हमने और आप सबने भी साधु-महात्माओं को अलग-अलग रंग के वस्त्र पहने देखा होगा। कभी-कभी जिज्ञासा भी हुई होगी कि जब सभी संत हैं तो वस्त्रों के रंग अलग अलग क्यों? कोई सफेद वस्त्र धारण करता है, कोई काले। कोई संन्यासी पीले और भगवे वस्त्रों में भी नजर आता है। इसके पीछे पसंद है या फिर कोई विशेष कारण? दरअसल, संन्यास जीवन में वस्त्रों के रंगों का बहुत महत्व है। यही बता रहे हैं उदासीन संत बिन्दूजी महाराज, जिन्हें स्वामी निर्वाणदास उदासीन के नाम से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं कि विरक्तों के जीवन में रंगों की अहमियत के बारे में...
श्वेत या सफेद रंग : संन्यास की शुरुआत में पहली और महत्वपूर्ण प्रक्रिया है ब्रह्मचर्य और पवित्रता की दीक्षा। इस प्रक्रिया से गुजरने वाले को सफेद वस्त्र प्रदान किए जाते हैं। सफेद अर्थात बेदाग रंग। साधक को ध्यान रखना पड़ता है कि उस पर कहीं कोई दाग अथवा कलंक न लगने पाए।
पीला रंग : जब संन्यास लेने वाला व्यक्ति पहली परीक्षा में सफल और निष्णात हो जाता है तो उसे पीले रंग के वस्त्र प्रदान किए जाते हैं। पीला रंग दया, क्षमा और करुणा का प्रतीक है। पृथ्वी का रंग भी पीला है। पृथ्वी और संत को सबसे अधिक सहनशील मानाय गया है। वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि पृथ्वी का रंग पीला है। इस अवधि में भिक्षाटन आदि के दौरान संन्यासी को लोगों की उपेक्षाएं और ताने भी सहने पड़ते हैं, लेकिन वह सबको क्षमा कर देता है।
लाल रंग : इन उपेक्षाओं को सहने के बाद गुरु संन्यासी को साधु बनाता है। अर्थात ऐसा माना जाता है कि वह साधना के योग्य हो गया है। तब उसे लाल वस्त्र प्रदान किए जाते हैं। लाल रंग क्रोध, खतरे और अग्नि का प्रतीक है। जो संन्यासी साधनारत होता है, वह अग्नि की ज्वाला के समान होता है। इसमें इच्छाओं का दमन करना होता है। लाल रंग का अर्थ है परिचित और अन्य लोग उस संन्यासी से दूर रहें। यदि उसकी साधना भंग होगी तो उसे क्रोध आएगा और वह चिमटा और त्रिशूल लेकर दौड़ पड़ेगा।
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काला रंग : साधना पूर्ण होने पर संन्यासी काले वस्त्र धारण करता है। काला रंग सभी रंगों का मिश्रण है, इसमें कुछ और नहीं मिलाया जा सकता। यह पूर्णता और परम पवित्रता का प्रतीक है। दैवत्व की पराकाष्ठा का भी रंग है यह। अज्ञानता और मूर्खतावश लोगों ने इसे भय और अपशकुन का रंग मान लिया। दरअसल, काला रंग संतत्व, श्रेष्ठता और पूर्णत्व का रंग है।
भगवा रंग : शास्त्रों का मत है कि भगवा पहनने के बाद लकड़ी की औरत का भी स्पर्श नहीं होना चाहिए। भगवा पहनकर आप समाज में नहीं जा सकते। भगवा वैराग्य की पराकाष्ठा है, चरम है। भगवा पहनने के बाद व्यक्ति तत्ववेत्ता अथवा तत्वचिंतक हो जाता है। हालांकि वर्तमान में भगवा की गरिमा का ध्यान नहीं रखा जा रहा है।