'तेरे दिमाग में तो गोबर भरा है रे..., तू तो पूरा ढक्कन है रे...!, क्या तू घास खाता है...?, तू तो पूरा पागल है..., तेरा मार-मारकर भुर्ता बना दूंगा, बड़ा होकर तू चपरासी भी बन जाए तो अपने को खुशकिस्मत समझ लेना...' इस प्रकार के कुछ वाक्य प्राय: हम कुछेक घरों में अभिभावकों द्वारा बच्चों को बोलते हुए सुनते हैं। इस प्रकार की भाषा का प्रयोग अनुचित है। इससे बच्चा कुंठित होता है तथा उसका आत्मविश्वास डगमगाता है तथा वह पढ़ाई तथा जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जाता है। बच्चों का आत्मविश्वास कैसे बढ़ाया जाए तथा उसका व्यक्तित्व कैसे निखारा जाए, आइए हम देखते हैं : -
शालीन भाषा का प्रयोग करें
बच्चों से हम हमेशा शालीन भाषा का प्रयोग करते हुए ही वार्तालाप करें। इससे बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। हमको हमेशा बच्चों से मित्रवत् व्यवहार ही करना चाहिए, न कि शत्रुवत्। जैसा हम आचरण करते हैं, बच्चे भी वैसा ही सीखकर अपने व्यवहार में ढालते हैं अत: शालीनता सर्वोपरि है। यह तयप्राय: है कि जैसी भाषा का हम बार-बार प्रयोग करते हैं, वैसी की वैसी ही भाषा एक विज्ञापन ( मनोविज्ञान) के प्रचार अभियान की तरह बच्चों के मन-मस्तिष्क में घर करती जाती है तथा बच्चा धीरे-धीरे उसे ही सच मानने लग जाता है एवं उसकी वास्तविक प्रतिभा कहीं खो-सी जाती है अत: उसे कुंठित न करें।
ढीठ न बनाएं बच्चों को
ज्यादा डांटने-फटकारने, मारने-पीटने से बच्चा ढीठ बन जाता है फिर उस पर किसी बात का असर नहीं होता है, क्योंकि उसे पता रहता है मैं अच्छा या बुरा जो भी करूं, बदले में मुझे डांट-फटकार ही मिलेगी, प्यार-दुलार नहीं। ऐसी स्थिति में बाद में आगे चलकर बच्चा विद्रोही बन जाता है, जो कि समाज के लिए काफी घातक सिद्ध होता है।
इतिहास में....
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इतिहास में इसके उदाहरणस्वरूप सद्दाम हुसैन (इराक), माइक टाइसन (अमेरिका) तथा एडोल्फ हिटलर (जर्मनी) आदि तानाशाहों के नाम लिए जा सकते हैं। यह बचपन में प्यार-दुलार के अभाव में विद्रोही बन गए थे तथा इनका इतिहास सबको पता है।
फूल-सा कोमल दिल होता है बच्चों का
बच्चों का दिल फूल-सा कोमल होता है। इसे कटाक्ष तथा तीखे व्यंग्य-बाणों से कुचलना नहीं चाहिए। उन्हें प्यारभरी मुस्कुराहट के साथ समझाना चाहिए। बच्चे कच्ची मिट्टी के लौंदे के समान होते हैं। उन्हें जिस आकार में घड़ोगे वह उसी समान हो जाते हैं अत: श्रेष्ठ संस्कारों की नींव ही बच्चों में बचपन से ही डालनी चाहिए ताकि आगे चलकर यह बच्चे समाज के श्रेष्ठ नागरिक बनें।
अलग-अलग मनोविज्ञान
बच्चे और बड़ों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है। मनोविज्ञान यानी सोचने-समझने- विचारने का तरीका। अगर बड़े यह सोचें कि बच्चे भी मेरा ही अनुसरण करें व मेरी ही दिखाई राह पर चलें, व मेरे जैसा ही बने तो यह बड़ों का हठाग्रह व दुराग्रह ही कहा जाएगा। चूंकि बड़े समयानुसार अनुभव व परिपक्वता से लबरेज होते हैं अत: बच्चों से भी वही अपेक्षाएं करना नितांत ही गलत कहा जाएगा। स्वयं 'अपने जैसा' बच्चों को बनाने का हठीला प्रयास ना करें। यह एक प्रकार से बच्चों पर अन्याय ही कहा जाएगा।
स्मरण रहे, महान राजनेता व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पुत्र हरिलाल की विचारधारा बापू के एकदम विपरीत थी। उन्हें बापू का हठीलापन पसंद नहीं था। किंतु दूसरी ओर यह बात भी सत्य है, सत्य की राह पर चलने वाले बापू के बारे में कि उनका हठीलापन लोक-कल्याण के लिए था, न कि स्व-कल्याण के लिए। लेकिन जरूरी नहीं कि हर महान व्यक्ति की संतान भी उसकी ही तरह सोचे व महान बने। हां, इसका प्रयास हो सकता है, किंतु 'कार्बन-कॉपी' तो कतई संभव नहीं।
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जन्म से सीखकर नहीं आता
कोई भी बच्चा जन्म से ही सबकुछ सीखकर नहीं आता है। उसे तो वातावरण में जो कुछ देखने-सुनने, सोचने-समझने को मिलता है तद्नुसार ही वह आचरण करता है। अगर उसे बचपन से ही श्रेष्ठ माहौल व आचरण देखने-सुनने को मिलेगा तो वह भी उसी प्रकार का आचरण करेगा। बच्चों को श्रेष्ठ वातावरण व आचरण देने में मां की महत्वपूर्ण भूमिका होती है अत: माता का आचरण श्रेष्ठ होना नितांत ही जरूरी है। अच्छे दोस्तों की संगति दें
बच्चे और खेलकूद... ये दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। छोटे से लगाकर बड़े बच्चों तक को खेलकूद काफी पसंद आता है। उन्हें उनके अच्छे दोस्तों के साथ खेलकूद के लिए प्रेरित करना चाहिए। खेलकूद से उनका मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही उनमें प्रतिस्पर्धी भावना का भी विकास होता है। इससे उनका शारीरिक विकास तो होता ही है, उनका मानसिक विकास भी होता है तथा वे तनावमुक्त भी होते हैं व पढ़ाई में भी अग्रणी रहते हैं।
'पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब' ऐसा कहना पूर्णतया ठीक नहीं कहा जा सकता है। कई खिलाड़ियों की ओर अगर हम नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि उन्होंने खेलों के माध्यम से काफी मान व माल कमाया है। इनकी दौलत व शोहरत को देखकर नौकरी वाले भी 'शरमा' सकते हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन का उदाहरण
परमाणु ऊर्जा व परमाणु बम के जनक यहूदी अल्बर्ट आइंस्टीन अपनी क्लास में सबसे फिसड्डी छात्र के रूप में जाने जाते थे। वे प्राय: गणित विषय में फेल हो जाया करते थे। उनके शिक्षक व सहपाठी उन्हें काफी चिढ़ाते थे कि 'तू तो निरा बुद्धू है रे। आगे जाकर क्या करेगा?' आदि-आदि। किंतु अल्बर्ट आइंस्टीन की भौतिक विज्ञान में गहरी रुचि थी। इन्होंने E=mc2 सिद्धांत के आधार पर परमाणु ऊर्जा व परमाणु बम का आविष्कार किया था।
इतिहास की घटना के अनुसार जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर द्वारा यहूदियों पर किए जा रहे अत्याचार से तंग आकर वे अमेरिका चले गए तथा अपनी भौतिक विज्ञान मेधा का वहां प्रयोग करने लगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि परमाणु बम तथा परमाणु ऊर्जा (बिजलीघर) का निर्माण जिस सिद्धांत के आधार पर होता है, उसके जनक अल्बर्ट आइंस्टीन ही थे।
उपरोक्त उदाहरण बताने का उद्देश्य यह है कि यह कोई जरूरी नहीं है कि बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर, सीए आदि ही बने। यह हठाग्रह ठीक नहीं है। बच्चे की जिस विषय में रुचि हो, उसे उसमें ही प्रोत्साहित करना चाहिए। आर्ट विषय लेकर दर्शनशास्त्री बनने की इच्छा रखने वाले बच्चों को जबरदस्ती डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे तो उनका व्यक्तित्व ही कुंठित होगा।
अब्राहम लिंकन का उदाहरण
अब्राहम लिंकन का बचपन घोर गरीबी में बीता। उनके पास जरूरी पाठ्य सामग्री भी नहीं हुआ करती थी, किंतु लगन व प्रतिभा के धनी लिंकन कोयले से दीवार या सड़क पर लिखकर याद करते थे। रात में सड़क-बत्ती की रोशनी में पढ़ते थे। उन्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिलता था। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे राजनीति में आए तथा राष्ट्रपति का चुनाव अनेक बार लड़ा, किंतु वे कई बार असफल रहे। अंतत: वे राष्ट्रपति चुनाव जीतने में कामयाब रहे।
इस उदाहरण से पता चलता है कि असफलता भी व्यक्ति के जीवन में लगी रहती है। अत: कमजोर व असफल होने वाले बच्चों को बार-बार डांटना-फटकारना व प्रताड़ित नहीं करना चाहिए, वरन् उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। चाचा नेहरू
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू बच्चों को बहुत प्यार करते थे। वे कहते थे कि 'बच्चे बगिया में खिले फूलों की तरह हैं। उन्हें कुचलना नहीं चाहिए।' बच्चों से अटूट प्यार के कारण ही नेहरूजी का जन्मदिन (14 नवंबर को) बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। बच्चे उन्हें प्यार से 'चाचा' कहकर पुकारते थे, इसलिए वे बच्चों के 'चाचा नेहरू' बन गए।
उपरोक्त प्रकार की कुछ चुनिंदा बातों का हम अगर ध्यान रखें तो हम अपने बच्चों को एक श्रेष्ठ नागरिक बना सकते हैं। अत: उनका व्यक्तित्व निखारने हेतु हर माता-पिता को प्रयास करना चाहिए न कि कुंठित करने का। स्मरण रहे, बच्चों में श्रेष्ठ संस्कारों की नींव बचपन में ही डाली जाती है एवं डाली जा सकती है तत्पश्चात बड़े होने पर संस्कारों का बीजारोपण असंभव नहीं तो कठिन जरूर है अत: बचपन से ही बच्चों में श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण करें ताकि वे भावी नागरिक के रूप में देश के श्रेष्ठ नागरिक बनें।