वसंत इस एक सुकुमार शब्द के साथ ही ध्वनित होता है स्वर्णिम पीत आभा लिए जगमगाता उपवन, माँ सरस्वती के आह्वान का अवसर और आम्र मंजरियों की नशीली रतिगंध का मौसम। ऋतुओं का यशस्वी राजा वसंत मानव-मन पर बड़ी कोमल दस्तक देता है। मन की बगिया में केसर, कदंब और कचनार सज उठते हैं, बाहर पलाश, सरसों और अमलतास झूमने लगते हैं।
पछुआ के सर-सर स्पर्श से, खेतों में खर-खर उड़ते दानों और भूसे के स्वर से सहज ही वसंत मुस्कराने लगता है। एक महकता, मदमाता, मस्ती भरा मौसम वसंत कवियों की लेखनी में चपलता से आ बैठता है। यूँ तो हर मौसम एक कविता होता है। और वसंत प्रेम कविता।
'जब पलाश वन में दहके कोमल शीतल अंगारे
निशा टाँकती, सेमल के अंगों पर लाल सितारे
शाम सिन्दूरी याद दिलाती शाकुन्तल - दुष्यंत की
मन के द्वारे पर हौले से दस्तक हुई वसंत की।
- भगवत दुबे
वसंत मन में एक सुरुचिपूर्ण सौंदर्यबोध जगाता है। हवा के बदलते ही मन बदलने लगता है। सहसा राग-बोध उमड़ आता है। देवदारू वृक्ष की श्यामल छाया सघन हो उठती है। अंगूरों की लता रसमय हो जाती है। अशोक अग्निवर्णी पुष्पों से लद जाता है। पत्तियों के रेशे-रेशे में हरीतिमा गाढ़ी होने लगती है। चारों तरफ नर्म भूरे अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं और बैंगनी आभा लिए कोमल कोंपलें मुस्करा उठती हैं। एक अव्यक्त सुवासित गंध मन में एक पूरा सुनहरा मौसम खड़ा कर देती है।
यह कोमल केसरिया मौसम अतीत में जिस सज-धज के साथ आता था। वर्तमान में अनचाहे मेहमान-सा आता है, ठिठकता है और खामोशी से चला जाता है। हम न आहट सुन पाते हैं, न जाने की उदास पदचाप। तकनीकी उड़ान से हम सतह के ऊपर आ गए हैं, मौसम का सौंदर्य अनुभूत करने की अब हममें क्षमता नहीं रही। जब तक भाव-रंगों से मन नहीं भीगा हो, वसंत मनचाहा मेहमान कैसे लग सकता है? राजा-रजवाड़ों के इतिहास में मदनोत्सव, वसंतोत्सव के भव्य आयोजनों का विस्तृत वर्णन मिलता है। यानी वसंत सिर्फ मौसम नहीं बल्कि एक पर्व की तरह मनाया जाता था।
आज जब बाहर का वसंत समझने की क्षमता नहीं है तो मन के वसंत को कैसे महसूस किया जा सकता है? कैसे रची जा सकती है ऐसी सुस्निग्ध प्रेम कविता -
'इंद्रधनुषों से घिरी हुई हूँ मैं
जब से तुमने मुझे
नाम से पुकारा है,
जब से तुम्हारे हाथों को छुआ
मैं वसंत हुई
फिर पतंगों सा उड़ा मन
देखकर तुमको।'
एक अनूठी आकर्षक ऋतु है वसंत की। न सिर्फ बुद्धि की अधिष्ठात्री, विद्या की देवी सरस्वती का आशीर्वाद लेने की, अपितु स्वयं के मन के मौसम को परख लेने की, रिश्तों को नवसंस्कार-नवप्राण देने की। गीत की, संगीत की, हलकी-हलकी शीत की, नर्म-नर्म प्रीत की। यह ऋतु कहती है देवी-देवताओं की तरह सज-धज कर, श्रृंगारित होकर रहो। प्रबल आकर्षण में भी पवित्रता का प्रकाश सँजोकर रखो और उत्साह, आनंद एवं उत्फुल्लता का बाहर-भीतर संचार करो।
यह एक संयोग ही है कि पश्चिम का दत्तक त्योहार (?) 'वेलेंटाइन डे' इसी 'वसंत' के सुखद आगमन की 'पंचमी' के आसपास पड़ता है। अब जरा अंतर देखिए कि सिर्फ एक दिन प्रेम को अभिव्यक्त करने का या कहें प्रेम करने का। और दूसरा एक पूरा मौसम एक-दूसरे को जानने समझने का। पंचमी से एक ऋतु प्रारंभ होती है, सहजता से शांति से, सौम्यता से प्रेम करने की और उधर एक ही दिन में दौड़ता, भागता, हाँफता, थकता और गिर पड़ता (?) प्यार!!! और कैसा प्यार??
जिस संत की स्मृति में इस दिन को मनाया जाता है, उसके बलिदान को समझा ही नहीं गया। कौन थे संत वेलेंटाइन?? नहीं फुर्सत है इन प्रेम के 'ऑटोमैटिक खिलौनों' को उन्हें जानने की।
रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था, जिसके अनुसार विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है। उसने आज्ञा जारी की कि उसका कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया और उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों ने विवाह किए। आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन 269 को वेलेंटाइन को फाँसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस मनाया जाता है।
पर जरा सोचें कि जिस विवाह संस्था की रक्षा के लिए वेलेंटाइन ने प्राण गँवाए, आज की खिलंदड़ पीढ़ी क्या उसमें विश्वास रखती है? गाँव-कस्बों से लेकर महानगरों तक 16 वर्ष की उम्र का युवा 26 'प्रेम-वसंत' देख चुका होता है। इस 'डिस्कोथेक' पर 'धूम-धड़ाका' करती पीढ़ी से अगर हम उम्मीद करें कि ये वसंत की 'धड़कन' सुन सकेगी तो वसंत के भोलेपन का इससे बड़ा अपमान और क्या होगा? शैम्पेन की बोतलों से नहाती पीढ़ी भला सेमल-पलाश के चटक लाल नशे को कैसे पी सकेगी?
दुकानों पर सजे नकली लाल दिलों से खेलने वाली पीढ़ी को डाल-डाल पर निर्मल हरियाली झालर दिखाने का साहस किसमें है? हमारा वसंत मदोन्मत्त नहीं है, मदनोत्सुक है। पर प्रेम के नाम पर उन्मत्त युवा प्रेम के असली मायने जानने में जरा उत्सुक नहीं हैं।
एक सुहाना सजीला मौसम हम पर से होकर गुजर जाता है और हमें नहीं इतनी फुर्सत कि ठिठककर उसकी कच्ची-करारी सुगंध को भीतर उतार सकें। क्यों प्रकृति की रूमानी छटा देखकर हमारे मन की कोमल मिट्टी अब सौंधी होकर नहीं महकती? क्यों अनुभूतियों की बयार नटखट पछुआ की तरह हृदय में अब नहीं बहती?
संवेदनाओं के सौम्य सिंधु में कैसी व्यग्रता की उत्ताल तरंगें उठने लगीं हैं ? मन के इसी मुरझाए - कलुषाए मौसम को खिला-खिला रूप देने के लिए खिलखिलाता वसंत आया है। झरते केसरिया टेसू को अंजुरियों में भर क्यों न स्वागत करें वसंत का? खुलकर सरसरा उठेगी उमंगों की पछुआ (पश्चिम हवा) और फिर मुस्करा उठेगा वसंत!!