अबॉर्शन : ऐसा कानूनी अधिकार जिस का उपयोग करने पर भी औरत अपराधी ही कहलाती है। जन्म दे तो देवी,लेकिन गर्भपात से वो स्वार्थी/हत्यारी बन जाती है।
काफी आश्चर्यजनक बात है की अजन्में भ्रूण की किलकारी सुनने की ख्वाहिश तो सब को है, लेकिन दर्द में कहराती औरत की सिसकियां किसी को सुनाई नहीं देती। अजन्में भ्रूण के अधिकारों की चिंता सब को है लेकिन औरत पर थोपी गई नाइंसाफी किसी को दिखती ही नहीं। दोगलेपन की हद तो तब हो जाती है जब लड़के की चाह में औरत का ज़ोर ज़बरदस्ती सेक्स सेलेक्टिव अबॉर्शनकरवा दिया जाता है,लेकिन अगर औरत अपनी इच्छा से अबॉर्शन करवाए तो उससे बड़ा अपराधी कोई नहीं !
मदरहुड ज़रूर एक सुन्दर अनुभव है लेकिन इसे ना ही ज़िम्मेदारी की तरह थोपा जा सकता है और ना ही ये हर औरत के जीवन का लक्ष्य है। शरीर उसका है और अबॉर्शन करवाने का अधिकार भी। लेकिन सोसाइटी में "औरत को त्याग की मूर्ति" कहते-कहते, हम कब उनके गर्भपात के अधिकार को ही रौंदते चले गए,हमें पता भी नहीं चला। MTP एक्ट,1972 और MTP अमेंडमेंट एक्ट ,2021 भले ही अब विवाहित और अविवाहित महिलाएं को गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक गर्भपात करवाने की अनुमति देता है लेकिन हाल ही में रिलीज़ हुए UNFPA की विश्व जनसंख्या रिपोर्ट, 2022 के आंकड़ों के अनुसार असुरक्षित गर्भपात हर दिन कम से कम 8 महिलाएं की जान ले लेता है और भारत में मातृ मृत्यु दर का तीसरा प्रमुख कारण है।
सवाल अब यह खड़ा होता है की कानूनी स्वतंत्रता के बावजूद ऐसे कौन से कारण हैं जो आज भी भारतीय महिलाओं को असुरक्षित गर्भपात करवाने के लिए मजबूर कर देते हैं? इस विषय पर हमारी बात कई लोगों से हुई और सामने आए ये मुख्य कारण :
जागरूकता की कमी
इंदौर के मुख्य अबॉर्शन सर्विस सेंटर ,P.C.सेठी गवर्नमेंट हॉस्पिटल की डॉ. ज्योति सिमलोट हमें बताती है की हेजिटेशन,जागरूकता की कमी और उचित सेवाओं तक पहुंचने के संसाधन न होना औरतों को असुरक्षित गर्भपात करवाने के लिए विवश कर देता है।
सोशल स्टिग्मा
अंतराष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत ngo “IPAS” ने वर्ष 2018 में असम और मध्य प्रदेश के राज्यों में एक सर्वेक्षण किया था जिसमें पाया गया कि कुल 500 युवा लड़कियों में से 62% लड़कियां एबॉर्शन को पाप के रूप में देखती हैं।
वहीं राजेंद्र नगर के शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र "आरोग्यम" की मुख्य संचालक संध्या बिल्लौरे बताती है “कुछ महिलाएं ऐसी भी होती है जो किसी को भी अबॉर्शन के बारे में पता लगने नहीं देना चाहती हैं। वो उसे सोशल स्टिग्मा की तरह देखती हैं और चाहती हैं की प्रक्रिया जल्द से जल्द ख़त्म हो जाए, इसलिए वो महिलाएं असुरक्षित गर्भपात करवाने के लिए तैयार हो जाती हैं।”
अबॉर्शन औरत के रिप्रोडक्टिव और सेक्सुअल हेल्थ का अहम् हिस्सा है लेकिन दिमाग में बैठी बीमार अवधारणाएं इसे स्टिग्मा बना देती हैं।
इस सोशल स्टिग्मा के पीछे की साइकोलॉजी डॉ. सुचित्रा डलवे, एशिया सेफ अबॉर्शन पार्टनरशिप (ASAP) की समन्वयक न्यूज़ पोर्टल "बहन बॉक्स" को दिए इंटरव्यू में बताती हैं।वह कहती हैं की "गर्भपात को भारत में एक बहुत बड़े सोशल स्टिग्मा के रूप में देखा जाता हैं क्यूंकि यह सामाजिक, सांस्कृतिक धारणाओं और मातृत्व के महिमामंडन से निकलता है। नतीजतन, इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा जाता है जो 'अच्छी महिलाएं' कभी नहीं करेंगी।”
MTP पिल्स एब्यूज
आपको बता दें की, अबॉर्शन मेडिकल मेथड् यानी MTP पिल्स के ज़रिये भी होता है जिसे हमेशा डॉक्टर की प्रिस्क्रिप्शन से ही दिया जाता है। हाल ही में प्रकाशित हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5/ 2019-2020, के डेटा के अनुसार भारत की 28.7 % ग्रामीण महिलाएं और 22.1 % शहरी महिलाएं सेल्फ अबॉर्शन करती हैं।
हर 4 में से 1 महिला बिना डॉक्टर की एडवाइस के घर बैठे सेल्फ़-अबॉर्शन करती हैं, जिसमें MTP पिल्स का सेवन करना भी शामिल है।
P.C.सेठी गवर्नमेंट हॉस्पिटल की डॉ. ज्योति सिमलोट बताती है की “पहले क्वैक्स सर्जिकल मेथड्स का एब्यूज करते थे लेकिन आज के समय में MTP पिल्स का एब्यूज हो रहा है। 7-8 हफ्ते बाद MTP पिल्स लेने से इन्कम्प्लीट अबॉर्शन ,अत्यधिक ब्लीडिंग,एनीमिया और मेन्टल शॉक लगने के आसार बढ़ जाते हैं लेकिन फिर भी जागरूकता की कमी के कारण लोग इसे खेल समझकर खा लेते हैं और बाद में इसके कॉम्प्लीकेशन्स भुगतते हैं। मुझे रोज़ 2-3 ऐसी महिलाएं OPD में दिखती ही है।”
MTP पिल्स की तरफ़दारी के पीछे का कारण जानने के लिए हमने कुछ अविवाहित महिलाओं और कॉलेज की छात्राओं से बातचीत की।
उनसे पूछने पर पता चला की वो MTP पिल्स को अपना पहला अबॉर्शन ऑप्शन मानती हैं। अधूरी जानकारी ,इंस्टेंट इफ़ेक्ट, माता पिता का डर और खासकर बदनामी के डर के कारण वो डॉक्टर से सलाह लेने के बजाए, MTP पिल्स खाना ज़्यादा उपयुक्त मानती हैं।
फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ,इंदौर ब्रांच के मैनेजर प्रतुल जैन बताते है की सिर्फ औरतों में ही नहीं बल्कि केमिस्ट्स में भी MTP पिल्स की जागरूकता की कमी असुरक्षित गर्भपात को बढ़ावा देती है। अवेलेबिलिटी ऑफ़ MA ड्रग्स,2018 की रिपोर्ट में पाया गया की भारत के 4 स्टेट्स (जिसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है) के 28.7 % केमिस्ट्स को इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि स्त्री रोग विशेषज्ञ के लिखित पर्चे के बिना MA ड्रग्स नहीं बेचे जा सकते है।
MTP पिल्स एब्यूज के मुद्दे पर, इंदौर ऑब्सटेरटिक्स एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज की वाईस प्रेसिडेंट, डॉ.मनिला जैन कौशल बताती है की उनके पास कई गंभीर हालत में महिलाएं आती हैं जो बिना डॉक्टर की सलाह लिए MTP पिल्स खा लेती हैं। उन औरतों को उपचार के बाद काउंसलिंग भी दी जाती है। पूरे निश्चित तौर से फार्मेसी स्टोर के बारे में पता लगने के बाद उसकी कंप्लेंट गवर्नमेंट अधिकारियों को कर दी जाती है,लेकिन कभी कठोर कारवाई ही नहीं होती।
मॉरल पोलिसिंग और गिल्ट ट्रिपिंग
अबॉर्शन पेशेंट्स अक्सर मॉरल पोलिसिंग का शिकार बन जाती है और इसका नेशनल लेवल पर एक चिंताजनक उदाहरण देखा जा सकता है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने 23 सप्ताह की अविवाहित गर्भवती को गर्भपात करवाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। महिला ने बताया भी कि बच्चे को जन्म देने से उसे मानसिक आघात पहुंचेगा लेकिन हाई कोर्ट से केवल उसे ये प्रतिक्रिया मिली
"तुम बच्चे को क्यों मार रही हो? तुम जन्म दो और लौट आओ वैसे भी यहां गोद लेने के लिए बड़ी कतार है। हम बच्चे को नहीं मार सकते। उसने बच्चे को 24 हफ़्तों तक अपने साथ रखा। 4 हफ्ते और क्यों नहीं?"
सुचित्रा डलवे, बहनबॉक्स को दिए इंटरव्यू में बताती हैं की “समाज में अबॉर्शन को सोशल स्टिग्मा की तरह देखा जाता है,जिसके कारण अधिकतर लोगों की थिंकिंग भी इन्फ्लुएंस हो जाती हैं। इसमें डॉक्टर्स भी शामिल है। सिर्फ इसलिए कि देश में गर्भपात कानून है इसका मतलब यह नहीं है कि सभी स्त्रीरोग विशेषज्ञ गर्भपात के पक्ष में हैं।”
इसी मॉरल पोलिसिंग और गिल्ट ट्रिपिंग के डर के कारण कई अविवाहित और विवाहित अबॉर्शन पेशेंट्स गयनेकोलॉजिस्ट के पास जाने से परहेज़ करती हैं, जिसके कारण असुरक्षित अबॉर्शन को बढ़ावा मिल जाता हैं ।
इंदौर: अगर इंदौर की बात करे तो यहां की महिलाओं का अबॉर्शन के प्रति अलग ही नज़रिया हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू स्मृति शासकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय ,राऊ की गायनेकोलॉजिस्ट डॉ. वैशाली बर्डे बताती है की उनके अस्पताल में उपचार करवाने राऊ और आसपास के गांवों से महिलाएं आती हैं जो इस विषय पर डॉक्टर्स से,आशा कार्यकर्ताओं से और आपस में खुलकर बातें करती हैं। वही डॉ. ज्योति सिमलोट बताती है की उनके 26 साल के एक्सपीरियंस में उन्होंने शहरी महिलाओं के मुकाबले ग्रामीण महिलाओं में एबॉर्शन के प्रति ज़्यादा जागरुकता पाई।
महिलाओं में जागरूकता पैदा करने के पीछे, इंदौर के सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों का बहुत बड़ा हाथ है। जागरूकता पैदा करने के लिए इंदौर के सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों ने कई कदम उठाए हैं जैसे इंदौर के गांवों में आशा कार्यकर्ताओं का मजबूत नेटवर्क बनाना, इंदौर के प्राइमरी हेल्थ केयर सेंटर्स में ग्रामीण महिलों को फैमिली प्लानिंग के बारे में जागरूक करना, IPAS और मध्यप्रदेश सरकार के “कम्प्रेहैन्सिव अबॉर्शन केयर सर्विसेज” में मेडिकल ऑफिसर्स और डॉक्टर्स को उचित रूप से प्रशिक्षित करना और MTP पिल्स को सरकारी हॉस्पिटल्स में उपलब्ध करवाना।
जागरूकता के बावजूद भी इंदौर में अभी भी ऐसे कई स्थान है जहां MTP पिल्स एब्यूज,मोरल पोलिसिंग और गिल्ट ट्रिपिंग जैसी चीजें हो रही है। इन मुद्दों को नज़रअंदाज़ करना, सार्थक प्रयासों पर पानी फेर देगा!इसलिए समय आ गया है जब हम ये सारे सवाल पूछना शुरू कर दें :
हम जिस अजन्मे बच्चे के लिए, औरत के स्वस्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं,
सोचो अगर औरत ही न रहे तो बच्चे को जन्म देगा कौन?
दर्द ,पीड़ा और कष्ट महिला की, उसके शरीर पर अधिकार ज़माने वाले आखिर हम कौन?
औरत पर किसी भी तरह की ज़्यादती अपराध है तो महिला पर गर्भावस्था जारी रखने की ज़्यादती नज़रअंदाज़ क्यों?
विवाहित महिलाओं का एबॉर्शन स्वीकार्य है, लेकिन अविवाहित महिलाओं का एबॉर्शन लांछन क्यों?
अगर देश की महिलाओं के रिप्रोडक्टिव हेल्थ के मुद्दे पर शोर है, तो एबॉर्शन के मुद्दे पर फुसफुसाहट क्यों?
ये सारे सवाल पूछकर समाज की मानसिक धारणाओं को चैलेंज करना शुरू कर दें। अबॉर्शन "रिप्रोडक्टिव और सेक्सुअल हेल्थ" के विषय का एक अभिन्न हिस्सा है जिसे सिर्फ़ किताबों में नहीं बल्कि असल ज़िन्दगी में भी एक बेसिक हेल्थ केयर राइट की तरह देखा जाना चाहिए। गर्भपात अफ़वाह फ़ैलाने का मुद्दा नहीं बल्कि महिला के आरोग्य का मुद्दा है। गर्भपात अपराध नहीं बल्कि संविधान द्वारा स्वीकृत महिला के हक़ का अधिकार है।
इसलिए ज़रूरी है की स्कूल में सुरक्षित अबॉर्शन के विषय पर टीनएजर्स को शिक्षित किया जाए। मोरल पोलिसिंग और गिल्ट ट्रिपिंग की प्रथाओं पर सरकार द्वारा कठोर कदम उठाए जाए। अबॉर्शन पेशेंट्स को भी दूसरे पेशेंट्स की तरह समाज में सम्मान देखा जाए। कपल्स को MTP पिल्स के एब्यूज से होने वाली तकलीफों के बारे में जागरूक करवाया जाए। नज़र रखें की मातृत्व की महिमा में, किसी महिला की इंडिविजुएलिटी न खो जाए। अंत में जितना हो सके इस मुद्दे को सहज बातचीत से "नॉर्मलाइज़" किया जाए क्योंकि मानसिक धारणा में बदलाव ही समाज को बदल पाएगा और आने वाले कल की महिलाओं को असुरक्षित अबॉर्शन से बचा पाएगा।