सबसे छोटी डब्बावाली...

- सोनल कराडे (डब्बावाली, मुंबई)

BBC
मेरा नाम सोनल है और मैं पिछले छह साल से डब्बा देने का काम कर रही हूँ। मेरी उम्र 18 साल की है। मेरे पिताजी भी डब्बा पहुँचाने का काम करते थे।

उनकी मौत के बाद पहले मेरी माँ ने यह काम शुरू किया, उसके बाद मैं भी यही काम करने लगी। मेरा भाई भी यही काम करता है, लेकिन उसको हमसे ज्यादा पैसे मिलते हैं।

मुंबई में करीब पाँच हजार डब्बावाले हैं और इन सबमे मैं सबसे छोटी हूँ। सब लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं सबकी लाड़ली हूँ। शुरू-शुरू में मुझे आने-जाने में थोड़ी तकलीफ हुई, लेकिन अब मुझे ये काम करना अच्छा लगता है।

मेरे अलावा और भी महिलाएँ हैं जो डब्बा पहुँचाने का काम करती है, लेकिन मेरे सबसे छोटे होने का प्यार मुझे बहुत मिलता है। मैं और माँ मिलकर महीने का छह हजार कमा लेते हैं। भाई को 10 हजार तक मिल जाते हैं और घर का खर्च अच्छे से निकल जाता है।

व्यस्त दिनचर्या : मैं मुंबई के घाटकोपर इलाके में रहती हूँ और इसी इलाके का डब्बा पहुँचाना मेरी जिम्मेदारी होती है।

मैं एक दिन में 25 डब्बे पहुँचाती हूँ। मेरी सुबह छह बजे होती है। घर की साफ-सफाई और खाना बनाने के बाद करीब नौ बजे मैं डब्बा लोगों के घरों से डब्बा लेने के लिए निकलती हूँ। ज्यादातर मैं और माँ 11 बजे घाटकोपर स्टेशन पर मिलते हैं और साथ ही जाते हैं।

एक डब्बा पहुँचाने और वापस खाली डब्बा उनके घर छोड़ने का मेहनताना 150 से लेकर 400 रुपए तक है।

हमें समय का बहुत पाबंद होना पड़ता है इसलिए अगर दोनों में से किसी को देर हो जाती है तो बिना इंतजार किए ही चले जाते हैं। 12.30 बजे दोपहर तक मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) के बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज इलाके का डब्बा पहुँचा देती हूँ।

1.30 बजे के आसपास के बाकी डब्बेवालों के साथ मिलकर अपना डब्बा खाती हूँ और फिर तीन बजे खाली डब्बा लेने जाती हूँ। उनके पास से खाली डब्बा लेकर उनके घर तक पहुँचाने में शाम के छह आराम से बज जाते है। कभी-कभी सात भी बज जाते हैं।

फिर घर जाकर खाना बनाती हूँ क्योकि मेरी माँ की थोड़ी उम्र हो गई है और डब्बा पहुँचाते पहुँचाते वो थक जाती है, इसलिए घर का सारा काम भी मुझे ही करना है। मुझे हँसते-हँसते अपना काम करना बहुत अच्छा लगता है। मुझे किसी से डर नहीं लगता है, फिर चाहे वो पुलिस हो या रास्ते के मंजनू।

मुझे इस बात का बहुत अफसोस है कि मैं अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई। अगर मैंने पढ़ाई की होती तो शायद मुझे कोई अच्छी नौकरी मिल जाती और डब्बा देने का काम मैं छोड़ देती।

पिता की मौत के बाद घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी मेरे सर पर आ गई थी इसलिए अपनी पढ़ाई छोड़ कर मैंने काम शुरू कर दिया।

(मुंबई में वेदिका चौबे से बातचीत पर आधारित)

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