ग़ज़ल : इब्ने इन्शा

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ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली, जाते में मुसकाती ज
मन नगरी की उजड़ी गलियाँ सूने धाम बसाती ज

दीवानों का रूप न धारें या धारें बतलाती ज
मारें हमें या ईंट न मारें लोगों से फ़रमाती ज

और बहुत से रिश्ते तेरे और बहुत से तेरे ना
आज तो एक हमारे रिश्ते मेहबूबा कहलाती ज

पूरे चाँद की रात वो सागर जिस सागर का ओर न छोर
या हम आज डुबो दें तुझको या तू हमें बचाती ज

हम लोगों की आँखें पलकें राहों में कुछ और नही
शरमाती घबराती गोरी इतराती इठलाती जा

दिलवालों की दूर पहुँच है ज़ाहिर की औक़ात न देख
एक नज़र बख़शिश में दे के लाख सवाब कमाती ज

और तो फ़ैज़ नहीं कुछ तुझसे ऐ बेहासिल ऐ बेमेह
इंशाजी से नज़में ग़ज़लें गीत कबत लिखवाती जा

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