- आलोक 'अनु'
उज्जैन। क्षिप्रा नदी के किनारे बने घाटों पर देखने में तो यह छोटे-छोटे शिवलिंग हैं, लेकिन जब इसकी पड़ताल की गई तो लगभग डेढ़ सौ साल पहले सिंहस्थ के दौरान वैष्णवों और नागा संन्यासियों के बीच हुए कत्लेआम की कहानी सामने आई। दोनों दलों के बीच हुए संघर्ष में सैकड़ों संन्यासी मारे गए थे। इस घटना के बाद दशनामी शंभू अखाड़े ने उज्जैन के कुंभ का बहिष्कार कर दिया था।
अखाड़ों में शामिल बुजुर्ग साधु-संतों से इतिहास के पन्नों में दर्ज इस घटना को सुनने को मिला तो शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। बात सन् 1885 विक्रम संवत 1942 के सिंहस्थ की है जब वैष्णवों से नागा संन्यासियों की लड़ाई हो गई थी। जानकारी के अनुसार तब क्षिप्रा पार दत्त अखाड़े में नागा साधुओं की रसोई हो रही थी, अच्छा मौका देखकर वैष्णवों ने क्षिप्रा के इस पार लक्खी घाट पर स्थित नागों के मठ पर हमला बोल दिया और मठ लूट लिया।
बताते हैं कि वे श्री दत्तात्रेय का स्वर्ण मंडित मंदिर और उसका सारा सोना लूटकर ले गए थे। घाट पर इस और मौजूद दसनामी पंडे ने हल्ला बोलकर इसकी सूचना नागाओं को दी थी, जिसके कारण उसको भी कत्ल कर दिया गया था। इस घटना से गुस्साए नागाओं ने बैरागियों पर हमला बोल दिया था, बताते हैं इस घटना में हजारों की संख्या में बैरागी मारे गए थे, वहीं सैकड़ों नागा साधु भी मारे गए थे और इन्हीं नागा साधुओं की समाधियां क्षिप्रा के किनारे घाटों पर शिवलिंग के रूप में स्थापित की गई थीं।
इस लड़ाई में मारे गए दसनामी गौर पंडा ने ऐसे वक्त में भी धरम पथ नहीं छोड़ा था, इसलिए सकल दसनाम के हर एक इलाके वाले गौर को ही मानने के लिए दसनामियों को कहा गया और इसका उल्लेख श्री शंभू सकल पंच दसनाम द्वारा गौर (पंडा) गौरीशंकर निर्भयशंकर के नाम विक्रम संवत् 1954 में लिखे मोहर में दर्ज है।