पूजा पाठ व जप-अनुष्ठान हमारी धार्मिक परंपरा का अभिन्न अंग हैं। सनातन धर्मावलंबियों के लिए पूजा-पाठ करना अनिवार्य है। सनातन धर्म में अधिकांश पूजा-पाठ व अनुष्ठान ब्राह्मणों के माध्यम से ही संपन्न कराए जाते हैं। शास्त्रानुसार किसी भी अनुष्ठान से पहले उस अनुष्ठान को करने वाले आचार्य व विप्रों का वरण करना आवश्यक होता है।
यहां 'विप्र-वरण' से आशय उस अनुष्ठान को करने वाले आचार्य का चयन कर उन्हें अनुष्ठान संपन्न कराने का संपूर्ण दायित्व प्रदान करने से है। किंतु शास्त्र में किसी भी ब्राह्मण को अनुष्ठान के लिए वरण योग्य नहीं माना गया है। शास्त्रानुसार ग्रह शांति व अनुष्ठान हेतु ब्राह्मण वरण का स्पष्ट निर्देश हमें इस सूत्र से मिलता है जिसमें कहा गया है-
'काम क्रोध विहीनश्च पाखण्ड स्पर्श वर्जित:।
जितेन्द्रिय सत्यवादी च सर्व कर्म प्रशस्यते॥'
अर्थात जो ब्राह्मण काम, क्रोध, पाखंड से निर्लिप्त हो, जो सदैव सत्य संभाषण करता हो, जो जितेन्द्रिय हो, जो पूर्णत: शुद्ध मंत्रोच्चार करता हो, जिसे अनुष्ठान व ग्रह शांति विधान का पूर्ण ज्ञान हो, जो नित्य संध्या व अग्निहोत्र करता हो, ऐसे ब्राह्मण को ही आचार्य के रूप में अनुष्ठान हेतु वरण किया जाना चाहिए।
आइए, जानते हैं कि अनुष्ठान हेतु ब्राह्मणों की कितनी श्रेणियां वरण हेतु निर्धारित की गई हैं?
वरण हेतु ब्राह्मणों की आठ श्रेणियां-
सनातन धर्मानुसार ब्राह्मणों को इस धरती का देवता माना गया है, वहीं शास्त्रानुसार ब्राह्मण भगवान के मुख कहे जाते हैं। ब्राह्मण सदैव वंदनीय है। ब्राह्मणों का अपमान ब्रह्मदोष का कारक होता है। स्कन्द पुराण के अनुसार ब्राह्मणों की 8 श्रेणियां निर्धारित की गई हैं। ये 8 श्रेणियां हैं-
1. द्विज- जनेऊ धारण करने वाला ब्राह्मण 'द्विज' कहलाता है।
2. विप्र- वेद का अध्ययन करने वाला वेदपाठी ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है।
3. श्रोत्रिय- जो ब्राह्मण वेद की किसी एक शाखा का 6 वेदांगों सहित अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करता है, उसे 'श्रोत्रिय' कहते हैं।
4. अनुचान- जो ब्राह्मण चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसे 'अनुचान' कहा जाता है।
5. ध्रूण- जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र व स्वाध्याय करता है, उसे 'ध्रूण' ब्राह्मण कहते हैं।
6. ऋषिकल्प- जो ब्राह्मण अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करके जितेन्द्रिय हो जाता है, उसे 'ऋषिकल्प' कहते हैं।
7. ऋषि- जो ब्राह्मण श्राप व वरदान देने में समर्थ होता है, उसे 'ऋषि' कहते हैं।
8. मुनि- जो ब्राह्मण काम-क्रोध से रहित सब तत्वों का ज्ञाता होता है और जो समस्त जड़-चेतन में समभाव रखता हो, उसे 'मुनि' कहा जाता है।