कबीर : ख़‍िराजे-अक़ीदत (श्रद्धांजलि)

सहबा जाफ़री
ND
हर एक लफ्ज़ जो अपने लहू से धोते हैं
हर एक हर्फ़ को खुशबू में फिर भिगोते हैं

न हो मुश्क(गंध/महक) तो मुअत्तर(भीगा) है ये पसीने से
इन्हीं के दम से ज़माने ज़माने होते हैं


इन्हीं के नाम से जिन्दा है ताबे-हिन्दुस्ताँ(हिन्दुस्तान की चमक)
इन्हीं के नाम नए सूरज उजाले बोते हैं

जो लब खुलें तो पलट दें ये कायनात का नक्शा
जो उठ गए तो नक्शे पे मीर होते हैं

यहाँ कहाँ जरूरत नए पयम्बर की
यह वो जमीं है जहाँ नाज़‍िल कबीर होते हैं।

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