । ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वचः ॥14॥ न करोषि किमर्थं वै पुरा संकल्पितव्रतम् ।
साधुरुवाच विवाह समये त्वस्या करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥15॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति । ततः कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि ॥16॥
इस कन्या का नाम कलावती रखा गया। अब लीलावती ने अपने पति से मधुर वचन कहे। हे स्वामी! आप पहले किए संकल्प के अनुसार सत्यनारायण भगवान का व्रत क्यों नहीं करते। साधु नामक वैश्य बोला- प्रिये! कन्या के विवाह के समय यह व्रत कर लेंगे। इतना कहकर वह वैश्यनगर को चला। इधर कलावती कन्या पिता के घर रहकर बड़ी होने लगी। एक दिन साधु नामक वैश्य ने अपनी कन्या को सहेलियों के साथ नगर में देखा। धर्म-मर्यादा को जानने वाले साधु वैश्य ने तत्काल विचार कर कन्या के योग्य श्रेष्ठ वर खोजने हेतु दूत भेजे। वैश्य की आज्ञा पाकर दूत सुसम्पन्न कांचन नगर गए।
वहां से बड़ा गुणवान, सुंदर वैश्य पुत्र, कन्या के योग्य वर देखा और उसे ले आए। वैश्य पुत्र को देख साधु वैश्य अपने परिचित, बंधु-बांधवों सहित संतुष्ट हुआ। अपनी कन्या का विधिपूर्वक विवाह उसी के साथ कर दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश उस समय वह साधु नामक वैश्य सत्यनारायण व्रत को भूल गया। परिणामस्वरूप श्री सत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए। कुछ समय बीता। अपने काम में होशियार धनिक वैश्य अपने जामाता को साथ ले शीघ्र व्यापार के लिए चल पड़ा। वह समुद्र के पास सुंदर रत्नसार नगर में गया। वहाँ जाकर वह धनवान वैश्य अपने जामाता के साथ व्यापार करने लगा।
इस सुंदर नगर का राजा चंद्रकेतु था। उस समय सत्यनारायण प्रभु ने प्रतिज्ञा से भ्रष्ट होने वाले वैश्य को कठिन शाप दिया। कि वैश्य बहुत कष्ट को प्राप्त करें। एक दिन राजा की संपत्ति चुराकर चोर उस स्थान पर आया जहां वैश्य और उसका दामाद ठहरे थे। राजा के दूतों को अपना पीछा करते देख चोर डरकर, धन वहीं छोड़ भाग गया। पीछे दौड़ते राजा के दूतों ने राजा की संपत्ति को वहां देखा और दोनों वैश्यों को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए।
हर्षित होकर दूत राजा से बोले कि वे दो चोर लाए हैं। आप उनके लिए आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से शीघ्र ही उन्हें बंदी बनाकर, बिना विचार किए जेल में डाल दिया। श्री सत्यनारायण की माया से वैश्यों की बात किसी ने नहीं सुनी। राजा चंद्रकेतु ने वैश्यों का सारा धन छीन लिया। शापवश वैश्य की पत्नी भी बहुत दुखी हो गई। घर की संपत्ति चोर ले गए। वैश्य की स्त्री शरीर से रुग्ण, मन में चिंता लिए, भूख से दुखी, अन्न पाने के लिए घर-घर भटकने लगी। इसी प्रकार कलावती कन्या भी।
माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमतः । पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥36॥
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम् । द्विजालयं व्रतं मातर्दृष्टं वांछित सिद्धिदम् ॥37॥
एक दिन भूखी-प्यासी बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई, जहां उसने सत्य नारायण का व्रत पूजन होते देखा। उसने वहां बैठकर कथा सुनी तथा प्रसाद लेकर रात्रि को अपने घर लौटी। घर जाने पर कलावती से उसकी माता ने प्रेमपूर्वक कहा कि बेटी रात में कहां रही। तेरे मन में है क्या? कलावती ने तत्काल मां से कहा कि माता मैंने ब्राह्मण के घर पर मनोकामना पूर्ण करने वाला व्रत होते देखा है। मैं वहीं थी।
कन्या के वचन सुनकर वैश्य की पत्नी तत्काल सत्यनारायण का व्रत करने को तैयार हो गई। साध्वी लीलावती ने अपने बंधु-बांधवों के साथ व्रत किया और मांगा कि मेरे पति और दामाद घर लौट आएं। लीलावती ने प्रार्थना की कि सत्य नारायण प्रभु उसके पति और दामाद के अपराध क्षमा करें। इस व्रत के प्रभाव स्वरूप, सत्य नारायण भगवान प्रसन्न हुए। राजा चंद्रकेतु को स्वप्न दिया कि वह सवेरे ही दो वैश्यों को मुक्त कर दें। छीना हुआ उनका धन लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वे धन और पुत्रों सहित राजा के राज्य का नाश कर देंगे।
एवमाभाष्यराजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभुः । ततः प्रभातसमये राजा च स्वजनैः सह ॥43॥
इतना बताने के बाद श्री भगवान की स्वप्न वाणी मौन हो गई। प्रातःकाल राजा ने अपने स्वजनों एवं सभासदों को स्वप्न के संबंध में बताया और आदेश दिया कि बंदी वैश्यों को तत्काल छोड़ दिया जाए। राजा की आज्ञा पाकर राजा के सिपाही विनम्र भाव से दोनों वैश्य पुत्रों को बंधन के बिना राजा के समीप लाए। दोनों वैश्यों ने चंद्रकेतु को नमस्कार किया। पिछली दशा के डर से व्याकुल वैश्य पुत्र कुछ नहीं बोले। राजा ने दोनों वैश्यों को देख आदर से बोला।
भाग्य ने आपको यह कष्ट दिया है। अब डरने की बात नहीं है। इसके बाद वैश्यों की बेड़ियां कटवा कर उनकी हजामत बनवाई। तब वस्त्र गहने आदि से उन्हें पुरस्कृत किया तथा प्रसन्न किया। अपने शब्दों से भी उनका संतोष किया। जो धन वैश्यों का छीना था वह दुगना कर लौटा दिया। राजा ने कहा हे साधु वैश्य तुम अब अपने घर जाओ। दोनों वैश्यों ने राजा को प्रणाम किया और कहा कि आपकी कृपा से हम अपने घर लौट जाएंगे। इस प्रकार दोनों वैश्य अपने घर के लिए चल पड़े।