1965 की जंग में हाथ गंवाने वाले फौजी ने भारत को दिलाया था पैरालंपिक में पहला मेडल

मंगलवार, 24 अगस्त 2021 (17:55 IST)
एक फौजी का पूरा जीवन भारत के लिए समर्पित होता है। फिर चाहे उसके शरीर का एक अंग ही देश के लिए न्यौछावर क्यों ना हो गया हो। ऐसी ही कहानी है भारत के लिए पहला पैरालंपिक गोल्ड मेडल लाने वाले मुरलीकांत पेटकर की। 
 
हीडलबर्ग, पैरालंपिक 1972 में वह पैरालंपिक में मेडल जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी थे। यही नहीं उन्होंने सिर्फ मेडल नहीं गोल्ड मेडल जीता था। मुरलीकांत पेटकर ने जब पहला पैरालंपिक गोल्ड मेडल जीता तब तक भारत के किसी खिलाड़ी ने ओलंपिक में गोल्ड मेडल नहीं जीता था। 
 
सिर्फ पहलवान के.डी जाधव ही एकल प्रतियोगिता में पहला मेडल भारत के लिए 1952 में ला पाए थे। 
 
महाराष्ट्र के जलसिपाही के रूप में लोकप्रिय मुरलीकांत ने युद्ध में अपने हाथ गवां दिए थे।पेटकर सेना में मुक्केबाज थे लेकिन 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपना हाथ गंवाने के बाद वह तैराकी में चले गये थे। 
 
पेटकर ने पुरुषों की 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी स्पर्धा में 37.33 सेकंड का समय लेकर विश्व रिकार्ड बनाने के साथ स्वर्ण पदक जीता था। जब हाथ सलामत थे तो पेटकर चैंपियन मुक्केबाज रहे जब हाथ नहीं थे तो उन्होंने तैराकी में झंड़ा गाड़ दिया। 
 
तैराकी के साथ अन्य खेलों में भी लिया था भाग
 
सिर्फ तैराकी ही नहीं पेटकर ने भाला, सटीक भाला फेंक और स्लैलम जैसे खेलों में भी इस पैरालंपिक में भाग लिया था। वह इन खेलों के अंतिम चरण तक पहुंचे थे और फाइनलिस्ट भी बने थे। दिव्यांग होने के बाद टेबल टेनिस और एथलेटिक्स में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व किया। 
 
भारतीय आर्मी में थे क्राफ्ट्समैन
 
1 नवंबर, 1947 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के पेठ इस्लामपुर में वह पैदा हुए थे। वह भारतीय सेना के इलेक्ट्रॉनिक्स और मैकेनिकल इंजीनियर्स (ईएमई) के क्राफ्ट्समैन रैंक के जवान थे।
 
1965 की जंग में शरीर ने बहुत कुछ झेला
 
1965 की जंग में उन्होंने कश्मीर में पाकिस्तान के खिलाफ 9 गोलियां अपने शरीर में ली। कहा जाता है कि एक गोली अभी तक उनकी रीढ़ में है। इसके बाद उनका शरीर अक्षम हो गया था। पेटकर  का सपना ओलंपिक में भारत के लिए मेडल जीतने का था लेकिन अब वह सिर्फ पैरालंपियन के तौर पर ही देश का प्रतिनिधित्व कर सकते थे। 
 
राह नहीं थी आसान, क्रिकेटर विजय मर्चेंट ने की थी मदद
 
उस समय पेटकर के लिए राह बहुत मुश्किल थी। फंडिंग के लिए संघर्ष करना पड़ता था।वह ज्यादा से ज्यादा खेलों में भाग लेकर पैरालंपिक में पदक लाना चाहते थे। पेटकर को अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के सहारे रहना पड़ता था। भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान विजय मर्चेंट ने उनकी खासी मदद की। वह विकलांगो के लिए एक एनजीओ चलाते थे जिससे पेटकर के टिकटों का भुगतान हो पाया।
 
मिला पद्मश्री और यह पुरुस्कार
 
साल 1975 में महाराष्ट्र के शिव छत्रपति पुरस्कार से उनको सम्मानित किया गया। साल 2018 में उनको केंद्र सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। फिलहाल  72 साल के पेटकर पुणे में रहकर शांत जीवन व्यतीत कर रहे हैं। (वेबदुनिया डेस्क)

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