यह विषमता समाज में चारों तरफ है तब महिलाओं को लेकर भी यह सहज स्वाभाविक है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि बदलाव की बयार में महिलाओं की प्रगति, दुर्गति में अधिक परिणत हुई है। हम बार-बार आगे बढ़कर पीछे खिसके हैं। बात चाहे अलग-अलग तरीके से किए गए बलात्कार या हत्या की हो, खाप के खौफनाक फरमानों की या महिला अस्मिता से जुड़े किसी विलंबित अदालती फैसले की। निर्भया के मामले में देरी ने हर महिला के मन में कड़वाहट घोल दी है, कहीं ना कहीं महिला कहलाए जाने वाला वर्ग हैरान और हतप्रभ ही नजर आया।
कई सुकोमल बच्चियों की आत्मा अब तक न्याय पा सकी है ना किसी युवती की आत्महत्या की विवशता का मानवीय दृष्टिकोण से आकलन हो सका है। खाप के खतरनाक इरादे कहीं कम होते नजर ना आए और दूसरी तरफ दहेज, छेड़छाड़, प्रताड़ना, अपहरण और बलात्कार के आंकड़े बार-बार उसी महिला से आकर जुड़े हैं, जुड़कर बढ़ते क्रम में प्रकाशित हुए हैं, हो रहे हैं।
यकीनन महिलाओं ने तेजी से अपने निर्णय लेने की क्षमता में इजाफा किया है। यह एक सुखद संकेत है कि आज के दौर की नारियां अब आवाज उठाने लगी है मगर चिंता इस बात की है कि उस आवाज को दबाने की हैवानियत और कुत्सित ताकत भी उसी अनुपात में बढ़ीं हैं। स्त्री को दबाने और छलने के तरीके भी आधुनिक हुए हैं। कैसे भूल जाएं कि इसी देश में आग के हवाले कर दी गई थी एक पशु चिकित्सक, कैसे भूल जाएं निर्भया के वकील की बेशर्म दलीलें, कैसे भूल जाएं उसके बाद भी लगातार रेप की घटनाओं का सामने आना .. और कानून की आड़ में अपराधियों का बच निकलना....
महिलाओं की परिस्थिति में व्यापक बदलाव के लिए तैश में आना जरूरी नहीं है मगर यह भी तो जाना-परखा सच है कि तेवर नर्म किए तो बदलने की अपेक्षित संभावना भी खत्म हो जाएगी। सच से आंखें मूंद लेने से मौसम नहीं बदलेगा, खुली आंखों से हर पक्ष को खंगालना होगा।
बहरहाल, महिला दिवस 2020 पर शुभकामनाएं लीजिए कि 2021 के महिला दिवस तक अत्याचार के घृणित आंकड़ों में भारी गिरावट आए, सारे आंकड़े ही 'मर जाए' और हम देश की हर 'सामान्य' महिला की प्रगति पर मुस्कुराए। काश, यह सपना सच हो जाए।