नवरात्रि यानी स्त्री शक्ति पर्व

स्मृति आदित्य

शुक्रवार, 26 सितम्बर 2014 (14:55 IST)
एक मधुर सुगंधित आहट। आहट त्योहार की। आहट रास, उल्लास और श्रृंगार की। आहट आस्था, अध्यात्म और उच्च आदर्शों के प्रतिस्थापन की। एक मौसम विदा होता है और सुंदर सुकोमल फूलों की वादियों के बीच खुल जाती है श्रृंखला त्योहारों की। श्रृंखला जो बिखेरती है चारों तरफ खुशियों के खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग। 
 

 

हर रंग में एक आस है, विश्वास और अहसास है। हर पर्व में संस्कृति है, सुरूचि और सौंदर्य है। ये पर्व न सिर्फ कलात्मक अभिव्यक्ति के परिचायक हैं, अपितु इनमें गुंथी हैं, सांस्कृतिक परंपराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य स्मृतियां। इन सबके केंद्र में सुव्यक्त होती है - शक्ति। उस दिव्य शक्ति के बिना किसी त्योहार, किसी पर्व, किसी रंग और किसी उमंग की कल्पना संभव नहीं है।

हमारे समस्त रीति-रिवाज, तीज-त्योहार या अनुष्ठान-विधान गृहस्वामिनी के हाथों ही संपन्न होते हैं।

इस धरा की महकती मिट्‍टी की महिमा है कि स्त्री इतने सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठापित है। सदियों पूर्व इसी सौंधी वसुंधरा पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था -

'कीर्ति: श्री वार्क्च नारीणां
स्मृति मेर्धा धृति: क्षमा।'

अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ। दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है। संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहाँ नारी अपने श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त हुई है।

आर्य संस्कृति में भी नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है। आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व माने गए हैं - परब्रह्म, माया और जीव। माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी की इच्छाशक्ति होते हैं।

ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है। फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है। जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है। प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है।

देवी भागवत के अनुसार - 'समस्त विधाएँ, कलाएँ, ग्राम्य देवियाँ और सभी नारियाँ इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं।
एक सू‍क्ति में देवी कहती हैं -

'अहं राष्ट्री संगमती बसना
अहं रूद्राय धनुरातीमि'

अर्थात् -

'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं । मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ।' विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं।


 

हमारी यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है। मां कल्याणी है, वहीं पत्नी गृहलक्ष्मी है। बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। हर रूप में वह आराध्या है।

पौराणिक आख्यान कहते हैं कि अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं। कभी मांगने नहीं पड़े हैं। वह सदैव देने वाली है। अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है।

भारतीय स्त्री का हर रूप अनूठा है, अनुपम है, अवर्णनीय है। एक पहचान, एक परिभाषा, एक श्लोक, एक मंत्र या एक सूत्र में भला कैसे अभिव्यक्त हो सकती है? साहस, संयम और सौंदर्य जैसे दिव्य-दिव्य गुणों को समयानुरूप इतनी दक्षता से प्रकट करती है कि सारा परिवेश चौंक उठता है।

यही कारण है कि त्योहारों का आगमन उसके रोम-रोम से प्रस्फुटित होता है। उसकी मन-धरा से सुगंधित लहरियां उठने लगती हैं। उसके श्रृंगार में, रास-उल्लास में, आचार-विचार और व्यवहार में, रूचियों, प्रकृतियों और प्रवृत्तियों से त्योहार के सजीले रंग सहज ही झलकने लगते हैं।

गति, लय, ताल तरंग सब पायल के नन्हे घुंघरुओं से खनक उठते हैं। बाह्य श्रृंगार से आंतरिक कलात्मकता मुखरित होने लगती है। पर्वों की रौनक से उसके चेहरे का नमक चमक उठता है। शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण संगम है भारतीय नारी।

नौ पवित्र दिनों की नौ शक्तियां नवरात्रि में थिरक उठती हैं। ये शक्तियां अलौकिक हैं। परंतु दृष्टि हो तो इसी संसार की लौकिक सत्ता हैं।

अदृश्य नहीं है, वे यही हैं। त्योहारों पर व्यंजन परोसती अन्नपूर्णा के रूप में, श्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मी बनकर, बौद्धिक प्रतिभागिता दर्ज कराती सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में।


शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी थिरकने रचती, रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही है। एक नन्ही सी कुंकुम बिंदिया उसकी आभा में तेजोमय अभिवृद्धि कर देती है। कंगन की कलाकारी जिसकी कोमल कलाई में सजकर कृतार्थ हो जाती है। जो स्वर्ण शोरूम में सहेजा होता है वह उस पर सजकर ही धन्य होता है।

मेहंदी की आकृतियां ही सुंदर होती तो पन्नों पर पर क्यों नहीं खिल उठती? यह उसकी गुलाबी नर्म हथेलियां होती हैं जो मेहंदी को भव्यता प्रदान करती है। उसके श्रृंगार में मन के समूचे सुंदर भाव सुव्यक्त हो उठते हैं। गरबों की थरकन से लेकर पूजा की पुलक तक में संपूर्ण संस्कृति उसके सौम्य स्वरूप में झरती है।

मधुर मुस्कान और मोहक व्यक्तित्व से संपन्न सृष्टि की इतनी सुंदर रचना हमारे बीच है, पर हमारी दृष्टि क्यों बाधित हो जाती है? क्यों नहीं पहचान पाते हम?

बांहों भर आकाश नहीं दे सकते हम। नहीं जानते कि आकाश जितनी लंबी बांहें हैं उसकी। अनंत, अपार, असीम। उसने विस्तारित नहीं की है। शून्य से शिखर तक पहुंचने की अशेष शक्ति निहित है उसमें। इस नवरात्रि पर प्रार्थना करें, हर देवी में स्फुरित हो ऐसे सुंदर भाव कि समा सके वह समूचा आसमान और नाप सके सारी धरती अपने सुदृढ़ कदमों से।

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