विश्व पर्यावरण दिवस : एक नजर में

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सरकारी कैलेंडर में देखें तो पर्यावरण पर बातचीत सन् 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉकहोम सम्मेलन से शुरू होती है। पश्चिम के देश चिंतित थे कि विकास का कुल्हाड़ा उनके जंगल काट रहा है, विकास की पताकानुमा उद्योग की ऊंची चिमनियां, संपन्नता के वाहन, मोटर-गाड़ियां आदि उनके शहरों का वातावरण खराब कर रही हैं।

देवता सरीखे उद्योगों का निकल रहा चरणामृत वास्तव में ऐसा गंदा और जहरीला पानी है जिसने उनकी सुंदर नदियों, नीली झीलों को काला-पीला बना दिया। हर साल यह बहस पांच जून को चरम पर पहुंच जाती है, क्योंकि यह दिन पर्यावरण के समारोहों के समापन और शुरुआत दोनों का होता है।

जो देश थोड़ा अपने आपको पिछड़ा मान रहे थे उन्होंने इस बहस में अपने को शामिल करते हुए कहा कि ठीक है तुम्हारी नदियां गंदी हो रही हैं तो तुम हमारे यहां चले आओ, हमारी नदियां अभी साफ हैं। उद्योग लगाओ और जितना हो सके गंदा करो, ब्राजील जैसे देशों ने सीना ठोंककर कहा कि हमें पर्यावरण नहीं, विकास चाहिए। भारत ने भले ही इस तरह सीना ठोंक दावा न किया हो लेकिन दरवाजे तो उसने भी खुद इसी अंदाज में खोले थे। गरीबी से निपटना है तो विकास चाहिए।

पर्यावरण की समस्या ठीक से समझने के लिए हमें प्राकृतिक साधनों के बंटवारे को, उसकी खपत को समझना होगा। सीएसई के निदेशक स्व. अनिल अग्रवाल ने इस बंटवारे का एक मोटा ढांचा बनाया था। करीब पांच प्रतिशत आबादी दुनिया के प्राकृतिक साधनों के साठ प्रतिशत पर कब्जा किए बैठी है। दस प्रतिशत आबादी के हाथ में पच्चीस प्रतिशत साधन हैं। लेकिन साठ प्रतिशत की फटी झोली में मुश्किल से पांच प्रतिशत साधन हैं।

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हालत ऐसी भी रहती तो एक बात थी लेकिन इधर पांच प्रतिशत हिस्से की आबादी पूरी थमी हुई है। साथ ही जिन साठ प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों पर आज उनका कब्जा है, वह लगातार बढ़ रहा है। दूसरे वर्ग की आबादी में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है। तीसरे, पच्चीस प्रतिशत की आबादी में वृद्धि हो गई है और संसाधन उनके हाथ से निकल रहे हैं। इस तरह चौथे साठ प्रतिशत वाले वर्ग की आबादी तेजी से बढ़ चली है, परिणामतः उनके हाथ में बचे खुचे संसाधन तेजी से खत्म हो रहे हैं।

यह चित्र केवल भारत का नहीं, पूरी दुनिया का है। आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश में अपने आसपास के पर्यावरण को बुरी तरह नोच रहा है। दूसरी ओर पांच प्रतिशत की पर्यावरण विलासिता भोगनेवाली आबादी ऐसे व्यापक और सघन दोहन में लगी है कि उसके लिए भौगोलिक सीमाओं का कोई मतलब नहीं है।

कर्नाटक, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश में लगे कागज उद्योग ने पहले यहां के जंगल खाए, अब वे दूरदराज के जंगलों को खाते-खाते अंडमान निकोबार तक जा पहुंचे हैं। जो जितना ताकतवर है वह दूसरे के हिस्से का पर्यावरण उतनी ही तेजी से निगलता है। दिल्ली यमुना का पानी तो पीती है लेकिन कम पड़ जाए तो गंगा को भी निचोड़ लाती है।

इंदौर पहले अपनी छोटी-सी खान नदी को मार देता है फिर पानी के लिए नर्मदा पर कब्जा जमाकर बैठ जाता है। भोपाल पहले अपने विशाल ताल को कचरे से भर देता है फिर 80 किलोमीटर दूर बह रही नर्मदा से पीने के पानी की योजना बनाने लगता है। लेकिन नर्मदा के किनारे बसा जबलपुर नर्मदा के पानी से वंचित रहता है।

आधुनिक विज्ञान, तकनीक और विकास के नाम पर हो रही यह लूटपाट प्रकृति से पहले से कहीं ज्यादा कच्चा माल खींचकर उसे अपनी जरूरत के लिए नहीं बल्कि लालच के लिए पक्के माल में बदल रही है। इस कच्चा-पक्का की प्रक्रिया में जो कचरा पैदा होता है उसे विकास के पैरोकार ठिकाने लगाना अपना काम नहीं समझते। उसे वह ज्यों का त्यों प्रकृति के दरवाजे पर पटक आना जानता है। इस तरह उसने हर चीज को एक उद्योग में बदल दिया है जो प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा हड़पता है और बदले में इसे ऐसी कोई चीज नहीं देता जिससे उसका चुकता हुआ भंडार फिर से भरे।

कहां तो देश के 33 प्रतिशत हिस्से को वन से ढंकना था और कहां अब मुश्किल से 10 प्रतिशत वन बचे हैं। उद्योगों और बड़े-बड़े शहरों की गंदगी ने देश के 14 बड़ी नदियों के पानी को प्रदूषित कर दिया। सिकुड़ती जमीन ने जो दबाव बनाया है उसकी चपेट में चारागाह भी आए हैं। वन गए तो वन के बाशिंदे भी विदा होने लगे!

बिगड़ते पर्यावरण की इस लंबी सूची के साथ ही साथ सामाजिक अन्यायों की एक समानांतर सूची भी बनती चली गई है। पर क्या कोई इन समस्याओं से लड़ पाएगा? बिगड़ता पर्यावरण संवारने के भारी भरकम दावों के बीच क्या हम एक छोटा-सा संकल्प ले सकते हैं कि इसे अब और नहीं बिगड़ने देंगे? ऐसा संकल्प पर्यावरण के भोग विलास वाले चौबीस घंटे की चिंता को चौबीसों घंटे की संस्कारित सजगता में बदल देगी। क्या पर्यावरण दिवस पर हम ऐसा संकल्प करने के लिए तैयार होंगे?

- अनुपम मिश्र (लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता)

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