मूलतः यह ऋग्वेद के दूसरे अध्याय के छठे सूक्त में आनंदकर्दम ऋषि द्वारा श्री देवता को समर्पित काव्यांश है। लक्ष्मी साधना के सिद्ध मंत्र के रूप में प्रतिष्ठित इस रचना का यह हिन्दी अनुवाद है।
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हरित और हिरण्य-वर्णा हार स्वर्ण, रजत सुशोभित चन्द्र और हिरण्य आभा देवि लक्ष्मी का, अग्नि अब तुम करो आवाहन।
करो आवाहन, हमारे गृह अनल उस देवि श्री का अब, वास हो जिसका सदा और जो दे धन प्रचुर, गो, अश्व, सेवक, सुत सभी।
अश्व जिनके पूर्वतर, मध्यस्थ रथ हस्ति- रव से प्रबोधित पथ, देवि श्री का आगमन हो, प्रार्थना है।
परा रूपा, हसित-आभा, हेम-वदना, आर्द्र-करुणा तप्त, तृप्त, सुशीतकर, पद्म स्थित पद्म-वर्णा, देवि श्री का आगमन हो।
चन्द्रकान्ता, कीर्ति से प्रज्वलित लोक-श्री, सुरलोक पूजित, उदारा देवि पद्मा की शरण हूँ दूर हो दारिद्र्य, तेरी दया हो।
सूर्य-प्रभ, तप प्राप्य, तुझ से ही हुआ वनस्पति में विल्व तरु, फल तप रूप आह्लादित उर करे, निर्गमित करदे सकल दारिद्रय मेरा।
सुर- सखा, करदो कृपा कीर्ति, मणियों सहित मुझ पर मैं इस राष्टृ में पैदा हुआ अब धन,कीर्ति, वैभव मुझे दो।
क्षुत्, पिपासा, मलिनता, जो ज्येष्ठा-श्री आदि सब को नष्ट करता हूँ अयश, निर्धनता सभी मेरे, पलायन करो गृह से।
गन्ध सेवित, दुर्जयी, सन्तुष्ट नित, गज स्वामिनी ईश्वरी सब प्रणियों की, देवि श्री की अर्चना है यह।
कामनायें पूर्ण हों मन की, सत्य वाणी में बसे मेरी अन्न, पशु, वैभव, सुयश सब देवि हमें श्री, श्रेयस् मिले।
प्रजा कर्दम की सभी हम, सदा आगे ही रहें कर्दम कुल हमारे सम्पदा श्री रहे, माँ हमारी पद्म-माला।
जल सुशीतल, स्नेह वर्षा करे गृह सदा कुल मेरे रहे श्रेयस्, जननि देवी। आर्द्र-कमला, आप्त, पिंगल, पद्म-माला चन्द्र और हिरण्य आभा, देवि श्री का, अग्नि आवाहन करो।