स्त्री ही स्त्री की दुश्मन

SubratoND
छोटे से कस्बे में रहने वाली मृणाल एक सीधी-सादी सुलझे विचारों की लड़की है। अभी कुछ ही दिन हुए उसने एक ऑफिस ज्वाइन किया है। मेहनती और बुद्धिमान होने की वजह से उसने सभी काम जल्दी सीख लिया और ईमानदारी से करने लगी।

एक दिन उसके बॉस आए और उसे अच्छे काम के लिए बधाई दी। उसे तब बहुत आश्चर्य हुआ जब पुरुष सहकर्मियों ने तो उसे खुले दिल से बधाई दी, लेकिन उसके विभाग में काम करने वाली महिला मित्रों और सहयोगियों का चेहरा उतर गया। उन लोगों ने बधाई देना तो दूर उसे बॉस की चमची कहना शुरू कर दिया। कुछ महिलाओं ने तो उससे तमाम सीमाओं को लाँघ कर उससे बॉस को पटाने का नुस्खा भी पूछ लिया। अकसर महिला संगठन चिल्लाते रहते हैं कि यह पुरुष सामंतवादी समाज है, लेकिन गाहे-बगाहे आपको इस तरह के उदाहरण देखने को मिल जाएँगे, जो इस बात को झूठा साबित कर देंगे।

आपने कभी गौर किया है कि हमारे समाज का आईना कहे जाने वाले हिन्दी सिनेमा जगत ने भी कुटिल सास की तस्वीर ही पेश की है। उन्होंने कभी भी ससुर को दुष्ट व्यक्ति के रूप में पेश नहीं किया है। कभी भी किसी ने 'सौ दिन ससुर के' या 'ससुर भी कभी दामाद था' जैसे शीर्षक पर फिल्म या सीरियल बना कर वाहवाही नहीं लूटी है।

पता नहीं कितने सालों से लोग 'स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है' जैसे वाक्य लिखते आ रहे हैं। अब तो यह इतना 'आउट डेटेड सेनटेंस' हो गया है कि इसे लिखने की इच्छी भी नहीं होती। अगर परिस्थितियों पर थोड़ा सा ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि पुरुष, पुरुष का 'बॉसिस्जम' आसानी से स्वीकार लेते हैं, लेकिन हिलाएँ ऐसा नहीं कर पाती हैं। यदि किसी महिला की बॉस महिला है तब तो तय जानिए की मनमुटाव होना ही है।

ऐसा नहीं हैं कि इन लोगों के विचार नहीं मिल पाते, बल्कि कभी-कभी तो 'तेरी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे'? जैसी छोटी-मोटी बातों पर भी मतभेद हो जाते है। यदि दो महिलाओं के बीच मतभेद हैं तो उसे 'मनभेद' होने में जरा भी देर नहीं लगती। लेकिन यही स्थिति दो पुरुषों में हो तो वे बहस करने के बावजूद अच्छे न सही,लेकिन दोस्त बने रहते हैं।

जैसा की कहा जाता है स्त्रियों में क्षमा, दया जैसे प्रकृति प्रदत्त गुण होते हैं, लेकिन आप चाहे तो आजमा कर देख सकते हैं उनकी यह दरियादिली की बारिश में भीगने का अवसर पुरुषों को ही ज्यादा मिलता है। जब वे ब्याह कर जाती हैं तो ससुर और नन्दोई उनके लिए किसी देवदूत से कम नहीं होते, लेकिन बेचारी सास या ननद साक्षात ललिता पंवार का ही रूप होती है। वे पति को किसी भी गलती पर आसानी से माफ कर देती हैं, लेकिन सास को, इस पर तो शायद कोई लड़की सोचना ही पसंद न करे।

आप कहीं भी नजर उठाकर देखिए महिला को महिला के विरुद्ध ही पाएँगे। फिर वह चाहे उच्च शिक्षित हो, या निरक्षर। सदियों से यही चला आ रहा है और सदियों तक चलता रहेगा। बस इतना ही फर्क है कि प्रताड़ित करने वाली सास का रूप बदल गया है, लेकिन मानसिक वेदना में रहने वाली बहुएँ आज भी मौजूद हैं।

यदि ऐसा न होता तो क्या कभी ये पंक्तियाँ लिखी जातीं?

त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति, कुतो मनुष्य

जब स्त्री का स्वभाव और पुरुषों के भाग्य के बारे में देवता नहीं जान पाए, तब मनुष्य क्या चीज है।

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