आप जानते तो होंगे साबिर इंदौरी को। माँ-बाप का रखा हुआ नाम मोहम्मद अयूब खान। शायरी शुरू की तो उस्ताद सागर उज्जैनी ने तखल्लुस दिया साबिर। दूसरे शहरों में मुशायरे पढ़कर साबिर इंदौरी कहलाए और फिर इंदौर में भी इसी नाम से पुकारे जाने लगे। खुमार बाराबंकवी यदि मुशायरे के स्टेज पर रूमानी ग़ज़ल के आखिरी शायर थे, तो समझिए शहर की नशिस्तों में साबिर इंदौरी को रूमानी ग़ज़ल का आखिरी पुजारी कहा जा सकता है। रानीपुरा में रहते थे। सत्तर बरस की उम्र पाई।
बीते हफ्ते दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ा और एमवाय अस्पताल उन्हें भी बचाने में नाकाम रहा। जवानी में तरन्नाुम बला का था। बीड़ी के धुएँ और उम्र ने गले को खराब कर दिया था, पर गला खराब होने से शेर खराब नहीं होते। शेरों में वही मिठास और वही रूमानियत कायम थी।
जवानी के दिनों में साबिर इंदौरी की धज निराली रहा करती थी। खूबसूरत, बांके, लंबे-लंबे बाल...सफेद पेंट पहनते जिसकी क्रीज कभी नहीं टूटती थी, नई काट का बेदाग साफ शर्ट, कान में इत्र का फाहा, हाथ में बड़ा सा रूमाल...। एक दफा गीत लिखने बंबई भी गए। उसके भी बहुत किस्से वो सुनाया करते थे। एक मशहूर फिल्म का नाम लेते हुए कहते थे कि इस फिल्म में अधिकतर गाने मेरे हैं, पर डायरेक्टर ने मेरा नाम देने की बजाय गीतकार के तौर पर अमुक का नाम दे दिया, सो मैं नाराज होकर चला आया। अक्खड़ तो वाकई बहुत थे। एक मिनट में शायर के पीछे छुपा पठान बाहर आ जाता था।
आखिरी दिनों में वे शायरों और नशिस्तों से बिलकुल कट गए थे। अकेले रहते और घर से चाय पीने भी अकेले निकलते। चाय के ऐसे शौकीन थे कि एक बार पिलाने वाले ने पिलाई तो बीस से ज्यादा चाय एक-एक करके पी गए। कोई नई ग़ज़ल चल रही हो, तो उसके शेर गुनगुनाते रहते थे। शेर कहना और गुनगुनाना आखिरी दिनों तक जारी रहा। सात सौ से अधिक ग़ज़लें उनकी मौजूद हैं। किताब कभी कोई नहीं छप पाई। अब छपेगी इसमें भी शक है।
बरसों वे नयापुरा के छत्री कारखाने में छत्रियाँ बनाते रहे। शेर की बारिश और छातों की तख्लीक...। ज्यादा तो कुछ नहीं पर साबिर इंदौरी के जाने से रूमानी शायरी को जरा घाटा हुआ है। आज जब शायरी सपाटपन और सियासी नारेबाजी का दूसरा नाम हो कर रह गई है साबिर इंदौरी के रूमानी शेर और शिद्दत से याद आते हैं।
हिज्र की सब का सहारा भी नहीं अब फलक पर कोई तारा भी नहीं
बस तेरी याद ही काफी है मुझे और कुछ दिल को गवारा भी नहीं
जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं
डूबने वाला अजब था कि मुझे डूबते वक्त पुकारा भी नहीं
कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी दूर तक कोई किनारा भी नहीं
दो घड़ी उसने मेरे पास आकर बारे गम सर से उतारा भी नहीं
कुछ तो है बात कि उसने साबिर आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं। (ये साबिर इंदौरी की उन आखिरी ग़ज़लों में से एक है, जिसे उन्होंने कहीं नहीं पढ़ा, किसी को नहीं सुनाया।)