- मनोज 'अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींचकर शक्ति में निर्मित करते हैं।' महर्षि अरविंद का उक्त कथन शिक्षक की गरिमा के सर्वथा अनुकूल ही है। शिक्षक राष्ट्र निर्माता है और राष्ट्र के निर्माण की प्रत्येक प्रक्रिया में शिक्षकीय महत्व को नकारा नहीं जा सकता ।
महाकवि तुलसीदास
'गुरु बिनु ज्ञान कहाँ जग माही' अर्थात बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता, अतः ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु का होना परम आवश्यक माना गया है।
उर्वरायुक्त पारिवारिक धरातल पर शिक्षक संस्कारित ज्ञान की फसल बोता है और स्वच्छ एवं स्वस्थ क्षेत्रीय वातावरणीय जलवायु में श्रेष्ठता रूपी नागरिक की उन्नत उपज देता है। इस दृष्टि में शिक्षक संस्कारों का पोषक है। सही अर्थों में राष्ट्र की संस्कृति का कुशल शिल्पी है, जो संगठित, धैर्यवान, संस्कारवान, विवेकवान युवा शक्ति का निर्माण करता है।
शिक्षक संस्कृति से तादात्म्य स्थापित कर शिक्षार्थी में ज्ञान के गरिमामय पक्ष का बीजारोपण करता है। फलस्वरूप शिक्षार्थी में शिक्षा के प्रति गहन अभिरुचि जाग्रत होती है। शिक्षक वह सेतु है, जो शिक्षार्थी को शिक्षा के उज्ज्वल पक्षों से जोड़ता है। संस्कारित शिक्षार्थी शिक्षा के उपवन को अपने ज्ञान-पुष्प की सुरभि से महकाते हैं तथा परिवार, समाज एवं राष्ट्र को गौरवान्वित करते हैं।
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उत्तम शिक्षा, योग्य शिक्षक और अनुशासित शिक्षार्थी ही संस्कारित, सुसभ्य और स्वच्छ-स्वस्थ समाज का निर्माण करने का सामर्थ्य रखते हैं। संस्कृति का उद्गम ही श्रेष्ठ संस्कारोंके गर्भ से होता है, जिससे सामाजिक गतिविधियों को सांस्कृतिक शक्ति का संबल प्राप्त होता है।
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका का कोई सानी नहीं है। विद्यार्थियों में स्नेह, सद्भाव, भ्रातृत्व भाव, नैतिकता, उदारता, अनुशासन जैसे चारित्रिक सद्गुणों की समष्टि गुरु के माध्यम से ही संभव होती है। समाज-जीवन में स्नेह एवं सद्भाव तथा सामंजस्य की सद्प्रेरणा गुरु से ही प्राप्त होती है क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही चरित्र निर्माण करना है। शिक्षक शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का हरसंभव प्रयास करता है। शिक्षक को एक ऐसा दीपक माना गया है जो सेवापर्यंत दीप्तमान रहते हुए विद्यार्थियों के प्रगतिपथ को अपने ज्ञान का आलोक प्रदान करता रहता है।
जो लोग गुरु की महत्ता को अस्वीकार करते हैं या उसे कमतर आँकते हैं, उनकी बुद्धि पर प्रहार करते हुए तथा उन्हें समझाइश देते हुए कबीरदास ने कहा है-
कबीरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
गुरु रूप में परमब्रह्म परमेश्वर की ही वंदना की जाती है-
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवैनमः॥
गुरु को ब्रह्मा के रूप में सृजनकर्ता, विष्णु के रूप में पालनकर्ता और शिव के रूप में न्यायकर्ता माना गया है, जो कर्तव्यपथ की सद्प्रेरणा प्रदान कर शिष्य को परमश्रेष्ठ की ओर प्रवृत्त करता है। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का यह कथन कि 'गुरु के आसन पर मनुष्य नहीं, स्वयं परमात्मा आसीन है' गुरु के महत्व को ही प्रतिपादित करता है।