चीन की दीवार को पार करना नामुमकिन

Webdunia
- स्वरुप बाजपेय ी

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चीन वर्षों खेल दुनिया से कटा रहा क्योंकि उसे शेष दुनिया ने काट रखा था। एशियाई खेलों में मान्यता चीनी ताइपेह (ताईवान) को प्राप्त थी। तेहरान एशियाई खेलों में (1974) जब ताईवान की सदस्यता रद्द की गई और साम्यवादी चीन ने पहली बार एशियाड में प्रवेश किया तो वह अत्यंत धमाकेदार रहा।

पूरी तैयारी से उतरे चीनी खिलाड़ियों ने 33 स्वर्ण, 45 रजत व 28 काँस्य पदकों के साथ पदक तालिका में तीसरा स्थान बनाया। यद्यपि जापान 75 स्वर्ण पदकों के साथ अभी भी पहले स्थान पर था पर चीन के प्रवेश ने उसे इस बात का एहसास जरूर करा दिया कि अब उसकी बादशाहत खतरे में है।

बैंकाक एशियाड (1978) चीन की एक और सफल छलाँग : इस बार चीन के 51 स्वर्ण पदक थे (15 रजत, 45 काँस्य) और तालिका में चीन दूसरे स्थान पर विराज चुका था। जापान अभी भी 70 स्वर्ण के साथ शीर्ष पर था पर चार वर्षों में ही खतरा बढ़ चुका था। तेहरान की तुलना में बैंकॉक में जहाँ चीन ने अपने स्वर्ण भंडार में 15 स्वर्ण का इजाफा किया था वहीं जापान के 5 स्वर्ण कम हो गए थे।

नई दिल्ली (1982) में जापान को अपदस्थ कर चीन शीर्ष पर : दिल्ली एशियाड में चीन के रूप में एशियाई खेलों का नया सरताज मिला। चीनी खिलाड़ियों ने 61 स्वर्ण, 51 रजत व 41 काँस्य पदक हासिल कर आखिर जापान को पीछे छोड़ ही दिया। अब चीन शीर्ष पर था। जापान को 57 स्वर्ण, 52 रजत व 44 काँस्य पदकों के साथ दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा।

अपने घर (सोल, 1986) में द. कोरिया ने चीन को कड़ी चुनौती पेश की : चमत्कारिक प्रदर्शन रहा सोल में दक्षिण कोरियाई खिलाड़ियों का पर इसके बावजूद एक स्वर्ण की अधिकता ने चीन को एशियाई खेलों का सरताज बनाए रखा। चीन को 94 स्वर्ण, 82 रजत व 46 काँस्य पदक मिले थे जबकि दक्षिण कोरिया को 93 स्वर्ण, 5 रजत व 76 काँस्य पदकों के साथ मिला दूसरा स्थान। पर सबसे ज्यादा दुर्गति हुई लगातार आठ बार (1951-1978) शीर्ष पर बने रहने वाले जापान की क्योंकि सोल 1990 में वह तीसरे स्थान पर उतर गया।

बीजिंग (1990) में चीन सफलता की नई ऊँचाई पर : अपना ही घर (बीजिंग) था और थे अपने ही दर्शक (चीनी) और उम्मीद थी कि मेजबान चीन ऐसी परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए अपने लिए पदकों का अम्बार लगा देगा। निसंदेह चीन इस उम्मीद और विश्वास पर खरा उतरने में सफल भी रहा।

1986 की तुलना में उसने अपने स्वर्ण पदक लगभग दुगुने बढ़ा लिए।1986 में चीन के 94 स्वर्ण पदक थे और 1990 में उसने 183 स्वर्ण जुटाए। 1986 की तुलना में चीन को प्राप्त कुल पदकों की संख्या में 119 पदकों का इजाफा हुआ- 222 सोल में, 341 बीजिंग में।

निश्चित ही बीजिंग में अन्य सभी देश चीन से बहुत पीछे थे। दूसरे स्थान पर रहने वाले दक्षिण कोरिया के मात्र 54 स्वर्ण थे तो तीसरा स्थान प्राप्त जापान 38 स्वर्ण पदकों पर सीमित रहा।

हिरोशिमा से दोहा तक चीनी वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं : 1994 के 12वें एशियाई खेल चूँकि जापान के शहर हिरोशिमा में हुए थे अतः ऐसा लगा था कि जापान अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर लेगा तथा पहला स्थान पदक तालिका में हासिल कर लेगा।

पर चीनी जादूगरों ने ऐसा होने नहीं दिया 137 स्वर्ण सहित 289 पदक कमाकर चीन हिरोशिमा में भी शीर्ष पर ही रहा। दक्षिण कोरिया दूसरे (63 स्वर्ण सहित 179 पदक) और जापान (59 स्वर्ण सहित 207 पदक) तीसरे स्थान पर रहा। जापानी प्रभुत्व का क्षरण हो चुका था।

बैंकॉक 1998 में फिर वही कथा दुहराई गई। चीन ने 129 स्वर्ण, 78 रजत व 67 काँस्य पदक अर्जित किए व अपना दबदबा बनाए रखा। 65 स्वर्ण, 46 रजत व 53 काँस्य पदकों के साथ दक्षिण कोरिया ने दूसरा स्थान बरकरार रखा तथा जापान 52 स्वर्ण, 61 रजत व 68 काँस्य पदकों के साथ तीसरे स्थान पर ही रहा।

बुसान (2002) के अपने शहर में मेजबानी करते हुए दक्षिण कोरिया ने सोचा होगा कि वह चीन से सिंहासन छीन लेगा पर वह ऐसा कुछ नहीं कर पाया। चीन ने बुसान में अपनी स्वर्ण संख्या और बढ़ाई, उसने 150 स्वर्ण, 84 रजत व 74 काँस्य पदक प्राप्त कर दक्षिण कोरिया के मंसूबे सफल नहीं होने दिए। 96 स्वर्ण, 80 रजत व 84 काँस्य पदक उसने जरूर कमाए (बैंकॉक की तुलना में 31 स्वर्ण अधिक)। पर चीन (150 स्वर्ण) तथा दक्षिण कोरिया (96 स्वर्ण) ने मिलकर जापान की स्थिति और नाजुक बना दी। बैंकॉक में जापान के 52 स्वर्ण थे जो बुसान में घटकर 44 रह गए।

पिछले एशियाड (दोहा 2006) में भी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ चीन पहले (166/ 87/ 63), दक्षिण कोरिया दूसरे (58/ 53/ 82) और जापान तीसरे स्थान (50/ 71/ 77) पर काबिज था। तो फिर इस बार (ग्वांगझू 2010) कोई भी खेल प्रेमी इससे विपरीत स्थिति की कल्पना कैसे कर सकता है जबकि एशियाई खेलों की मेजबानी चीन ही कर रहा है।

अपना जंगी बेड़ा चीन ने घोषित कर दिया है, 977 खिलाड़ी, 41 खेलों के 447 मुकाबलों में, ग्वांगझू के खेल सागर में उतरने के लिए। और निश्चित ही ग्वांगझू में वह अपने खिलाड़ियों के करिश्मों के बलबूते पर अपने स्वर्ण भंडार में और भी वृद्धि करना चाहेगा ही, कौन रोक सकता है उसे? जब खेलों का सर्वशक्तिमान रहा संयुक्त राज्य अमेरिका ही बीजिंग ओलिम्पिक 2008 में चीन से पिछड़कर नंबर दो पर आ गया था।