यह कैसा धर्म

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मनुष्य को ईश्वर का दिया हुआ सबसे नायाब तोहफा है, प्रकृति। इस तोहफे की साज संभाल मनुष्य सहजता से कर लें, इसलिए हमारे धर्म में धरती को माता, नदियों को देवी और वृक्षों को देवता की संज्ञा दी है।

वट सावित्री, हरियाली अमावस्या जैसे त्यौहार मनाने की परंपरा शायद वृक्षों का महत्व समझाने के लिए ही प्रारंभ की गई होगी। हर धर्म मानव को पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा करने का सबक देता है। अगर अपने धर्म के इन सिद्धांतों का हमने पचास प्रतिशत भी पालन किया होता तो शायद आज हमें अपनी धरती पर आने वाले भावी संकटों की चिंता ना सता रहीं होती। धर्म के माध्यम से प्रकृति की रक्षा करने के स्थान पर हमने कई बार धर्म के नाम पर इससे उल्टा व्यवहार किया हैं।

वर्ल्ड अर्थ डे याने कि विश्व धरा दिवस पर हम यदि धर्म की आड़ में प्रकृति को पहुँच रहें नुकसान की गंभीरता को स्वीकार करें तो यह दिन मनाना हमारे लिए सार्थक होगा।

गणेश उत्सव और दुर्गापूजन के दौरान जिन विशाल और सुंदर प्रतिमाओं की उपासना की जाती है उत्सव के समाप्ति पर्व पर इन प्रतिमाओं को पवित्र जलस्त्रोतों में विसर्जित कर दिया जाता हैं। देवी देवताओं की यह भव्य प्रतिमाएँ प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी होती है इन पर ऑयल पैंट का रंग चढ़ा होता है। इस ऑयल पेंट में सीसा और आर्सेनिक जैसे तत्व मिले होते हैं।

सीसा और आर्सेनिक को विषाक्त धातुओं की सूची में रखा गया है। ऐसी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बाद जब जल के भीतर उनका वास्तविक अपघटन प्रारंभ होता है, तब यह तत्व जल में विषाक्तता फैलाते है। इसकी वजह से नदी, तालाब या समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होता है। इस विषाक्तता की वजह से पानी के भीतर मछलियों व अन्य जीवों की असमय मौत हो जाती है और यह पानी पीने लायक नहीं रह जाता है।

हर साल हजारों की संख्या में यह प्रतिमाएं जलस्त्रोतों में विसर्जित की जाती हैं। बहते हुए पानी में टॉक्सिक धातुओं की सांद्रता कम होने की वजह से अभी हमें इसके प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई नहीं दे रहे है, लेकिन इनके दुष्प्रभाव से कई नदियों में पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँच चुका है।

अब इनके हानिकारक नतीजे जलस्त्रोत के बाहर भी नजर आने लगे है जिस पानी में किसी तरह की विषाक्तता व्याप्त हो, उसे पीने की वजह से पीने वाले को बीमारियाँ होती हैं, इसका सेवन करने वाले कभी गंभीर तो कभी सामान्य बीमारियों के शिकार होते हैं। यदि इस तरह की विषाक्तता से मानव समुदाय को पहुँचने वाले नुकसान का वास्तविक आकलन किया जाए तो आश्चर्यजनक आँकडे़ प्राप्त होंगे। धर्म के अनुसार भी केवल मिट्टी, पीतल, तांबे या चांदी की प्रतिमा को ईश्वर का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है याने कि प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी प्रतिमाओं का पूजन करने के बाद, हमें पूजन का वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता है। ऐसा हम नहीं धार्मिक व्याख्या ही कह रही है।

धर्म के जानकारों के अनुसार पूर्व में केवल मिट्टी की प्रतिमाओं को ही जलस्त्रोतों में विसर्जित किया जाता था। इन प्रतिमाओं को प्राकृतिक ढंग से तैयार किये गए रंगो से रंगा जाता था। जब ये प्रतिमाएँ जलस्त्रोतों में विसर्जित की जाती, तो जल के भीतर इनका पूर्ण अपघटन हो जाता था। जिससे जलस्त्रोत को जरा भी हानि नहीं पहुँचती थी। लेकिन आज के परिदृश्य में देखे तो प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी और ऑयल पेंट से पोती गई प्रतिमाएँ पानी में पूर्ण रूप से अपघटित नहीं हो पाती है1

अक्सर गर्मी के मौसम में तालाबों का जल सूखता है तो उनके अंदर खंडीत प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं। जिनमें देवी देवताओं की कुछ अंग क्षत विक्षत हो जाते हैं, ऐसे दृश्य देखने के बाद हमारी धार्मिक आस्था को ठेस पहुँचती है साथ ही यह दैव प्रतिमा की मर्यादा के विरूद्ध है। सबसे बड़ी बात कि इससे जलस्त्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। इनमें रहने वाले जलीय प्राणियों को असमय मौत का शिकार होना पड़ता है।

जिस कृत्य से निर्दोष जीवों को नुकसान हो, क्या आप उसे धार्मिक कृत्य की संज्ञा देंगे उम्मीद है, अगली बार पवित्र नदियों या तालाबों में प्रतिमाएँ विसर्जित करने से पूर्व आप आप एक बार जरुरी सोचेंगे। इस समस्या का एक समाधान यह भी हो सकता है कि परंपराएँ निभाने के लिए मिट्टी से बनी सादगी पूर्ण प्रतिमाओं का उपयोग किया जाए।

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