लतीफ़ा : ग़ालिब-आम पर नाम

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एक रोज़ बादशाह चन्द मुसाहिबोँ के साथ आम के बाग ' हयात बख्श ' में टहल रहे थे- साथ में गालिब भी थे-

आम के पेडों पर तरह-तरह रंगबिरंगे आम लदे हुऎ थे- यहाँ का आम बादशाह और बेगमात के सवाय किसी को मोयस्सर नहीं आ सकता था-

गालिब बार बार आमोँ की तरफ गौर से देखते थे- बादशाह ने पूछा 'गालिब इस क़दर गौर से क्या देखते हो'-

गालिब ने हाथ बाँध कर अर्ज़ किया 'पीरोमुरशद, देखता हूँ कि किसी आम पर मेरा या मेरे घर वालों का नाम भी लिखा है या नहीं-

बादशाह मुस्कुराएँ और उसी रोज़ एक टोकरा आम गालिब के घर भेज दिए-

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कैसी उजर
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गालिब के खास शागिर्द और दोस्त अक्सर शाम के वक़्त उनके पास जाते थे और मिर्ज़ा सुरूर के आलम में बहुत पुरलुत्फ बातें किया करते थे-

एक रोज़ मीर मेहदी मजरूह बैठे थे और मिर्ज़ा पलंग पर लेटॆ कराह रहे थे- मीर मेहदी पाँव दाबने लगे- ' मिर्ज़ा ने कहा

'भई तू सय्यद ज़ादा है मुझे क्यूँ गुनहगार करता है 'वोह नहीं माने और कहा' आपको ऎसा ही ख्याल है तो पैर दाबने की उजरत दे दीजिएगा' हाँ इसका मुज़ायक़ा नहीं- जब वो पैर दाब चुके तो उजरत तलब की- मिर्ज़ा ने कहा' भैया कैसी उजरत?

तुमने हमारे पाँव दाबे, हमने तुम्हारे पैसे दाबे-
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मेरा जूत
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एक दिन सय्यद सरदार मिर्ज़ा शाम को चले आए- जब थोड़ी देर रुक कर जाने लगे तो मिर्ज़ा खुद अपने हाथ में शमादान लेकर आए ताकि वह रोशनी में अपना जूता देख कर पहन लें- उन्होने कहा क़िबला ओ काबा, आपने क्यूँ तकलीफ फरमाई- मैं अपना जूता आप पहन लेता-

गालिब ने कहा मैं आपका जूता दिखाने को शमादान नहीं लाया, बल्कि इसलिए लाया हूँ कि कहीं आप मेरा जूता ना पहन जाएँ-

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