तुम्हारी यादों की पुरवाई

हां, बंद कर दी हैं मैंने
अपने खयालों की वह खिड़की,
जो लाती थी रोज रात को
तुम्हारी यादों की पुरवाई,

एक मीठा-ठंडा झोंका आता
और ो जाती थी मैं
तुम्हारे गुलाबी-नर्म सपनों में,

आज1 जनवरी 2012 की शाम
बंद कर रही हूं उसे मैं
कभी ना खोलने के लिए,

अब इस खिड़की से
तुम्हारी यादें नहीं आ सकती
क्योंकि
इस स्मृति-बयार के साथ
आने लगे थे
तुम्हारे रंग बदलते
पतझड़ के पीले पत्ते,
खोखले शब्दों की सूखी टहनियां,
फीके बहाने,
हल्के आरोप,
दूरियों को बाध्य करती उकताहट की धूल,
व्यंग्य के शूल,

हां, अब बंद कर दी हैं मैंने
खयालों की वह खिड़की,
जिससे आती थी
तुम्हारी यादों की पुरवाई
और बातों की पछुआ...!

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