मैं यूनियन कार्बाइड, श्रीनगर में नौकरी करता था, माता पिता के साथ रहने लगा.... इससे पहले जम्मू में था...1988 के बाद से लग रहा था कि कुछ गड़बड़ चल रही है लेकिन इतना कुछ ध्यान नहीं दिया जा रहा था... हमने भी तवज्जो नहीं दी थी... 89 में लगने लगा कि आतंकी हरकते ज्यादा होने लगी है... आइसोलेशन शुरू हो गया, कर्फ्यू लगने लगा...शाम के 6 बजे सूनसान हो जाता है, रास्ते में चलने में डर लगने लगता था कि मेरे आगे या पीछे जो चल रहा है वह कोई आतंकवादी तो नहीं....शाम होते ही एक अनजाना सा भय छा जाता था.... धीरे धीरे यह फैलने लगा कि कश्मीरी पंडितों को यहां से जाना चाहिए....रूबिया सईद का मामला हुआ, बड़े आतंकी छोड़े गए एवज में और फिर उसके बाद हालात बेकाबू होने लगे.... हमारा घर सड़क पर ही था....चार मंजिला मकान था, हम देखते थे वहां से माहौल, कर्फ्यू ऐसा लगता था कि जो मुस्लिम पड़ोसी थे वहां के वे बाहर निकल आते थे और गाली-गलौज करने लगते थे, अपशब्द बोलते थे..यह आतंक की शुरुआत थी....