श्रेष्ठ कर्म ही सच्ची भक्ति

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अपने कर्मों को ही पूजा बना लो। प्रभु माला और माल से राजी नहीं होते, हमारे कर्मों से प्रसन्न होते हैं। गीता निष्काम कर्मों के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताती है। श्रेष्ठ कर्मों को ही सच्ची भक्ति समझो। परोपकार तथा यर्थार्थ सेवा के कर्म मनुष्य को आसक्ति, फलेच्छा व बंधन में ही डालते हैं। ये विचार महेश विद्यालंकार ने व्यक्त किए।

उन्होंने कहा कि कमल के पत्ते पानी में रहते हुए भी जल को अपने ऊपर नहीं आने देते। ऐसे ही निष्काम कर्मयोगी संसार में रहता हुआ भी कर्मों के बंधन तथा मोह में आक्त नहीं होता।

गीता संसार को कर्मशील व पुरुषार्थी होने का संदेश देती है और स्वार्थ, लोभ, अहंकार से ऊपर उठकर निष्काम व परोपकार के कर्मों की भावना जागृत करती है। वह श्रेष्ठ कर्म करते हुए इहलोक तथा परलोक दोनों के लिए उन्नति करने के लिए प्रेरणा देती है। हे मनुष्यो, वर्तमान जीवन और जगत्‌ को कर्मों की सुगंध से भरते चलो।

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कर्त्तव्य व दायित्व को ईमानदारी व कुशलता से निभाओ। गीता कह रही है - 'योगः कर्मसु कौशलम्' अर्थात्‌ जो भी कर्म करो, उसको पूर्णता, निपुणता, सुन्दरता और कुशलता से करो। जो इस तरह से जीवन को जीता है, गीता के अनुसार वह इस जीवन व जगत्‌ को सफल कर लेता है और उसका अगला जन्म भी सुधर जाता है।

तन के श्रृंगार में ही जो समय गँवा देते हैं वह इस नाशवान संसार में भटककर रह जाते हैं लेकिन जो मन का श्रृंगार कर उसमें बैठे परमात्मा की आराधना करते है वह संसार की मलिनता से बच जाते हैं, वस्तुतः दुर्गुणों से ही जीवन में मलिता आती है।

इनसे बचने का एक मात्र उपाय वेद शास्त्र और पुराणों का मंथन तथा सज्जनों की संगति है।

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