नए दशक की नई नारी

नए दशक की नई नारी के पास कामयाबी के उच्चतम शिखर को छूने की अपार क्षमता है। उसके पास अनगिनत अवसर भी हैं। जिंदगी जीने का जज्बा उसमें पैदा हो चुका है। दृढ़ इच्छाशक्ति एवं शिक्षा ने नारी मन को उच्च आकांक्षाएँ, सपनों के सप्तरंग एवं अंतर्मन की परतों को खोलने की नई राह दी है। निःसंदेह आज की नारी की भूमिका में तीव्रता से परिवर्तन हुआ है।

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पहले वह घर की रानी थी, फिर उत्तम कार्यों में संलग्न होकर समाज कल्याण में प्रवृत्त हुई और आज वह राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों की सामाजिक भूमिका में उतरी है। तथापि हम इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं कि नारी की पारंपरिक भूमिका का अतिक्रमण होना अभी शेष है और कि उसके विरुद्ध पूर्वाग्रह आज भी सदा की भाँति प्रबल हैं।

सामाजिक नेत्री कुसुम चंद्रा कहती हैं कि 'इस सदी की नारी समाज में 'टेक ओवर' करने के रूप में उभरी है। उसने कड़ी मेहनत से बहुत तरक्की की है, पर उसका समाज में सम्मान नहीं बढ़ा। उसके वजूद से जुड़े प्रश्न आज भी उठते हैं। सबकुछ हासिल करने के बाद भी उसका नाम,उसकी तरक्की उसे खोखला महसूस करा जाते हैं। क्यों? क्योंकि पुरुष वैज्ञानिक रूप से चाँद पर पहुँचकर भी मानसिक रूप से रसातल में ही है। पत्रकार ताहिरा नियाजी के बेबाक विचार हैं कि 'नारी के सतीत्व और पुरुष के पुरुषत्व में अंतर मात्र इतना ही है कि स्त्री का सतीत्व उसके शरीर से जुड़ा है, जिसके भंग होते ही उसका मातृत्व जीवंत हो उठता है।

नारी की दुनिया में सबकुछ है- उसका घर, परिवार, नाते-रिश्ते, समाज-संसार लेकिन वह स्वयं कहाँ है? एक सृजनशील, विकासवान व्यक्तित्व के रूप में? यह खोज आज उसके लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि यह उसके अस्तित्व का सवाल है और यह सवाल बहुत नाजुक है। नारी जो माँ है, बहन है, बेटी है, पत्नी है उसके हिस्से में अभी भी चूल्हे, धुएँ, बिस्तर, बच्चे, बर्तन, दहलीजें हैं। वह सिर्फ निर्णय मानने वाली एक छोटी और दास इकाई है। अधिकांशतः ग्रेजुएशन करने वाली लड़कियों में यही भाव प्रमुख होता है कि घर में खाली बैठने से तो कॉलेज जाना बेहतर है।

हजारों महिलाएँ हर बरस देवदासी बना दी जाती हैं या वेश्यावृत्ति के नरक में धकेल दी जाती हैं। जीवन से मोहभंग की स्थिति झेलने को वह तैयार नहीं है। अपने अंदर नारी शक्ति की ऊर्जा को समेटती उलझनों को वह बाहर निकाल फेंकने लगी है। यह सब इसलिए नहीं कि माहौल में'स्त्री विमर्श' घुल रहा है बल्कि यह सब इसलिए कि नारी अब रोने, बिसूरने के मूड में नहीं है। दोयम दर्जे को लेकर उसका नजरिया नहीं, कभी नहीं जैसा हो चला है।

इक्कीसवीं सदी की 'न्यू वुमन' अपने प्रति समाज की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं में बदलाव चाहती है। रिश्तों-संबंधों में सुख का सृजन, निरंतर व्यवहृत उष्मा बनाए रखने का सबल मन, पुरुष के साथ समभाव का आधार चाहती है, जिसकी शुरुआत घर से ही होती है। घर का कैसा भी कोई काम हो, सबसे पहले नारी की सुनवाई घर की असेम्बली में तो हो। पुरुष अपनी सर्वश्रेष्ठता और महानता से जुड़ी 'मेल-डोमिनेंस' से बाहर निकले यही आज के समाज के लिए बेहतर होगा।

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जब जीवन में निराशा या कोई समस्या अपनी भाषा में बोलती है तो उसे निर्जीव होने की अनुभूति से बचाए। एक जीवंत संवेदना कल-कल, छल-छल-सी बहती रहे। नारी आज परछाई बनकर जीना नहीं चाहती, वह भी खुली हवा में साँस लेना चाहती है। बिना किसी भू-चाल का इंतजार किए उसकी पूरी गरिमा, आजादी से जीने की सृजित परिस्थितियाँ ही सजग समाज का नारी को अवदान होगा। स्त्री की सिरजना, समाज में स्थान पाना महज एक भावयात्रा नहीं, उसके साथ युगबोध के कई-कई सवाल गहराई से जुड़े हैं।

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