विवेकानंद की श्रीरामकृष्ण से पहली भेंट

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दक्षिणेश्वर में हुई श्रीरामकृष्ण तथा नरेंद्र के बीच पहली भेंट अत्यंत महत्वपूर्ण थी। श्रीरामकृष्ण ने क्षणभर में ही अपने भावी संदेशवाहक को पहचान लिया। नरेंद्रनाथ अपने साथ दक्षिणेश्वर को आए अन्य नवयुवकों से बिल्कुल भिन्न थे।

उनका अपने कपड़ों तथा बाह्य सज्जा की ओर जरा भी ध्यान न था। उनकी आँखें प्रभावशाली तथा अंशत: अंतर्मुखी थीं, जो उनके ध्यानतन्मयता की द्योतक थीं। उन्होंने पहले के समान ही अपने हृदय की पूर्ण भावुकता के साथ कुछ भजन गाए।

उनके पहले भजन का भावार्थ निम्नलि‍खित था -

मन! चल घर लौट चलें!
इस संसार रूपी विदेश में
विदेशी का वेश धारण किये
तू वृथा क्यों भटक रहा है?
सौंदर्य, रूप, रस, गंध, स्पर्श - इंद्रियों के ये पाँच विषय
तथा आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ये पंचभूत
इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं, सभी पराये हैं।
तू क्यों व्यर्थ ही पराये प्रेम में पड़कर
अपने प्रियतम को भूला जा रहा है?
रे मन! तू सदा सत्य के पथ पर बढ़े जाना,
प्रेम का दीप जलाकर अपना पथ आलोकित कर लेना,
साथ में सम्बल के रूप में
भक्ति रूपी धन को खूब सहेजकर ले जाना!
राह में लोभ मोह आदि डाकू बसते हैं,
जो मौका पाकर पथिकों का सर्वस्व लूट लेते हैं,
इसलिए तू अपने साथ
शम और दम रूपी दो पहरेदारभी लेते जाना।
मार्ग में साधुसंग रूपी धर्मशाला पड़ती है,
थक जाने पर उसमें विश्राम कर लेना,
यदि तू कहीं पथ भूल जाए,
तो इस आश्रम के निवासी तेरा मार्गदर्शन करेंगे।
पथ में यदि कहीं कोई भय का कारण दिख पड़े
तो पूरे हृदय से राजा की दुहाई देना
क्योंकि उस पथ पर राजा का बड़ा दबदबा है,
यहाँ तक कि यम भी उनसे भय खाते हैं।

गाना समाप्त हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने सहसा नरेंद्र का हाथ पकड़ लिया और उन्हें उत्तरी बरामदे में ले गए। उनके गालों से होकर आँसुओं की धार बहती देखकर नरेंद्र के विस्मय की सीमा न रही। श्रीरामकृष्ण कहने लगे - 'अहा! तू इतने दिनों बाद आया! तू बड़ा निर्मम है, इसलिए तो इतनी प्रतीक्षा करवाई।

विषयी लोगों की व्यर्थ बकवास सुनते-सुनते मेरे कान झुलस गए हैं। दिल की बातें किसी को न कह पाने के कारण कितने दिनों से मेरा पेट फूल रहा है! फिर हाथ जोड़ते हुए बोले - 'मैं जानता हूँ प्रभु, आप ही वे पुरातन ‍ऋषि, नररूपी नारायण हैं, जीवों की दुर्गति नाश करने को आपने पुन: शरीर धारण किया है।' बुद्धिवानी नरेन ने इन वाक्यों को एक उन्मादी का बकवास समझा। फिर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे से कुछ मिठाइयाँ लाकर उन्हें अपने हाथों से खिलाने पर वे और भी विस्मित हुए। परंतु ठाकुर ने उनसे पुन: दक्षिणेश्वर आने का वचन लेकर ही छोड़ा।

पुन: कमरे में लौटने के बाद नरेन ने उनसे पूछा - 'महाराज, क्या आपने ईश्वर को देखा है?' द्विधाहीन उत्तर मिला - 'हाँ, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है। तुम लोगों को जैसे देख रहा हूँ, ठीक वैसे ही बल्कि और भी स्पष्ट रूप से।

ईश्वर को देखा जा सकता है, उनसे बातें की जा सकती हैं, परंतु उन्हें चाहता ही कौन है? लोग पत्नी-बच्चों के लिए, धन-दौलत के लिए घड़ों आँसू बहाते हैं, परंतु ईश्वर के दर्शन नहीं हुए इस कारण कौन रोता है? यदि कोई उन्हें हृदय से पुकारे तो वे अवश्य ही दर्शन देंगे।'

नरेंद्र तो अवाक् रह गए। वे जीवन में प्रथम बार एक ऐसे व्यक्ति के सम्मुखीन हुए थे जो ईश्वरानुभूति का दावा कर सकते थे। वस्तुत: वे जीवन में प्रथम बार सुन रहे थे कि ईश्वर का दर्शन संभव है। उन्हें ऐसा लगा कि श्रीरामकृष्ण अपनी आंतरिक अनुभूतियों की गहराई से बोल रहे हैं।

उनकी बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। तथापि इन बातों के साथ अभी थोड़ी ही देर पूर्व देखे हुए उनके विचित्र व्यवहार का सामंजस्य न कर सके। फिर दूसरों के सामने श्रीरामकृष्ण का सामान्य व्यवहार भी नरेंद्र के लिए एक बड़ी पहेली थी।

उस दिन वह युवक किंकतर्व्यविमूढ़ होकर घर लौटा, तथापि उसके अंतर में शांति विराज रही थी।

श्रीरामकृष्ण के पास द्वितीय बार आने पर नरेंद्र को और भी विचित्र अनुभव हुए। उनके आगमन के दो-चार मिनट बाद ही वे उनकी ओर बढ़ने लगे तथा अस्पष्ट स्वर में कुछ कहते हुए उनकी ओर देखने लगे, फिर सहसा अपना दाहिना पैर उनके शरीर पर रख दिया। इस स्पर्श के साथ ही नरेंद्र ने खुली आँखों से देखा कि कमरे की दीवारें, मंदिर का उद्यान और यहाँ तक कि पूरा विश्व ब्रह्मांड ही घूमते हुए कहीं विलीन होने लगा। उनका अपना 'अहं' भाव भी शून्य में ‍लय होने लगा। उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि मृत्यु आसन्न है। आतंकित होकर वे चिल्ला उठे - 'अजी, आपने मेरा यह क्या कर दिया? घर में माँ-बाप, भाई-बहन जो हैं!' श्रीरामकृष्ण इस पर खिलखिलाकर हँस पड़े और नरेन का सीना स्पर्श कर उनका मन सामान्य भूमि पर लाते हुए बोले - 'अच्छा, तो अभी रहने दे। समय आने पर सब होगा।'

नरेन बिल्कुल ही परेशान होकर सोचने लगे कि हो न हो इन्होंने अवश्य ही मेरे ऊपर सम्मोहन विद्या का प्रयोग किया है। परंतु ऐसा भला संभव ही कैसे हो सकता है! क्योंकि नरेन को अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का बड़ा अभिमान था। उन्हें स्वयं पर ग्लानि भी हुई कि मैं एक ऐसे उन्मादी व्यक्ति के प्रभाव से अपने को बचा न सका। तथापि वे रामकृष्ण के प्रति आं‍तरिक आकर्षण का अनुभव करने लगे थे।

तीसरी बार आने पर नरेन ने यथासंभव सावधान रहने का प्रयास किया, परंतु इस बार उनकी हालत काफी कुछ पूर्ववत ही हुई। श्रीरामकृष्ण नरेन को साथ लेकर पड़ोस के एक उद्यान में टहलने चले गए और भाव समाधि की अवस्था में उन्हें स्पर्श किया। नरेन पूर्वरूप से अभिभूत होकर बाह्यचेतना खो बैठे।

इस घटना का उल्लेख करते हुए बाद में श्रीरामकृष्ण ने बताया ‍था कि उस दिन नरेन को अचेतन अवस्‍था में ले जाकर मैंने उसके पूर्व जीवन के बारे में अनेक बातें, जगत में आने का उसका उद्देश्य तथा जगत में उसके निवास की अवधि आदि पूछ लिया था। नरेन के उत्तर से उनके पूर्व के विचारों की ही पुष्टि हुई थी। श्रीरामकृष्ण ने अपने दूसरे शिष्यों को बताया था कि नरेन अपने जन्म के पहले से ही पूर्णता की उपलब्धि कर चुका है, वह ध्यानसिद्ध है ;

और जिस दिन उसे अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाएगा, उस दिन वह योगमार्ग से स्वेच्छापूर्वक देह त्याग देगा। बहुधा वे कहते कि नरेन ब्रह्मलोक के निवासी सप्तऋषियों में अन्यतम है।

एक दिन जब श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हुए तो उनका मन ऊपर ही ऊपर उठता चला गया। चंद्र, सूर्य एवं नक्षत्रखचित इस स्थूल जगत को पार करता हुआ वह क्रमश: विचारों के सूक्ष्म जगत में प्रविष्ट हुआ। धीरे-धीरे देवी देवताओं की भावघन मूर्तियाँ भी पीछे छूटती गईं। फिर उनके मन ने नामरूपात्मक ब्रह्माण्ड की सीमा पारकर, अंतत: अखंड के राज्य में प्रवेश किया।

श्रीरामकृष्ण ने देखा वहाँ सात दिव्य ऋषि बैठे गहन ध्यान में डूबे हुए हैं। ये ऋषि ज्ञान और पवित्रता में देवी-देवताओं से भी आगे पहुँचे हुए प्रतीत हो रहे थे। श्रीरामकृष्ण का मन उनकी इस अपूर्व आध्यात्मिकता पर विस्मित ही हो रहा था कि उन्होंने देखा कि उस समरस अखंड का एक अंश मानो घनीभूत होकर एक देवशिशु के रूप में परिणत हो गया। वह बालक अतीव मृदुतापूर्वक एक ऋषि के गले में बाँहें डालकर उनके कान में कुछ कहने लगा। उसके जादू भरे स्पर्श से ऋषि का ध्यान भंग हुआ।

उन्होंने अपने अर्धनिमीलित नेत्रों से शिशु की ओर देखा। शिशु ने अतीव प्रफुल्लतापूर्वक कहा, 'मैं पृथ्वी पर जा रहा हूँ, तुम भी आओगे न?' ऋषि ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा पुन: अनपे गहन ध्यान में डूब गए।

श्रीरामकृष्ण ने विस्मयपूर्वक देखा कि उन्हीं ऋषि का एक सूक्ष्म अंश आलोक के रूप में पृथ्वी पर उतरा तथा कलकत्ते के दत्त भवन में प्रविष्ट हुआ। जब श्रीरामकृष्ण ने पहली बार नरेन को देखा तो उन्हें ‍उन्हीं ऋषि के अवतार के रूप में पहचान लिया। फिर उन्होंने यह भी बताया कि उन ऋषि को इस धराधाम पर उतार लाने वाले देवशिशु वे खुद ही थे। नरेंद्रनाथ का श्रीरामकृष्ण से मिलन दोनों के ही जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी।

(क्रमश:)

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