क्षिप्रा नदी। इसी नदी के किनारे सजा है भव्य सुंदर सिंहस्थ मेला। मां क्षिप्रा, शिप्रा या 'सिप्रा' नदी उज्जयिनी के निकट बहने वाली नदी है। शांत, धीर और गंभीर कही जाने वाली क्षिप्रा नदी इन दिनों अपने रूप पर गर्वित है। क्योंकि झिलमिलाती रोशनी में उसका स्वरूप निखर-निखर गया है। क्षिप्रा वास्तव में चम्बल नदी की सहायक नदी है।
आइए जानें अपनी क्षिप्रा को....दक्षिण-पूर्वी छोर से क्षिप्रा नगर में प्रवेश करती है। फिर वह हर मोड़ पर सुंदर-मनोहर दृश्य बनाती चलती है। त्रिवेणी का तट, रामघाट, नृसिंह घाट, गऊ घाट या दत्त का अखाड़ा या चिंतामन गणेश, कहीं से भी देख लीजिए कलकल-छलछल करती क्षिप्रा के चमचमाते जल के दर्शन नयानाभिराम होते हैं।
वह भर्तृहरि गुफा के समक्ष मुस्कुराती है और सिद्धवट पर पिंड दान कर्म करते हुए उदास लगने लगती है। पीर मछंदर,गढ़कालिका और कालभैरव क्षेत्र को पार कर सांदीपनि आश्रम और राम जनार्दन मंदिर को स्पर्श करती हुई मंगलनाथ में उफान पर लगती है। कालियादेह महल में अपने घुमाव को वह सहजता से लेती है और तब भी खिली-खिली, खिलखिलाती हुई ही लगती है।
इसी क्षिप्रा के तट पर तपस्वियों ने सिद्धियां प्राप्त की है और इसी क्षिप्रा के तीरे श्रावण मास में जब महाकाल महाराज अपने लाव-लश्कर के साथ पहुंचते हैं तो क्षिप्रा प्रसन्न हो कर उनके पांव पखारती है।
साहित्य में क्षिप्रा :
'मेघदूत'[1] में इस नदी का उज्जयिनी के संबंध में उल्लेख है-
अर्थात् ''अवंती में शिप्रा-पवन यानी क्षिप्रा से उठकर आती बयार सारसों की मदभरी कूक को बढ़ाती है। उषा:काल में खिले कमलों की सुगन्ध के स्पर्श से मन मुदित हो जाता है।। स्त्रियों की सूरत मोहक प्रतीत होती है। शिप्रा-पवन प्रियतम के समान विनती करने में बड़ी कुशल है। क्षिप्रा से उठकर आती मधुर मंद बयार प्रियतम की मनुहार की तरह लगती है।
'रघुवंश'[3] में भी महाकवि कालिदास ने इन्दुमती स्वयंवर के प्रसंग में क्षिप्रा की वायु का मनोहर वर्णन किया है-
इन्दुमती की सखी सुनंदा अवंतिराज का परिचय कराने के पश्चात उससे कहती है- "क्या तुम्हारी रुचि इस अवंतिनाथ के साथ (उज्जयिनी के राजा ) उन उद्यानों में विहार करने की है, जो शिप्रा तरंगों से उठती सुगंधित पवन द्वारा कम्पित होते रहते हैं।"
क्षिप्रा नदी के कलकल-छलछल प्रवाह से रचा और गुंथा उज्जैन का इतिहास है और उनके तट परंपरा के विकास की गाथा कहते हैं। सदियों से हमारे ऋषि-मुनियों ने नदियों की आराधना में ऋचाएं लिखी है। क्षिप्रा नदी का इतिहास कहता है कि वह किसी पर्वत के शीर्ष से नहीं अपितु धरती के गर्भ से प्रस्फुटित होकर इठलाती-बलखाती बहती है। क्षिप्रा नदी लोक सरिता है। अपने गोपनीय द्वार से आकर वह भगवान महाकालेश्वर का युगों से अभिषेक कर रही है। जानिए क्या कहते हैं पुराण क्षिप्रा के बारे में ....
पुराणों में क्षिप्रा
मार्केण्डेय पुराण में चर्मण्वती और क्षिप्रा दोनों नदियों का उल्लेख मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार क्षिप्रा उत्तरगामी है और उत्तर में बहते हुए ही चम्बल में जा मिलती है। क्षिप्रा का उल्लेख यजुर्वेद में भी है। वहां ‘ शिप्रे: अवे: पत्र: ‘ कहते हुए वैदिक ऋषियों ने क्षिप्रा का स्मरण किया है।
क्षिप्रा नदी का उल्लेख महाभारत,भागवतपुराण ,ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण तथा वामनपुराण में भी है। क्षिप्रा की महिमा का संस्कृत साहित्य में भरपूर उल्लेख है।
महर्षि वशिष्ठ ने क्षिप्रा स्नान को मोक्षदायक मानते हुए क्षिप्रा और महाकाल की सु-वंदना इन शब्दों में की है।
महाकाल श्री शिप्रा गतिश्चैव सुनिर्मला।
उज्जयिन्यां विशालाक्षि वास: कस्य न रोचते।।
स्नानं कृत्वा नरो यस्तु महान घामहि दुर्लभम्।
महाकालं नमस्कृत्य नरो मृत्युं न शोचते।।
एक श्रुतिकथा के अनुसार उज्जयिनी में अत्रि ऋषि ने तीन हज़ार साल तक घोर तपस्या की। इस दौरान उन्होंने अपने हाथों को ऊपर ही उठाए रखा। तपस्या पूर्ण होने के बाद जब उन्होंने अपने नेत्र खोले तब देखा कि उनके शरीर से प्रकाश के दो स्त्रोत प्रवाहित हो रहे हैं -पहला आकाश की ओर गया और चन्द्रमा बन गया और दूसरे ने जमीन पर क्षिप्रा नदी का रूप धारण किया। क्षिप्रा को सोमवती के नाम से भी जाना जाता था।
एक कथा यह पढ़ने में आई कि एक बार जब राजा महाकालेश्वर को भूख लगी तो उन्होंने भिक्षा मांगने का निश्चय किया। बहुत दिनों तक जब उन्हें भिक्षा नहीं मिली तब उन्होंने भगवन विष्णु से भिक्षा चाही। विष्णु ने उन्हें अपनी तर्जनी दिखा दी,इस पर महाकालेश्वर ने क्रोधित होकर उस तर्जनी को त्रिशुल से भेद दिया। उस अंगुली से रक्त प्रवाहित होने लगा तब महाकालेश्वर ने उसके नीचे कपाल कमंडल कर दिया। कपाल के भर जाने पर जब वह नीचे प्रवाहित होने लगा उसी से क्षिप्रा जन्मी।
क्षिप्रा नदी यूं ही चम-चम करती बहती रहे इसकी जिम्मेदारी सिंहस्थ के हर श्रद्धालु की है, शहर के हर निवासी की है, प्रशासन की है, हम सब की है।