पार्थ को बोधित किया परपूज्य परमधाम ने, संसार से मुक्त सिद्धों के सर्वोत्तम ज्ञान से। इस ज्ञान का आधार ले मनुज भगवत्तुल्य हो जाते हैं, सृजन और संहार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
ब्रह्मरूपी जिस बृहत् योनि में सचराचर ब्रह्माण्ड है, वही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का स्थान है। संसार की सब योनियों में जीव जो विद्यमान हैं, उनके मूल और बीज में स्वयं श्रीकृष्ण परमधाम हैं।
अजर अविनाशी जीव को नश्वर देह से जकड़े तीन गुण हैं, सत्त्व, रजस् और तम्, ये प्रकृति से ही उत्पन्न हैं। अविकारी निर्मल ज्योतिर्मय सत्त्व बांधता है नर को, सुख संबंधों से, ज्ञान से, दर्पोङ्कार से।
फलासक्ति भी कर्मबद्ध करती है नर को, रज से उद्भव तृष्णा और इच्छाओं की पहचान है यह। अज्ञान और मोह से उत्पन्न तम जकड़ता है काया, अकर्मण्यता से, प्रमाद से, आलस्य और निद्रा से।
सत्त्व सुख में, रज कर्म के पाश में नर को बांधता है, ज्ञान को ग्रस तम भी प्रमाद में नर को बांधता है। त्रिगुणों में परस्पर वैमनस्य और स्पर्धा होती सर्वदा, दो को परास्त कर ही तीसरा उभरता है सदा।
ज्ञान और विद्या की लौ से नवद्वारों को कर ज्योतिर्मय, सुषुप्त चैतन्य को जागृत करे मात्र सत्त्व ही। स्वार्थोत्पन्न लोभ और अतृप्त लालसा जब कर्म के कारक बनें, रजोगुण की प्रबलता को सहज ही पहचान लें।
तिमिरान्धकार जब इन्द्रियों को जकड़े, मोह और प्रमाद सर्वत्र फूले-फले, तमोगुण की व्याप्ति को सहज ही पहचान लें। सत्त्व की पराकाष्ठा में जो नर देह का निष्कास करें, उत्तम लोकों में परिशुद्ध यतियों की संगति को प्राप्त करें।
महत्वाकांक्षाओं में जो हो निर्देह, आसक्त मनुष्यों में जन्म लें, तमोन्धकार में देह तज, पशु कीट-पतंगों में जन्म लें। कर्मफल सर्वस्व गुणानुकूल रहते हैं सदा, सत्त्वफल निर्मल, रज दुखद्, तम अन्धकारमय सदा।
सत्त्व से उपजे ज्ञान, रज् से अतृप्त लालसा, तम से केवल उपजे प्रमाद, मोह, अज्ञान सदा। त्रिगुणों के गंतव्य पृथक् और गरिमा भिन्न हैं सदा, उपरोन्मुख सत् श्रेयस्कर है, रज मध्यम, तम निंदनीय सदा।
नर जब द्रष्टा बन जाता है कर्म गुणों से परे हो जाते हैं, प्रकृति को ब्रह्ममय जो पहचाने उस परम तत्व में जा के मिले। देहोत्पन्न त्रिगुणों को जो नर सहज भाव से लांघ सके, जीवन-मरण जरा से उन्मुक्त अमृतत्व का पान करे।
हे प्रभु इन गुणों से मुक्ति का मार्ग आप हमें प्रदर्शित करें, उन्मुक्त पथिकों के स्वभाव और आचरणों से हमें अवगत करें। प्रभु बोले सुन अर्जुन गुणातीत वह स्थिर नर है, जो ब्रह्मलीन हो द्रष्टा बन, इनके आने-जाने पर अविचल है।
दु:ख में सुख में गुणातीत सम, कंचन प्रस्थर, धूल समान, प्रियों और अप्रियों में सुस्थिर, स्तुति और निंदा एक समान। जिनको मान अपमान समान, मित्र और शत्रु एक समान, करके कर्तृत्व का परित्याग गुणातीत कहलाते महान।
प्रेमभक्ति से जो श्रद्धालु ईश्वर का अनन्य स्मरण करें, गुणबन्धन को लांघ सुनिश्चित ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनें। उस परमब्रह्म में स्थापित हो, अविनाशी अमृतत्त्व का पान करे, उस शाश्वत आनंदमय सुख का, श्रीकृष्ण मात्र एक आश्रय हैं।