अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के रिश्ते कैसे रहे

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018 (10:31 IST)
- विजय त्रिवेदी (वरिष्ठ पत्रकार)
 
27 मार्च, 2015 की शाम। तांबई लालिमा के साथ सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। दिल्ली के कृष्णा मेनन मार्ग पर गाड़ियों का रेला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। आमतौर पर बहुत ही शांत रहने वाले इस इलाक़े में सुरक्षा एजेंसियों और ट्रैफ़िक पुलिस को ट्रैफ़िक संभालने में मुश्किल हो रही थी।
 
 
यूँ तो यहाँ से राष्ट्रपति भवन बमुश्किल दो किलोमीटर दूर होगा, लेकिन प्रोटोकाल तोड़कर ख़ुद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पहुँचने वाले थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित करने के लिए।
 
 
साइरन की आवाज़ों से सड़क के दोनों ओर लगे पुराने बड़े पेड़ों से परिंदें अचानक उड़ने लगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का काफ़िला पहुँच गया और उनके बाद उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी भी वहाँ आ पहुँचे।
 
 
6-ए, कृष्णा मेनन मार्ग। तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का निवास। साल 1999 में जब वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो वह देश के नौवें ऐसे नेता थे जो गैर-कांग्रेसी होकर भी इस पद पर पहुँचे थे, और पहले ऐसे गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री, जिन्होंने पूरे पाँच साल तक सरकार चलाई।
 
 
इससे पहले किसी गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री को यह मौक़ा नहीं मिल पाया था और उनकी सरकार बहुत ही कम वक़्त के लिए चल पाई। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 24 दिसम्बर, 2014 को जब पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित करने का ऐलान किया तो कोई ऐसा नेता या शख्सियत नहीं थी जिसने वाजपेयी को सम्मान देने का स्वागत नहीं किया हो। हर एक ने कहा कि वे इस सम्मान के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हैं।
 
 
16 अगस्त 2018 की शाम भी अचानक कृष्णा मेनन मार्ग पर गतिविधियाँ तेज़ हो गई थीं। मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द, उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडु और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी समेत तमाम दिग्गज नेता यहाँ पहुँचने वाले थे।
 
 
पता वही- 6-ए, कृष्णा मेनन मार्ग। लेकिन अब वाजपेयी नहीं थे। 60 साल तक हिन्दुस्तान की राजनीति में लोगों का दिल जीतने वाले वाजपेयी ने शाम पाँच बजकर पाँच मिनट पर आख़िरी साँस ली तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा- "मेरे लिए अटल जी का जाना पिता तुल्य संरक्षक का साया उठने जैसा है। उन्होंनें मुझे संगठन और शासाल दोनों का महत्व समझाया, मेरे लिए उनका जाना एक ऐसी कमी है जो कभी भर नहीं पाएगी।"
 
 
क़रीब 9 सप्ताह पहले 11 जून को जब वाजपेयी को एम्स में भर्ती कराया गया तब से प्रधानमंत्री चार बार उनसे मिलने गए। तबीयत बिगड़ने की ख़बर के बाद 24 घंटों में दो बार मिलने गए। इससे पहले मोदी रोज़ाना फ़ोन पर एम्स के डॉक्टरों से वाजपेयी के सेहत से जुड़ी जानकारी लेते थे।
 
 
मोदी ने कहा कि यूँ तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वाजपेयी के बीच बीजेपी की नेताओं की पूरी एक पीढ़ी का फ़र्क है, लेकिन दोनों के बीचे रिश्तों की गर्माहट हमेशा ऐसी रही कि उसने इस दूरी का कभी अहसास ही नहीं होने दिया।
 
 
कहा जाता है कि बीजेपी में मोदी को लालकृष्ण आडवाणी ने तैयार किया। आडवाणी की रथयात्रा के वक़्त भी मोदी ही गुजरात में उसके संयोजक थे। मोदी को गुजरात में मुख्यमंत्री बनवाने में भी आडवाणी की अहम भूमिका रही और फिर आडवाणी के संसदीय क्षेत्र गांधीनगर को भी मोदी ही देखते रहे। लेकिन कम लोग ये जानते होंगे कि वाजपेयी ने ना केवल मोदी को गुजरात में मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला किया बल्कि उससे पहले जब मोदी राजनीति में हाशिये पर चल रहे थे, उस वक़्त साल 2000 में वाजपेयी ने ही उन्हें अमेरिका से दिल्ली लौटने का आदेश दिया था।
 
 
मोदी का राजनीतिक अज्ञातवास
28 सितंबर, 2014 को खचाखच भरा हुआ न्यूयॉर्क का मैडिसाल स्कवायर गार्डन। प्रवासी भारतीयों, और ख़ासतौर से गुजरातियों का मेला सा लगा हुआ था। केवल न्यूयॉर्क से ही नहीं, अमरीका के अलग-अलग हिस्सों से लोग हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देखने, मिलने और उनका भाषण सुनने के लिए पहुँचे हुए थे।
 
 
मैडिसाल स्कावयर में 'मोदी-मोदी' के नारे लग रहे थे। वीडियो स्क्रीन पर चल रही फ़िल्म में भारत के आगे बढ़ने की कहानी और बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी सरकार की तारीफ़ों का ज़िक्र भी था। मोदी ने अपने भाषण में कई बार वाजपेयी का ज़िक्र किया।
 
 
उसी कार्यक्रम के बाद मेरी मुलाक़ात हुई एक सज्जन से जो गुजराती थे, बीजेपी समर्थक और नरेन्द्र मोदी के क़रीबी मित्रों में से एक। उन्होंने बताया कि साल 2000 में जब वाजपेयी प्रधानमंत्री के तौर पर अमरीका दौरे पर आए थे तब उनका भी प्रवासी भारतीयों के साथ एक कार्यक्रम था। उस वक़्त नरेन्द्र भाई राजनीतिक अज्ञातवास पर अमरीका में ही थे, लेकिन वो उस समारोह में शामिल नहीं थे।
 
 
गुजरात की राजनीति में केशूभाई पटेल के ख़िलाफ़ राजनीति करने के आरोप में उन्हें ना केवल किनारे कर दिया गया था बल्कि पार्टी से उन्हें गुजरात से बाहर जाने का आदेश मिला था। मोदी के उस गुजराती मित्र ने जब वाजपेयी से मुलाक़ात में मोदी के वहाँ होने के बारे में बताया और पूछा कि क्या मोदी से वे मिलना चाहेंगे तो वाजपेयी ने हामी भर दी।
 
 
अगले दिन जब वाजपेयी और मोदी की मुलाक़ात हुई। मोदी से वाजपेयी ने कहा, "ऐसे भागने से काम नहीं चलेगा, कब तक यहाँ रहोगे? दिल्ली आओ।।" वाजपेयी से उस मुलाक़ात के कुछ दिनों बाद नरेन्द्र मोदी दिल्ली आ गए। उनका वनवास ख़त्म हो गया और मोदी एक नई राजनीतिक पारी खेलने के लिए तैयार हो गए।
 
 
एक नई ज़िम्मेदारी...
और फिर अक्टूबर 2001 की सुबह। मौसम में अभी गर्माहट थी, लेकिन माहौल में एक स्याह सन्नाटा पसरा हुआ था। चेहरे मानो एक दूसरे से सवाल पूछते हुए से, बिना किसी जवाब की उम्मीद के। दिल्ली के एक श्मशान गृह में एक चिता जल रही थी। एक प्राइवेट चैनल के कैमरामैन गोपाल बिष्ट के अंतिम संस्कार में कुछ पत्रकार साथी और इक्का-दुक्का राजनेता शामिल थे।
 
 
एक नेता के मोबाइल फ़ोन की घंटी बजी। प्रधानमंत्री निवास से फोन था। फ़ोन करने वाले ने पूछा, "कहाँ हैं?" फ़ोन उठाने वाले ने जवाब दिया, "श्मशान में हूँ।" फ़ोन करने वाले ने कहा, "आकर मिलिए।"
 
 
इस बहुत छोटी सी बात के साथ फ़ोन कट गया। श्मशान में आए उस फ़ोन ने हिंदुस्तान की राजनीति के नक्शे को बदल दिया। ये राजनेता थे नरेन्द्र मोदी। उन दिनों वे दिल्ली में अशोका रोड़ पर बीजेपी के पुराने दफ़्तर के पिछवाड़े में बने एक छोटे से कमरे में रह रहे थे जिसमें फ़र्नीचर के नाम पर एक तख्त और दो कुर्सियाँ हुआ करती थीं।
 
 
उस वक़्त पार्टी में प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे नेताओं का ही दबदबा था। आधी बाहों के कुर्ते और पायजामे में थोड़ी दूर खड़े होकर नरेन्द्र मोदी जब गोपाल बिष्ट की जलती हुई चिता को देख रहे थे, तभी उनके पास प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का फ़ोन आया था।
 
 
जब मोदी उस रात अटल बिहारी वाजपेयी के घर पहुँचे तो उन्हें एक नई ज़िम्मेदारी दी गई। गुजरात जाने की ज़िम्मेदारी। पार्टी के दिग्गज नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को हटाकर मुख्यमंत्री बनने की ज़िम्मेदारी।
 
 
वाजपेयी का आशीर्वाद
लेकिन जब 2002 में गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी अहमदाबाद दौरे पर पहुँचे थे तो वाजपेयी ने कहा कि मैंनें मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म निभाने के लिए कहा है। पास में बैठे मोदी ने फुसफुसाया- "साहब, हम वही तो कर रहे हैं"।
 
 
इस पर वाजपेयी ने कहा- "मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई वही कर रहे हैं"। लेकिन वाजपेयी के मन में दुविधा ज़रूर रही। इसे बाद गोवा में हुई बीजेपी की कार्यकारिणी में शामिल होने के लिए दिल्ली से उड़े विशेष विमान में प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ लाल कृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह और अरुण शौरी भी थे।
 
 
वाजपेयी का मानना था कि मोदी को कार्यकारिणी में कम से कम इस्तीफ़े की पेशकश तो करनी चाहिए। आडवाणी इसके पक्ष में नहीं थे। आडवाणी समेत बहुत से नेताओं को लगता था कि इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा। मगर जब कार्यकारिणी की बैठक शुरु हुई तो मोदी ने अपनी तरफ से ही इस्तीफ़े की पेशकश कर दी।
 
 
पूरे सभागार में इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं करने की आवाज़ें आनी लगीं। उस वक़्त वाजपेयी के विश्वस्त प्रमोद महाजन भी मोदी के साथ खड़े दिखाई दिए। वाजपेयी ने हमेशा की तरह बहुमत की बात को मान लिया और मोदी रास्ते पर आगे बढ़ते चले गए। इसके बाद साल 2013, जून का महीना। एक बार फिर गोवा में 2013 में बीजेपी की कार्यकारिणी की बैठक हुई और वहाँ मोदी बीजेपी कैंपेन कमेटी के मुखिया बनाये गए तो दिल्ली आकर सबसे पहले उन्होंने वाजपेयी का आशीर्वाद लिया।
 
 
मई 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी ने सबसे पहले वाजपेयी को याद किया। वाजपेयी के जन्मदिन से पहले मोदी सरकार ने वाजपेयी को देश के सबसे बड़े सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने का ऐलान किया। उनके जन्मदिन को 'गुड गवर्नेंस डे' मनाने का फ़ैसला किया और अपने पहले पूर्ण बजट में वाजपेयी के नाम पर कई योजनाएं शुरु करने का ऐलान भी मोदी ने किया।
 
 
संसद के सेन्ट्रल हॉल में बीजेपी संसदीय दल और एनडीए के नेता चुने जाने के बाद अपने भाषण में मोदी भावुक हो गए थे। मोदी ने कहा कि आज वाजपेयी यहाँ होते तो सोने पर सुहागा होता। मोदी की आँखें डबडबाने लगी थीं। चश्मा हटाकर नम होती आँखों को उन्होंने पोंछा, और एक बार फिर वाजपेयी को याद किया।
 
 
'मैं निःशब्द हूँ'
वाजपेयी के पार्थिव शरीर के उनके निवास पर पहुँचने के बाद मोदी फिर वहाँ मौजूद थे। ऊपर से शांत, लेकिन मन में उथल-पुथल। अपनी श्रद्धांजलि में भी मोदी ने कहा, "मैं निःशब्द हूँ, शून्य में हूँ। लेकिन भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा है। हम सभी के श्रद्धेय अटल जी हमारे बीच नहीं रहे। अपने जीवन का प्रत्येक पल उन्होंनें राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। उनका जाना एक युग का अंत है।"
 
 
मोदी और वाजपेयी के रिश्तों की कशिश से देश यही उम्मीद करता होगा कि वाजपेयी की विरासत को उनसे बेहतर कोई आगे नहीं बढ़ा सकता। एक दिन पहले ही तो 15 अगस्त पर लाल किले की प्राचीर से मोदी ने कश्मीर मसले पर वाजपेयी को याद करते हुए कहा था कि हम वाजपेयी के रास्ते पर आगे चलना चाहते हैं यानी इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत।
 
शायद सब भी तो यही चाहते हैं।
 
(विजय त्रिवेदी, वाजपेयी की जीवनी 'हार नहीं मानूंगा - एक अटल जीवन गाथा' लिख चुके हैंजो हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से छपी है।)
 

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