अमिताभ बच्चन के जीवन का पैंसठवाँ वर्ष उनके पिता डॉ. हरिवंशराय बच्चन का जन्मशती वर्ष है। अमिताभ स्वयं युवा पुत्र-पुत्री के पिता हैं। दो प्यारे बच्चों के नाना भी बन चुके हैं। अत्यंत व्यस्त जीवनचर्या है। ऐसे में आधी सदी से भी ज्यादा पीछे की बातें करना पता नहीं पसंद भी करेंगे या नहीं, यही संकोच मन में बना हुआ था- पर उनके साथ ऐसे नेह छोह के संबंध बन चुके हैं कि एक दिन कह ही दिया- अमित, समय निकालो तो कुछ देर बैठकर सिर्फ बाबूजी की बातें करें। आशा के अनुरूप उन्होंने हाँ कर दी। जब समय मिला तो सच मानिए ऐसा लगा, वक्त थम गया है। अतीत की गलियों में जो बहना शुरू किया, तो जल-थल एक हो गए और वे सिर्फ डूबते-उतराते रहे।
अमिताभ कहते हैं 'मैं इसे अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानता हूँ कि मेरा जन्म माँ और बाबूजी जैसे माता-पिता के घर हुआ। अच्छे संस्कार देने का श्रेय सिर्फ उन्हें ही जाता है। वे दोनों खुद अलग-अलग माहौल और संस्कारों के बीच पले-बढ़े थे। माँ एक बहुत अमीर सिख परिवार की बेटी थीं और बाबूजी एक लोअर मिडिल क्लास गरीब कायस्थ घर में जन्मे थे।
माँ एक अति आधुनिक शहर लाहौर के माहौल में बड़ी हुईं और बाबूजी एक ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक व साहित्यिक नगर इलाहाबाद में जिए। दोनों ही के पारिवारिक मूल्य बड़े ऊँचे,पवित्र और विशिष्ट थे। लेकिन थे दोनों दो ध्रुवों पर। एक एकदम पश्चिमी और दूसरा ठेठ पुरबिया। एक की शिक्षा-दीक्षा अँगरेजी के माध्यम से, दूसरे की हिन्दी और फारसी में। दोनों के बीच एक चीज जरूर बिलकुल एक जैसी थी- वह थी धार्मिक आस्था। सो इन दोनों के मिश्रण से मैं जो बना उसके बचपन से ही एक कान में रामचरित मानस गूँजी तो दूसरे में गुरुवाणी।'
'हम दोनों भाई इन्हीं दोनों विचारधाराओं के खूबसूरत मेल में पले-बढ़े थे। केवल विचारधारा ही नहीं, माँ-बाबूजी हमारे लिए एक-दूसरे के पूरक भी बने रहते थे मसलन एक बात याद आ रही है- तब हम 17 क्लाइव रोड इलाहाबाद में रहते थे। उस घर के पास रानी बेतिया की एक बड़ी-सी कोठी थी। चारों तरफ ऊँॅची-ऊँची दीवारें थीं। भीतर कोई जा नहीं सकता था। बड़ी मिस्टीरियस-सी लगती थी वह कोठी। मैं भीतर जाने को बहुत उत्सुक हो उठा था। एक दिन वहाँ का चौकीदार बोला कि चार आने दो तो अंदर जाने देंगे। माँ की ड्रेसिंग टेबल परएक डिब्बा रखा रहता था। उसमें वे कुछ चूड़ियाँ, क्लिप वगैरह रखती थीं। कभी-कभी उस डिब्बे में मैंने उन्हें रेजगारी डालते भी देखा था। सो एक दिन मैंने चुपचाप उसमें से चार आने चुरा लिए थे और उस दरबान को दे दिए थे।
उस दुष्ट ने पैसे हजम कर लिए और भीतर जाने भी नहीं दिया था। उसका फ्रस्ट्रेशन जो हुआ सो हुआ। घर पर चोरी पकड़ी गई और माँ से मार पड़ी। माँ तो मार-मूरकर अपने काम में लग गईं, पर बाबूजी को शायद यह लगा होगा कि बच्चे को इस तरह मारना नहीं चाहिए तो उन्होंने माँ से तो कुछ नहीं कहा, मुझे अलग ले गएऔर खूब समझाया कि चोरी नहीं करनी चाहिए। तुम्हें जब जिस चीज की जरूरत हो, हमसे कहकर लेनी चाहिए। हमसे माँगनी चाहिए। हमारे लिए देना संभव होगा तो तुम्हें जरूर देंगे, पर यदि संभव नहीं होगा तो समझ लेना हमारे वश के बाहर की बात है और तुम्हें भी सब्र कर लेना चाहिए। इस तरह की बातें वे इस तरह समझाते थे कि बाल मन पर स्थायी प्रभाव छोड़ जाती थीं और मन दुःखी भी नहीं होता था।'
फिर तो अमिताभ इस तरह की तमाम बातें याद करते रहे। मैंने जब उन्हें याद दिलाया कि बच्चनजी बचपन में हर छोटी-बड़ी बात का खयाल रखते ही थे, पर जब वे कुछ बीमार और अशक्त हो गए थे तब भी तुम्हारी ताकत का स्रोत वे ही बने रहे थे। हर परेशानी के समय तुमसे भले हीवे बात न कर पाते हों, पर उनके पास चुपचाप बैठने मात्र से तुम हल्का महसूस करने लगते थे, ऐसा तुमने मुझे बताया था तो अमिताभ बोले- 'स्वाभाविक सी बात है। दुःख-दर्द में यदि कोई अपना बिना कुछ कहे चुपचाप आपका हाथ पकड़ ले तो एक आत्मबल, एक साहस मिलता है। ढाढस बढ़ता है।
हम भगवान के मंदिर में जाकर, उनके सामने ऐसे ही तो बैठ जाते हैं। वो हमसे कुछ कहते हैं क्या? बस एक दिव्यता की परछाई में लिप्त, हमें अच्छा लगता है। हम उन्हें अपना कष्ट अर्पण करते हैं- एक शक्ति मिलती है, आत्मविश्वास बनता है- माता-पिता हम सबों के जीवन में, हमारी वो दिव्य शक्ति है, जहाँ से हमें सांत्वना मिलती है, शक्ति मिलती है। बाबूजी के साथ बैठने में मैं ऐसा ही अनुभव करता था। अपनी सबसे बड़ी परेशानियों के दिनों में भी मैंने पाया था कि उनकी लिखी कृतियों को जब मैं पढ़ता, तो कहीं न कहीं, मेरे मन में जो प्रश्नों का तूफान चल रहा होता था, उसका उत्तर मिल जाता था। बाबूजी नहीं हैं, तो मेरे मन में बसी उनकी प्रतिभा है, उनकी कृतियाँ हैं अब! उनकी पुस्तकों में मैं उन्हें पा लेता हूँ।'
तेजीजी ने मुझे बताया था कि बचपन में तुम इतने बीमार पड़े कि वे घबरा गए थे और बस ईश्वर से मन्नात माँगने के सिवाय कुछ न कर सके। बोले- भगवान, इसे ठीक कर दो मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। इसी तरह बंटी के बीमार पड़ने पर मांसाहार छोड़ दिया था। इस बात को मैं तो इस तरह लेती हूँ कि ईश्वर के आगे वे केवल भिखारी बनकर नहीं खड़े हो जाते थे- दया माँगते थे तो बदले में कुछ त्याग देने को भी तैयार रहते थे और आत्मसंयम से बड़ी चीज भला और क्या हो सकती है।
अमित ने कहा, 'बाबूजी ने बंटी और मेरे लिए किया, वह उनके ईश्वर के प्रति न केवल अटूट विश्वास और आस्था का उदाहरण है बल्कि उनके अद्भुत आत्मबल का भी।'
ईश्वर से माँगना तो आसान काम है, लेकिन जैसा कि आपने कहा कि उसे अपना आत्मसंयम भी अर्पित करना, ये अति कठिन है। ये तो मानो ईश्वर को चुनौती देने वाली बात हो गई।
प्रार्थना, दक्षिणा, पुष्पम्-फलम्-नैवेद्यम् के साथ-साथ आपने उन्हें अपना आत्मसंयम भी अर्पण किया। आप भी खेलो, हम भी खेलें, देखें कौन विजयी होता है।
अमित को भाषा घुट्टी में ही पिला दी गई है मानो। अमित जब मन से डूबकर बातें करते हैं तो उनकी हिन्दी एकदम रेशम की तरह फिसलती और नदी की तरह बहती चलती है।
मैंने पूछा कि तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा कॉन्वेंट में हुई, पर शायद बच्चनजी इसके पक्ष में नहीं थे? तो बोले- 'हाँ मुझे बाबूजी की आत्मकथा पढ़ने पर पता चला कि माँ और उनके बीच इस बात को लेकर विवाद होते थे। मैं समझता हूँ ठीक ही था। जो हुआ ठीक ही हुआ- आखिर हमने पूरब और पश्चिम का सही-सही मिश्रण भी तो पा ही लिया न। बाबूजी को अपनी मातृभाषा के प्रति अटूट प्रेम था- स्वाभाविक था। माँ पश्चिमी खयालों से प्रभावित थीं, शायद आने वाले कल की ओर इशारा कर रही थीं। बाबूजी अपने आप से, और अपनी परिस्थितियों से संतुष्ट और शायद सीमित! माँ की सोच में शायद थोड़ा और विस्तार- शायद आने वाले कल की कुछ आहट सुन रही थीं वे।
आज के ग्लोबल विलेज वाले वातावरण को देखकर, उस समय जो निर्णय लिया गया वह अब सही दिखाई दे रहा है। विकसित देशों से जो आउट सोर्सिंग हो रही है वह ज्यादातर भारत को मिलती है। क्योंकि हम हिन्दीभाषी तो हैं ही, अँगरेजी भी अच्छी जानते हैं। चीन हमसे ज्यादा विकसित है, पर उसे इतनी नहीं मिलती, क्योंकि भाषा की समस्या है।'
मैंने कहा- चलो अच्छा ही हुआ कि बच्चनजी झुक गए और तेजीजी की बात मान गए, क्योंकि मान इसलिए भी गए होंगे कि वे तथाकथित भारतीयता के लकीर के फकीर की तरह हिमायती नहीं थे। उन्होंने तमाम भारतीय कुरीतियों के प्रति विद्रोह भी किया था।
अमित बोले- 'बाबूजी के मन में एक खास तरह का आक्रोश था। रीति-रिवाज, जाति-पाँति इन सबसे परे थे बाबूजी। पर सारी दुनिया को वे वैसी राह चलने को मजबूर करें ऐसा नहीं सोचते थे। उनकी विचारधारा बड़ी डेमोक्रेटिक और फ्री और लिबरल थी।'
1942 के एक कंजर्वेटिव इलाहाबाद शहर में लाहौर जैसे आधुनिक शहर की एक सरदारनी को ब्याह कर ले आए। लेकिन सारा इलाहाबाद शहर ऐसा करे, ऐसा कभी नहीं कहा उन्होंने। न ही कभी उन्होंने इस बात का विरोध किया कि माँ हमें गुरुवाणी का पाठ पढ़कर क्यों सुनाती हैं। न ही कभी इस बात का विरोध कि उनका एक पुत्र बंगाली से शादी कर रहा है, दूसरा सिंधी से। यदि वे जीवित होते तो अपने पोते का ब्याह एक दक्षिण भारतीय से होते देख अत्यंत खुश होते।
मैंने कहा- हाँ सच बात है। वे अपनी विचारधारा को उपदेश के रूप में कभी नहीं पिलाते थे। वरन बस चुपचाप खुद करके दिखा देते थे।
अमित थोड़े गंभीर होकर बोले- 'देखिए, बाबूजी बोलते कम थे। उनके कर्म बोलते थे। यह हम पर है कि हम उन कर्मों से कितना समझते-सीखते हैं। मन की व्यथा, पीड़ा, कष्ट, दुविधा सब कुछ व्यक्त करने के लिए जब ईश्वर ने हमें कोई माध्यम, कोई गुण दिया है तो उसमें विलीन होकर, अपनी अंतरात्मा को संभालकर हमें रखना ही चाहिए।
मेरे सामने तो कैमरा आया कि मेरी क्रिएटिविटी जागृत होकर मेरी हर पीड़ा का इलाज स्वयं खोज लेती है। कुछ लोग ऐसा नहीं भी कर पाते। पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए वे अलग माध्यम खोजते हैं। नशा उनमें सबसे प्रबल होता है। शराब का, सिगरेट का, ड्रग्स का... ऐसे मनुष्य कमजोर होते हैं। मेरा यह मानना है कि यह जो क्रिएटिविटी नाम की चीज होती है न, यह केवल कलाकारों या साहित्यकारों के पास ही नहीं होती। यह तो मनुष्य मात्र के अंदर समाई हुई है। ईश्वर की यह सबसे बड़ी देन है। उसे पहचानना और पहचानकर निखारना यह मनुष्य का काम है। उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है।'
सभी जानते हैं कि तुमने स्वयं को बहुत संयमित रखा हुआ है। तुम्हारे साथ काम करने वाले हर छोटे-बड़े कलाकार तुम्हारे समय की पाबंदी, काम के प्रति प्रतिबद्धता और अनुशासन से बेहद प्रभावित होते हैं- इतना संयम कैसे उपलब्ध किया?
'अब मैंने उपलब्ध किया या हो गया, यह मैं नहीं जानता पर यह बात सच है कि दिए हुए समय पर पहुँच जाना मुझे अच्छा लगता है। मेरी माँ और बाबूजी दोनों ही अनुशासनप्रिय थे, फिर बचपन में पं. जवाहरलाल नेहरूजी और इंदु आंटी से भी इस तरह की शिक्षा पाते रहते थे- बचपन की मुझे याद है कि चाहे खेल बीच में छोड़ना पड़े चाहे बेहद तेज साइकल चलानी पड़े, मगर सड़क का लैम्पपोस्ट जलने के पहले घर पहुँचना एकदम अटल नियम था। कई बार डाँट-मार भी पड़ी।
पर एक बात थी कि बाबूजी चाहे खुद चपत टिका दें, पर कोई दूसरा हम पर हाथ उठाए, यह उन्हें कतई गवारा नहीं था। एक बार तो मेरे प्रिंसीपल को भी फटकार आए थे- ऐसी बातों से बड़ा आत्मबल मिलता था। परिवार का साथ और सहयोग इससे बढ़कर शक्ति विश्व में कोई नहीं। परिवार साथ में हो तो दुनिया की सारी ताकतें कमजोर पड़ जाती हैं। जीवन की ऐसीसारी सचाइयों से बाबूजी ने खूब अवगत कराया था।
बेहद भाग्यशाली हूँ मैं- बचपन में तमाम तरह की आर्थिक तंगियों के बावजूद बाबूजी और माँ हमारे ढीठ आग्रह पूरे करते थे, सांसारिक मनपसंद चीजें मुहैया कराते रहते थे। धन्य हैं वे कि व्यक्तिगत कठिनाइयाँ उठाकर भी उन दोनों ने हमें वह सब कुछ दिया जो हमने माँगा।
और जीवन की आइसी देखिए कि ईश्वर की कृपा से और माँ-बाबूजी के आशीर्वाद से जब हमारी स्थिति ऐसी हुई कि हम उन्हें वह सब कुछ दे सकें जो वे चाहें, तो उन्होंने हमसे केवल इतना कहा- 'बेटा, हमें कुछ नहीं चाहिए, बस, दिन में एक बार हमसे मिल लिया करो।' अमिताभ की आवाज गीली हो आई थी। वे ज्यादा भावुक न हो उठें तो उन्हें फिर बचपन में लौटा ले जाने की गरज से मैंने कहा- यह तो हम सब मित्र परिवार जानते रहे हैं कि बच्चनजी रोज सुबह और शाम को खूब लंबी-लंबी दूरी तक टहलने जरूर जाते थे। तुम्हें भी साथ ले जाते थे कभी?
अमिताभ के मुँह पर फिर वही मासूम बचपन खिल आया और बोले- 'हाँ, सुबह की सैर पर साथ ले जाते थे। जब मैं इलाहाबाद में था, छोटा था, तब पता है आपको मेरे लिए तो वे सुबहें बड़ी डरावनी होती थीं। क्योंकि वे चलते-चलते मुझसे गणित के पहाड़े कहने को बोलते थे। दस तक तो किसी तरह मैं संभाल लेता था। दस के बाद बड़ा कठिन होता। हर गलती पर एक चपत पड़ती और हर चपत पर मैं आशा करता कि घर जल्दी आए और मेरी यह पीड़ा मिटे!'
अमिताभ को अचानक कुछ याद आया-उस याद से उनकी आँखों में जो चमक कौंधी उसे देखकर हर व्यक्ति जिसके पास माँ या पिता का दिल है उसे प्यार आ ही जाएगा। चमकती आँखें औ खुली घुली हँसी के साथ बोले- 'यह सैर अलग होती थी, पर बाबूजी के साथ दशहरे पर शहर भरमें घूमने में जो मजा आता था वैसा... सारी दुनिया जहान घूम आए पर वैसा सुख कभी नहीं मिला।
दशहरे के दिनों में बाबूजी का उत्साह देखने लायक होता था। तब इलाहाबाद में रामलीलाएँ खूब होती थीं और राम की कथा से संबंधित खूब झाँकियाँ निकलती थीं। बाबूजी मुझे उँगली पकड़कर साथ चलाते। थक जाऊँ तो अपने कंधे पर बिठा लेते, कभी पीठ पर लाद लेते, कभी-कभी तो भीड़ ज्यादा हो तो कोहनी से ठेल-ठालकर मेरे लायक सुरक्षित जगह बनाते हुए मुझे एक-एक चौकी दिखाते और जिस संदर्भ की चौकी होती वह कथा सुनाते चलते।'
मैंने कहा- हाँ रामचरित मानस के प्रति अगाध आस्था तो उन्हें अपने पुरखों से विरासत में मिली थी। तुम लोगों तक भी उन्होंने इस परंपरा के बीज डाले हैं। मैंने पूछा- क्या अभिषेक भी इन परंपराओं को निभाएँगे?
अमिताभ बोले-'हाँ जरूर निभाएँगे। निभाते हैं। आप तो कई बार पूजा पर हमारे घर आई हैं। आपने देखा होगा, माँ और बाबूजी पूजा का पाखंड नहीं करते थे- हमारा अपना एक अलग ढंग होता है, जिसमें रामचरित मानस का सब मिलकर पाठ जरूर करते हैं। ये हमारी व्यक्तिगत आस्था है- अच्छा लगता है। समस्त परिवार मिलकर प्रार्थना करे तो पारिवारिक यूनिटी की एकाग्रता भी मिलती है। फैमिलीज दैट प्रे टुगैदर स्टे टुगैदर। इस बात में हम सब आस्था रखते हैं। अभिषेक भी रखते हैं- आगे भी जरूर रखते रहेंगे।'
मैंने पूछा- अमित, कहाँ तो भक्ति और आस्था की परंपराएँ और कहाँ फिल्मी जीवन! यह बताओ, बच्चनजी ने तुम्हारी कौनसी फिल्म सबसे पहले देखी थी। क्या प्रतिक्रिया थी उनकी?
आँखों में संतोष और कुछ-कुछ गर्व का सा भाव लेकर अमिताभ बोले- 'बाबूजी ने मेरी सभी फिल्में देखीं। शुरू से लेकर अंत तक एक-एक। भले ही मेरे साथ न देख पाए हों तो भी अलग से समय निकालकर देख आते थे। अपने मित्रों में फिल्म का प्रचार भी करते थे- फलाँ फिल्म देखने जरूर जाना, अमित ने अच्छा काम किया है।'
जब अस्वस्थ थे, तो प्रतिदिन शाम को मेरी एक फिल्म वीडियो या डीवीडी मँगवाकर देखा करते थे। कई फिल्में चार-पाँच बार भी देखा करते थे। हाल ही की मेरी फिल्में उन्हें ज्यादा पसंद नहीं आती थीं। आलोचना नहीं करते थे, बस हल्के से कहते थे- 'बेटा कुछ समझ में नहीं आई!' मैं समझ जाता था, वे क्या कहना चाह रहे थे।
एक बार फिर आँखें बंद करके कहीं गहरे डूबकर अमित बोले- 'याद है पुष्पाजी, सब कुछ याद है! इंसान अपने जीवन में कितना भी कमा, खा ले- अपनी जड़ें या अपने अतीत को वह नहीं भूलता। मैं जानता हूँ कि मैं कहाँ पैदा हुआ, किन परिस्थितियों में मेरे माता-पिता ने मुझे पाला और बड़ा किया। और मैं ये भी जानता हूँ कि थोड़ा-बहुत जो आज हमारे पास है यदि कल अगर न भी हो तो मुझे कोई मलाल नहीं होगा। मेरे माता-पिता मुझे पैदा होने के बाद अस्पताल से एक गुदड़ी में लपेटकर ताँगे में घर लाए थे। मैं उन्हीं परिस्थितियों में फिर वापस जा सकता हूँ और खुश रहूँगा।
ईश्वर की कृपा रही है, बड़ों का आशीर्वाद रहा है। मटीरियल कम्फर्ट्स, दुनियावी सुख-सुविधाएँ अपनी जगह होती हैं। वे आती-जाती रहती हैं। लेकिन हमारा अतीत कहीं नहीं जाएगा। कल अगर मुझे जमीन पर सोना पड़े या सड़क पर सोना पड़े, विश्वास मानिए मैं सो जाऊँगा। ईश्वर ने बहुत कुछ दिया है मुझे। अगर कल मुझे और कुछ न मिले, तो मैं समझ लूँगा कि मेरे खाते में इतना ही लिखा था और अगर कल सब कुछ चला भी जाए तो मैं मान लूँगा कि मेरे साथ ऐसा ही होना था।
मैंने कहा- अभी पाँच बरस पहले के अमिताभ को मैंने देखा और जाना है- मैं तुम्हारी इस विचारधारा की सचाई को बखूबी समझ सकती हूँ। यह भी जानती हूँ कि तुम्हारे चरित्र की, तुम्हारे मानसिक शरीर की रीढ़ की हड्डी बाबूजी ही थे। उनके जाने के बाद तुमने खुद कोकैसे संभाला?
अमिताभ की बहुत बड़ी विशेषता है कि वे कभी विचलित नहीं होते हैं। उसी आत्मविश्वास से बोले- 'अच्छे-बुरे वक्त में अपने को कैसे संभालना चाहिए जैसी बातें बाबूजी कभी शब्दों में नहीं बताते थे। बस उनकी खुद की जीवनशैली देखकर, उनकी जब-तब कही कुछ बातों को जोड़कर हमने जान लिया था कि उनकी विचारधारा ऐसी थी कि कर्म करते रहना चाहिए फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। भले ही देर से मिले, पर फल मिलता जरूर है। और फिर फल मिले तो अच्छा, न मिले तो और भी अच्छा। हमें तो बस अपनी क्षमता पर विश्वास रखना और मेहनत करने सेकभी न चूकना चाहिए।'
बाबूजी से यही सीखा है मैंने। अविराम श्रम की साधना जीवन भर करता रहूँगा। बाबूजी और माँ के आशीर्वाद से अभी तक तो यही स्थिति है कि न तो ग्लानि से मेरे नयन नीचे हैं, न ही अपनी उपलब्धियों के घमंड से हर्ष से मेरा हृदय फूल गया है। ईश्वर की कृपा रही तो आगेभी यही स्थिति रहेगी।
देखिए, हम फिल्मी कलाकारों का क्या है आज सबने सिर आँखों पर बिठाया हुआ है, कल कोई हमसे बेहतर कलाकार आ जाएगा तो वे हमें भुला भी सकते हैं, पर साहित्य में ऐसा नहीं होता न। सूर, तुलसी, कबीर आज भी जिंदा हैं। प्रेमचंद, प्रसाद, निराला कल भी पूजे जाएँगे। मेरे बाबूजी भी साहित्याकाश में एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह हमेशा चमकते रहेंगे। यह मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य है कि मैंने उन्हें पिता के रूप में पाया।