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'मुक्तिबोध' की रचना : बहती है क्षिप्रा की धारा
* गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
बहती है क्षिप्रा की धारा
इसमें धुलते पैर तुम्हारे
जो कोमल हैं अरुण कमल से
इसमें मिलता सौरभ मादक
जल में लहराते अंचल से
पर न ठहरती क्षिप्रा-धारा
ले जाती है जो कुछ पाया
सब कुछ पाया, कुछ गंवाया
धुलकर तेरा रूप मनोहर
अपना सौरभ लेकर आया।
बहती जाती क्षिप्रा-धारा
लेकर तेरा सौरभ सारा
एक घाट से किसी दूसरे घाट
यहां है जो कुछ पाया
इसमें सारा तत्व समाया
बहती है क्षिप्रा की धारा
लेकर तेरा सौरभ सारा
किंतु न जल का प्रवाह रुकता
चलता जाता कूल-किनारा
यहां घाट आ गया पुराना
कटा हुआ टूटा-सा मन्दर
जिसके दोनों ओर उछलता
लहरों का वह साफ समंदर
यहां गांव की प्रिया नहाती
गरम दुपहरी में फुरसत से
उनके साधारण कपड़ों को
वे धोतीं, चलतीं मेहनत से
उनकी काली खुली पीठ पर
खूब चमकता सफेद सूरज
उनके मोटे कपड़ों को वह
जल्द सुखाता सफेद सूरज
मुझे यहां तक आ जाने पर
नवीन आकुल अनुभव होता
सौंदर्यानुकूल मन होकर भी
यहां अधिक मैं मानव होता।
मेरी अंत: क्षिप्रा-धारा
युगों-युगों से प्रवाह जारी
पर अब बदला कूल-किनारा
असंख्य लहरें, असंख्य धारा
प्रथम बही जो प्रासादों के
सुंदर श्यामल मैदानों में
आज वही निज मार्ग बदलकर
अपना जीवन कार्य बदलकर
अधिक सबल हो, अधिक प्रबल हो
अधिक मत्त होकर चंचल हो
खुल पड़ती है उन्हीं गरीबों
के प्यासे खेतों से होकर
उनके सूखे धूलि कणों से
अपना धारामय तन धोकर
मेरी अंत: क्षिप्रा-धारा
युगों-युगों से प्रवाह जारी
पर अब बदला कूल-किनारा
असंख्य लहरें, असंख्य धारा
असंख्य स्रोतों से मिलकर
आगे-आगे, महान बनकर
क्षिप्रा-धारा चली प्रबलतर
आत्मा-धारा विशाल सुंदर
गंभीर, लहरिल, तन्मय मन्थर
बहती है क्षिप्रा की धारा।
* प्रस्तुति : रमेशचन्द्र शर्मा
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