घरेलू महिलाओं का 'महिला दिवस'...

क्या सम्मान के नाम पर, सिर्फ एक दिन 'महिला दिवस' मनाना महिलाओं का अपमान नहीं है? पुरुष दिवस तो मनाया नहीं जाता, क्योंकि पुरुष एक दिन के सम्मान का मोहताज नहीं। वो महिला जिसका हर दिन सुबह से लेकर रात तक, पहर का हर क्षण अपने पति, बच्चों और परिवार को समर्पित होता है। जिसके लिए साल के 365 दिन लगभग एक ही समान होते हैं। वो महिला जिसके लिए न कोई अवकाश है और न ही कोई रविवार।
 
 
जी हां, मैं बात कर रहीं हूं उन महिलाओं के समूह की जिन्हें समाज ने नाम दिया है घरेलू महिला का। ये वे ही महिलाएं हैं, जो 'महिला दिवस' के दिन घर में अकेले बैठ काम निपटाने के बाद या तो अखबार पढ़ सकती हैं या टीवी देखकर यह महसूस कर सकती हैं कि 'वाह री औरत, आज तुम्हारे सम्मान का दिन है।' वे एक कमरे में बैठकर यह जान पाती हैं कि समाज में महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर जाकर कहां-कहां तक परचम लहरा चुकी हैं? 
 
यह वही महिला है जिसे अखबार और टीवी के माध्यम से महिलाओं को जो सम्मान समाज में दिया जाता है इसका एहसास होता है। ये घरेलू महिला ये सब देख-पढ़कर बड़ी ही खुश हो जाती हैं। लेकिन वही समाज जिसमें वह रहती है वहां तो उसे अपने खुद और दूसरी महिलाओं के लिए ऐसा कोई सम्मान लोगों की नजरों, व्यवहार और बातों में नहीं दिखता है।
 
फिर ये घरेलू महिला खुद भी यही मान लेती है कि 'महिला दिवस' पर सम्मान का हक तो सिर्फ उन महिलाओं का है जिन्होंने ज्यादा पढ़ाई-लिखाई की है। जिन्होंने घर कि चार दिवारी से बाहर निकलकर कुछ बड़ा कर दिखाया हैं। और इस समूह में तो वह खुद नहीं आती हैं।   
 
इस महिला ने घर और परिवार की हर छोटी-बड़ी जरूरत को पूरा करते हुए अपना जीवन बिता दिया, अपनी जरूरतों के पहले दूसरों की मांगें पूरी की। जो खुद के लिए कभी समय ही नहीं निकल पाई। कभी खुद के लिए सोचने, सीखने, कुछ करने की इच्छा मन में आई तो यही ताने सुनने को मिले कि पति, बच्चे, परिवार को अकेले छोड़कर, अपने पत्नी, बहू और मां होने की जिम्मेदारी से भागकर अपने शौक पूरे करने निकल गई। कैसी आवारा पत्नी, निर्गुणी बहू और बेपरवाह मां है। जब इस घरेलू महिला ने भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सम्मान पाने के लिए कुछ करना चाहा तो वो दूसरों के नजरिए का शिकार हुई।
 
फिर लड़ाई शुरू हुई खुद को सही साबित करने की। लेकिन एक पत्नी, मां, बहन, बेटी, बहू होने से पहले औरत एक इंसान भी है। जिसकी अपनी कुछ जरूरतें हैं, वैसे ही जैसे किसी पुरुष की होती है। घरेलू होते हुए भी उसकी भी कई आकांक्षाए, कई शौक या इच्छा हो सकती है जिन्हें पूरा करने का उसे हक है।


जब वो इन्हें पूरा करने निकलती है तो क्यों उस पर कई गलत तमगे आज भी लगा दिए जाते हैं? क्यों इस औरत को अपने लिए कुछ भी करने पर ग्लानिभाव से भरने के लिए उसी के सगे-संबंधी, परिवार वाले मजबूर कर देते हैं?
 
क्यों एक स्त्री, एक औरत को 'त्याग और बलिदान' की मूरत से परिभाषित किया जाता है? यह परिभाषा उस रूढ़िवादी समाज और पुरुषों ने बनाई है जिन्होंने स्त्री की काबिलियत को जान लिया था। जिन्होंने स्त्री के प्रेम में समर्पण को समझ लिया था और जिन्हें पता था कि प्रेम में समर्पित स्त्री हर मोड़ पर अपने पुरुष साथी को आगे बढ़ाने में अपना पूरा जीवन उसके पीछे रहकर चलने में एक बार भी नहीं सोचेगी। अपना पूरा जीवन अपने साथी और परिवार पर न्योछावर कर देगी। साथी को आगे बढ़ता देख वो खुश होती है, क्योंकि उसे लगता है कि साथी उसके सहयोग से तो आगे बढ़ा। जब समाज ने भांप लिया कि एक स्त्री के दास की भांति समर्पित होने से पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों को कितना फायदा हो रहा है, तब एक स्त्री होने की परिभाषा ही 'त्याग और बलिदान' की कर दी गई।
 
 
स्त्री ने पुरुष को कभी पत्नी बनकर तो कभी मां बनकर समय पर खाना खिलाया, बीमारी में ध्यान रखा, हर अगले दिन उनके ऑफिस जाने की तैयारी की, साफ कपड़े पहनने को देने से लेकर रूमाल देने तक की जिम्मेदारी ली। माता-पिता दोनों बने लेकिन बच्चे को पालने व देखरेख करने की सारी जिम्मेदारी आदर्श स्त्री और मां होने की परिभाषा में ही डाल दी गई।
 
पति के जीवन में कोई अधिक बदलाव नहीं आया और वे अब भी पहले ही की तरह ऑफिस जाते हैं और अपनी ही और ज्यादा तरक्की, नई चीजें सीखने, अपने ही शारीरिक और मानसिक विकास पर ध्यान देते हैं और बहाना होता है कि अपने परिवार के लिए ही तो ज्यादा सीखकर आगे बढ़ रहा हूं। अपने ही बच्चे की देखरेख करने में आज भी पुरुष-प्रधान समाज के पुरुषों को शर्म महसूस होती है। 
 
एक स्त्री का जीवन चाहे-अनचाहे, खासकर शादी के बाद बेड़ियों में बंधने पर मजबूर क्यों हो जाता है? अपने बच्चों की जरूरतें पैसे से पूरा करना ही मात्र एक पैरामीटर नहीं होता अच्छे माता-पिता होने का। समाज में एक स्त्री के आदर्श होने के कई मानक हैं लेकिन पुरुषों के नहीं। और हम समानता की बात करते हैं...! 
 
अब यही घरेलू स्त्री अपनी बेटी को अपने जैसा बनाना नहीं चाहती है। ये किस्सा आज की महिला का नहीं, बल्कि सालोसाल से है। अरसे से स्त्री नहीं चाहती कि उसकी बेटी का जीवन भी उसी की तरह त्याग की बलि चढ़ जाए। यह घरेलू स्त्री अपनी बेटी को चारदीवारी से आगे भेजना चाहती है, उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहती है, उसे पंखों का औजार देना चाहती है। उसे लगता है कि फिर कहीं किसी दिन जाकर उसकी बेटी को 'महिला दिवस' पर सम्मान मिलेगा जिसे देखकर वो खुशी से अभिभूत हो जाएगी और पहली बार उस क्षण में उसे अपने औरत होने पर गर्व होगा, अभिमान होगा और अपनी बेटी के जरिए वो सम्मान का स्वाद चखेगी। 
 
लेकिन यह मासूम घरेलू औरत जिसने अपनी बेटी के लिए सपने देखे हैं, उसी होनहार बेटी की एक दिन शादी होनी है, बिदा होकर इस बेटी को समाज के ही किसी दूसरे घर जाना है। एक ऐसा दूसरा घर, जहां के लोग बेसब्री से एक ऐसी बहू की लालसा लगाए बैठे हैं, जो स्त्री की परिभाषा 'त्याग और बलिदान की मूरत' के मानक पर हर पल होने वाली परीक्षा में सफल हो।
 
क्या यह बेटी भी फिर अपने मां के जीवन की तरह अपने सपने अपनी बेटी के जरिए पूरे करेगी? 

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