संघर्ष : दलित जीवन का यथार्थ

कृष्ण कुमार भारती
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'संघर्ष' डॉ. सुशीला टाकभौरे का तीसरा कहानी-संग्रह है। इससे पूर्व उनके दो कहानी-संग्रह 'अनुभूति के घेरे' व 'टूटता वहम' प्रकाशित हो चुके हैं। दलित लेखन में विशिष्ट पहचान बना चुकी सुशीला जी की विभिन्न विधाओं में दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सुश्री सुशीला का यह कहानी-संग्रह दलित जीवन के यथार्थ को उदघाटित करता है। डॉ. सुशीला का मानना है कि दलित वर्ग का समुचित विकास न होने का कारण सही मार्गदर्शन का अभाव है। वे दलितोत्थान में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा की संलग्नता अनिवार्य मानती हैं।

इन कहानियों के पात्र संघर्षशील हैं। वे परिस्थितियों के गुलाम न बनकर उनको परिवर्तित करना चाहते है। वे एक तरफ जहाँ सवर्ण मानसिकता से विद्रोह करने को आमादा हैं वहीं अपने पूर्वजों के सामने भी अनेक प्रश्न उपस्थित करते हैं। वे अपनी दीन-हीन अवस्था पर आँसू नहीं बहाते अपितु उन कारणों की खोज में लगे हैं जिनके कारण वे इस प्रकार का लज्जाजनक जीवन जीने को अभिशप्त हैं। प्रगति और परिवर्तन के लिए विद्रोह की चिन्गारी उनके हृदय में सुलग रही प्रतीत होती है।

दलितों के जीवन का यथार्थ इन कहानियों में व्यक्त हुआ है विशेषतः महाराष्ट्र के दलितों की पीड़ा का रेखांकन इन कहानियों में है। लेखिका का भरपूर प्रयास रहा है कि संग्रह की कहानियाँ दलित युवा वर्ग में युगीन सत्यों का सामना करने का उत्साह व शक्ति का संचार करे। वे अपने वर्ग की कमजोरियों को चिन्हित कर शोषण, अन्याय, अपमान और दमन के विरुद्ध संगठित होकर जातिवाद व अस्पृश्यता का सफाया करने का प्रयत्न करें।

दलितों के प्रति सवर्णों के दोगले व्यवहार को 'छौआ माँ' शीर्षक कहानी प्रस्तुत करती है। जरुरत के समय जो सवर्ण समाज दलितों से मीठी-मीठी बातें करता है वही कार्य निकल जाने पर उनकी शक्ल-सूरत तो क्या परछाईं से भी परहेज करने लगता है।

'सवा महीना होते ही बच्चा और जच्चा शुद्ध-पवित्र हो जाते हैं फिर छौआ माँ तो क्या, उसकी छाँह भी उन्हें नहीं छू सकती।'

सामंतवादी शक्तियाँ अपनी सत्ता को खोते हुए देखकर किस प्रकार आक्रोशित व आतंकित होती है इसका स्पष्ट चित्रांकन 'चुभते दंश' कहानी में हुआ है। शीर्षक कहानी 'संघर्ष' का शंकर तमाम संघर्षों के बाद अंततः विजयी होता है। अंतिम कहानी 'दमदार' संग्रह की सबसे कमजोर कहानी है। सुमन और जग्गू पहलवान के प्रसंग में पाठकों की सहानुभूति सुमन के साथ नहीं है। वह साहसी है परंतु चरित्र से कमजोर है।

लेखिका इन कहानियों में न केवल सवर्ण मानसिकता के छोटेपन को उजागर करती हैं अपितु दलित वर्ग की आदतों व कमजोरियों से भी परिचय करवाती हैं। वे दलितोत्थान के लिए अम्बेडकरी विचारधारा पर बल देते हुए कहती हैं कि हमें हमारी गलत व गंदी आदतों का परित्याग कर शिक्षा व रोजगार के अवसरों को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। आर्थिक विपन्नता, सामाजिक असमानता, अनपढ़ता, अंधविश्वास, नशाखोरी दलितों के पिछड़ेपन के मुख्य कारण हैं।

  इन कहानियों के पात्र संघर्षशील हैं। वे परिस्थितियों के गुलाम न बनकर उनको परिवर्तित करना चाहते है। वे एक तरफ जहाँ सवर्ण मानसिकता से विद्रोह करने को आमादा हैं वहीं अपने पूर्वजों के सामने भी अनेक प्रश्न उपस्थित करते हैं।      
संग्रह की लगभग सभी कहानियों के पात्र संघर्षरत हैं। कहीं यह संघर्ष शिक्षा और रोजगार के लिए है तो कहीं समाज में समानता व बराबरी का दर्जा पाने के लिए। कहीं यह संघर्ष अपनी परंपरागत विडम्बनाओं से मुक्ति के लिए है तो कहीं जातिवादी कुप्रथाओं के विरूद्ध। कुल मिला कर कहानियाँ आश्वस्त करती है दलित स्वर लेखनी के माध्यम से मुखरित होने लगे हैं।
पुस्तक : संघर्ष (कहानी संग्रह)
लेखिका : डॉ. सुशीला टाकभौरे
प्रकाशक : शरद प्रकाशन नागपुर-22
मूल्य : 100रुपए
पृष्ठ : 136