अयोध्या में 4 गोलियां लगीं, कोमा में चले गए थे, ऐसी है कारसेवक संतोष दुबे की कहानी

Story of Karsevak Santosh Dubey : 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्‍वंस का वह ऐतिहासिक दिन, जब इसके मुख्‍य आरोपी संतोष दुबे को कारसेवा के दौरान 4 गोलियां लगीं और वे 22 दिनों तक कोमा में रहे। प्रभु कृपा से आज वे पूरी तरह स्‍वस्‍थ हैं। उनका कहना है कि रामलला के लिए जन्‍मे हैं, जो ठाना है, वो कर दिखाया। आइए जानते हैं उन्‍हीं की जुबानी कारसेवा की कहानी...

बाबरी विध्‍वंस के मुख्य आरोपी कारसेवक संतोष दुबे ने वेबदुनिया से खास बातचीत में बताया कि अयोध्या में जो कारसेवा हुई उसकी रूपरेखा क्या थी। उन्होंने बताया कि 30 अक्टूबर को कारसेवक बाबरी ढांचे पर चढ़ गए थे। उसके बाद हम सभी को बड़ा अफ़सोस हुआ कि हमारे पास कुछ नहीं था, उधर से गोलियां चल रही थीं, आंसूगैस के गोले दागे जा रहे थे।

हम भगवा ध्वज फहराकर ही खुश नहीं होना चाहते थे, क्‍योंकि हम तो ढांचा गिराने के लिए वहां गए थे। दुख था कि हमारे पास कुछ नहीं था, केवल साधुओं के कुछ चिमटे और शिवसेना के कुछ कार्यकर्ताओं की तलवारे थीं, जिससे वह मजबूत गुम्मद गिराया नहीं जा सकता था, जिसकी बड़ी पीड़ा थी। बहुत खुशियों से भरे थे, लेकिन जब हम सभी ढांचे से उतर आए तो 2 नवंबर को गोलीकांड हुआ जिसमें चार गोलियां हमें भी लगीं, हमारे बहुत से साथी मार दिए गए।

उसके बाद हम लोगों ने ढांचे को तोड़ने के लिए योजना बनाई कि इसके लिए हमें बड़ा काम करना पड़ेगा, जो चीजें तलवारों से गई हैं उसे तलवारों से ही वापस लेना पड़ेगा क्योंकि कोई न्यायालय या सरकार इस पर कुछ करने को तैयार नहीं है। इसके लिए एक महात्मा जी हमें मिलेए जो हम लोगों का नेतृत्व करते थे, पीछे से सारा काम वही ब्रह्मचारी जी ही बताते थे।
उन्होंने कहा कि पांच हजार लोगों की एक बड़ी टीम बनाइए, जिसको बनाने में हमें डेढ़ साल लगे। पांच हजार लोगों को तैयार किया गया। एक फार्म बनाया गया, जिसमें सख्त नियम व शर्तें लिखी थीं। गांव-गांव जाकर संपर्क किया गया, लोगों को जोड़ा गया। पांच हजार लोगों की टीम तैयार होने के बाद हम लोगों को वो हथियार चाहिए था, जिससे वह ढांचा तोड़ा जा सके। उसके लिए हथोड़ा, गेती, सब्‍बल इत्यादि जिसके लिए हमारे पास धन नहीं था।

दूसरी बात जब विश्व हिंदू परिषद ये घोषणा करे कि हम कारसेवा करें, क्योंकि ये लोग अशोक सिंघल के नेतृत्व में बार-बार इस तरह का कार्यक्रम करते रहते थे। होता ये था कि लोग यहां आते थे, पुड़िया खाते और चले जाते, तो लोगों में गुस्सा भी था। हम लोगों को इस अवसर का लाभ लेना था कि कारसेवा की घोषणा वो करेंगे, काम हम लोग करेंगे, जिसकी भनक किसी को लगने नहीं दी जा रही थी। फिर उन्होंने घोषणा की कि 6 दिसंबर को हम कारसेवा करेंगे। इसकी तैयारी पहले से ही थी, बस तोड़ने के लिए सामान चाहिए था।

एक दिन ब्रह्म दत्त द्विवेदी, जो कि भाजपा के प्रभारी मंत्री थे, वे और संघ के बड़े नेता हमारे पास आए, उन्होंने कहा कि ढांचे को तोड़ना है। हमने कहा कि हमारा तो जन्‍म इसीलिए हुआ है तो उन्होंने ढांचे को तोड़ने के सारे औजार उपलब्ध कराए और 26-27 नवंबर को अयोध्या में देवराम दास वेदांती जी के आश्रम के पीछे तुलसी वाणी में एक स्थान पर रखवा दिया गया। फिर 5 दिसंबर का पत्र सभी को भेजा जा चुका था कि इस दिन सभी लोग अयोध्या आ जाएंगे।

सभी को जरूरी दिशानिर्देश जारी कर दिए गए थे, सभी वेदांती जी के यहां ही रुके, जिसमें एक हजार महिलाएं भी थीं, जिन्हें अलग रुकवाया गया था, चार हजार पुरुष थे और रात में ही सारी प्लानिंग बना ली गई थी, सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारी बता दी गई थी। कुल 17 टीमें बनाई गई थीं। 6 दिसंबर को एक तरफ नेताओं के भाषण चल रहे थे तो दूसरी तरफ हम अपने-अपने काम में जुट गए। एक के बाद एक करके तीनों बाबरी ढांचे को गिरा दिया गया, किंतु तीसरे ढांचे के नीचे मैं खुद दब गया, उसके बाद क्या हुआ, उसे तो मैं नहीं देख पाया, क्योंकि 22 दिनों तक मैं कोमा में रहा।

उन्होंने कहा कि मेरी 17 हडि्डयां टूट गईं थीं, मुझे अयोध्या के श्रीराम अस्पताल लाया गया, जहां डॉक्टरो ने मुझे मृत घोषित कर दिया, किंतु हमारे साथियों ने कहा, जब तक मंदिर नहीं बन जाएगा, ये मरने वाले नहीं हैं। फिर उन्होंने लख़नऊ में भर्ती कराया गया।

संतोष दुबे ने कहा कि हमारा जो उद्देश्य था, वह पूरा हुआ। दुबे ने प्रण किया था कि जब तक रामलला का घर नहीं  बनेगा, हम अपना घर भी नहीं बनवाएंगे, इसी खंडहर में ही रहेंगे। उन्होंने कहा कि हमारे पिताजी दि्वीतीय विश्व युद्ध के  सेनानी थे। उन्होंने कहा था कि जा रहे हो तो ढांचा गिराकर ही आना, पीठ मत दिखाना, अगर गोलियां चलती हैं तो मर जाना लेकिन काम पूरा करके आना, लाश तुम्हारी तब ही उठाएंगे, जब रामकाज हो जाएगा।

उन्‍होंने कहा कि हमारे परिवार कि पृष्ठभूमि बहादुरी से भरी थी, इसलिए मुझे मरने-जीने की कोई चिंता नहीं थी और फक्‍कड़ गुरु परमहंस रामचंद्रदासजी का शिष्य था। दुबे ने बताया कि परमहंस रामचंद्रदास जी का शिलादान के समय उनका आदेश था कि तुम्हारा आना जरूरी है, मुझे आत्मदाह करना है या शिलादान करना है, ये तुम्हारे आने पर तय होगा। जब हम किसी तरह से उनके पास पहुंचे तो वे हमें व हमारी स्थित को देखकर बड़े ही भावुक हो गए थे। मेरा हाथ पकड़कर दिगंबर अखाड़ा ले गए जहां भगवान की मूर्ति है और माता जगत जननी सीता हैं। प्रभु राम, मैंने जीवन में कभी भी ईमानदारी से आपका नाम लिया हो, मेरे तप का कोई रखा हिस्सा बनता हो।

मैं रहूं न रहूं, आज अपने भतीजे का संकल्प देखकर... यह कहकर परमहंसजी अत्यंत भावुक हो गए और रोने लगे, मैं भी रोने लगा। उन्होंने कहा कि हे परमेश्वर, मैं रहूं, न रहूं, इसके बल, बुद्धि, विवेक रहते हुए राम मंदिर का निर्माण हो। यह कहकर वे भगवान के विग्रह के सामने लेट गए, मैं भी लेट गया। उन्हें देखकर कुछ देर बाद उठे तो बड़ी ही आत्मशांति के साथ कहा कि इसकी ही आंखों से मैं राम मंदिर का भव्य निर्माण देख लूंगा।

दुबे ने कहा कि जो परमहंस जी का भाव था, उसे देखकर आज अत्यंत दुख होता है कि वे हमारे बीच नहीं हैं। मंदिर निर्माण हो रहा है, वो होते तो शायद कुछ और ही बात होती। वे अयोध्या के धर्म निर्माता थे, उनके रहते अयोध्या सुरक्षित थी, उनकी एक दहाड़ पर सरकार हिल जाती थी। पूरे जीवन उन्होंने आंदोलन किया और अब वे नहीं रहे। 
 
संतोष दुबे ने अयोध्या में गोलीकांड के बारे में बताया कि यह बड़ा ही दुःखद समय था, जिसे शब्दों में बता पाना बड़ा ही कठिन है, जिसके सभी साथी मार दिए जाएं, जिसे खुद भी गोलियां लगी हों और लगभग मृत की अवस्था में हो और चारों तरफ यही चीख-पुकार मची हो कि बचाव-बचाव। उन्होंने कहा कि हमारी आंखों के सामने ही राजेंद्र दहकर को सबसे पहले गोली लगी, वे कुएं में गिर गए।

उसके बाद रमेश पाण्डेय को गोली लगी ये। इन सबको मुझे बचाने के चक्कर में गोली लगी थी। इसके बाद वहीं खड़े थे महेंद्रनाथ अरोड़ा जी, जिन्होंने अपना कुर्ता फाड़कर कहा कि चलाओ गोली, हम रामलला के लिए आए हैं, हम घर पर कहकर मरने आए हैं। यह संकल्प देखकर मेरा मन भी वहीं रुक गया कि अगर मौत लिखी है तो यही मरूंगा। मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, मेरी आंखों के सामने ही उनको 2-3 गोलियां लगीं, उसी समय वसुदेव को गोली लगी, फिर शरद कोठारी को गोली लगी, उसको बचाने रामकुमार दौड़ा। ये दोनों भाई 30 अक्टूबर से 2 नवंबर तक हमारे साथ ही थे, उनको बचाने मैं दौड़ा तो मुझे भी गोलियां लगीं।

दुबे ने कहा कि मैंने जो मंजर देखा, उसे बता पाना बड़ा ही मुश्किल है। लगभग 250 से 300 लोग गिरे पड़े थे, चीख-चित्‍कार मची थी, खून से पूरी गली लथपथ थी। मुझे रविशंकर पाण्डेय और कुछ और लोग हमें उठाकर ले गए। मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया। जिस प्रकार जलियावाला बाग कांड हुआ था, ठीक वैसा ही अयोध्या का गोलीकांड था। यह दुःखद है कि सरकार ने मुलायम सिंह को पद्मश्री से सम्मानित किया था।

उन्होंने कहा कि हमें पूरा विश्वास था क्योंकि इस आंदोलन के पीछे एक बहुत बड़े संत थे, वो क्या थे, किस रूप में आए थे ये तो पता नहीं, पर वे हमें सन् 1986 से लगातार मिलते रहे और उन्होंने मेरा हाथ देखकर कहा था कि तुम्हारी आयु 114 वर्ष की है। तुम्हारे सामने राम मंदिर का निर्माण होगा और जब तुम 60 वर्ष के हो जाओगे तो सब छोड़ देना, मेरे साथ चल देना, मैं आऊंगा। मुझे विश्वास था कि ये जो कहते हैं, वो होता जरूर है, उनका कोई अता-पता नहीं था, वे सरयू तट पर ही मिलते थे।

दुबे ने कहा कि वे बड़े ही चमत्कारी पुरुष थे, हमें जब कभी रुपयों की जरूरत होती, मान लीजिए कि बीस हजार कि तो वे अपना हाथ पीछे ले जाते और बीस हजार निकाल के तुरंत बिना गिने  हमें दे देते, वह न कम होता न ही ज्यादा। उनकी कहीं बातों पर हमें पूरा विश्वास था, उन्होंने कहा कि तुम दर्शन करने तभी जाना। 84 में जो संकल्प लिया है, 30 जनवरी को ही हम अपने घर से साथियों के साथ पैदल दर्शन करने जाएंगे।

उन्होंने कहा कि सफलता तो बलिदान मांगती ही है, हमने तो ठान ही लिया था कि मारे जाएंगे तो वैकुंठ के दाता विष्णु यानी राम के पास जाएंगे, जीवित बचे तो राम मंदिर को मुक्त कराएंगे। उन्‍होंने कहा कि मैं बाबरी कांड का मुख्य आरोपी हूं, मेरे घर की  कुर्की तक कर दी गई थी। दुबे ने कहा कि हमारा देश तो हिंदू राष्ट्र था है और भविष्य में और भी मजबूत होगा। राम मंदिर का निर्माण उसका प्रथम प्रतीक है।

उन्होंने साफतौर पर कहा कि देश के एकमात्र प्रधानमंत्री मोदी व अकेले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी हैं, जो आते हैं तो सीधे रामलला के चरणों में लेट जाते हैं, यही धर्म राज है, राम राज है। उन्होंने कहा कि मैं बाला साहेब ठाकरे जी को नमन व वंदन करता हूं, जिन्होंने सीना ठोककर कहा था कि हमें गर्व है कि हमारे शिवसैनिकों ने बाबरी ढांचे का विध्‍वंस किया। 

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