राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर 40 दिनों तक चली मैराथन सुनवाई बुधवार को पूरी हो गई और ऐसा माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट अपना फ़ैसला नवंबर में सुनाएगा क्योंकि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं।
यह ऐतिहासिक फ़ैसला होगा। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील राम मंदिर और बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक़ पर विवाद है।
आख़िरी सुनवाई के एक दिन पहले जस्टिस गोगोई ने कहा था कि बुधवार की शाम 5 बजे तक सुनवाई पूरी हो जाएगी लेकिन बुधवार को एक घंटे पहले ही सुनवाई पूरी करने की घोषणा कर दी गई। साथ ही अदालत ने ये भी कहा कि अगर दलीलें बाक़ी हों तो संबंधित पक्ष तीन दिन के भीतर लिखित रूप में दे सकते हैं।
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ कर रही थी। पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश ने की। क़रीब 40 दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद अदालत ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रखा लिया।
बुधवार को जब इस मुक़दमे की सुनवाई पूरी हुई, तो पता ये चला कि भारत के सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ये दूसरी सबसे लंबे समय तक चलने वाली सुनवाई थी।
इससे पहले, मील का पत्थर कहे जाने वाले केशवानंद भारती केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट ने 68 दिनों तक की थी। वहीं लंबी सुनवाई के मामले में तीसरे नंबर पर आधार कार्ड की संवैधानिकता का मुक़दमा था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में इस केस की सुनवाई 38 दिनों तक चली थी।
राम मंदिर बाबरी मस्जिद ज़मीन विवाद को सुनने वाली सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के दूसरे चार माननीय न्यायाधीशों के नाम हैं, जस्टिस शरद अरविंद बोबडे, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ और जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर। देश की सर्वोच्च अदालत ने इस मामले की छह अगस्त से प्रति दिन सुनवाई की थी।
मतलब हफ़्ते में 5 दिन। इससे पहले रिटायर्ड जस्टिस एफएमआई कलीफ़ुल्लाह की अगुवाई वाले तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल की इस मामले को बातचीत से सुलझाने की कोशिशें नाकाम हो गई थीं। सर्वोच्च न्यायालय में चल रही ये सुनवाई, 30 सितंबर 2010 को इस मामले पर आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर अपीलों पर थी।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 9 साल पहले (2010) अपने फ़ैसले में अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर के हिस्सों में बांटने का फ़ैसला सुनाया था। हाई कोर्ट ने ज़मीन को राम लला, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा के बीच बराबर-बराबर बाँटने का फ़ैसला सुनाया था।
लेकिन, इस मामले के तीनों पक्षकारों यानी निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और राम लला ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए, इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और इस में बदलाव की अपील की थी।
निर्मोही अखाड़े ने सर्वोच्च न्यायलय में अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि जो लोग अयोध्या की विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बनाना चाहते हैं, उनका दावा है कि बाबर के सूबेदार मीर बाक़ी ने वहां पर राम मंदिर के बनाए क़िले को तोड़ कर मस्जिद बनवाई थी।
वो भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण की पड़ताल के हवाले से ये दावा करते हैं कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। निर्मोही अखाड़ा ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि जो लोग राम मंदिर के पक्ष में हैं उनका दावा है कि राम ने जो क़िला बनवाया था उस पर बाबर के सिपहसालार मिर बाक़ी ने 1528 में बाबरी मस्जिद बनवाई।
निर्मोही अखाड़े की तरफ़ से जिरह करते हुए वरिष्ठ वकील सुशील कुमार जैन ने सर्वोच्च न्यायलय से निचली अदालत में पेश कुछ दस्तावेज़ों का हवाला देते हुए कहा था कि राम जन्मभूमि पर निर्मोही अखाड़े का हक़ है और ज़मीन उन्हें दी जानी चाहिए।
सुशील कुमार जैन ने सर्वोच्च अदालत में बहस के दौरान कहा था कि मस्जिद का भीतर वाला गुंबद भी निर्मोही अखाड़ा का ही है। सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान बेंच के सामने जिरह में जैन ने ये भी कहा था कि, 'सैकड़ों सालों से विवादित ज़मीन के भीतर के आंगन और राम जन्मस्थान पर हमारा (निर्मोही अखाड़े का) क़ब्ज़ा था।'
सुशील कुमार जैन ने सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान कहा कि निर्मोही अखाड़ा कई मंदिरों को चलाता है। जैन ने सर्वोच्च अदालत को विस्तार से बताया था कि निर्मोही अखाड़े के क्या-क्या काम हैं। जैन ने अदालत को बताया था कि, 'झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की मौत से पहले उनकी सुरक्षा निर्मोही अखाड़ा ही करता था।'
विवादित ज़मीन पर दावा
सुशील कुमार जैन ने पाँच जजों की संविधान पीठ के सामने बहस में ये भी कहा था कि निर्मोही अखाड़े की अर्ज़ी का ताल्लुक़ केवल विवादित ज़मीन के भीतरी अहाते से है, जिस में सीता रसोई और भंडार गृह भी आते हैं।
जिस जगह को आज 'जन्म स्थान' कहा जाता है, वो निर्मोही अखाड़े के ही क़ब्ज़े में है। 1932 के बाद से मंदिर के गेट से आगे मुसलमानों की आमद पर मनाही थी। केवल हिंदू ही जन्म स्थान पर पूजा करने जा सकते हैं।
सुशील जैन ने अदालत के सामने जिरह में ये बात कहते हुए ये भी जोड़ा था कि निर्मोही अखाड़े से मंदिर का अधिकार और उसका रख-रखाव छीनना सरासर ग़लत था।
सुशील कुमार जैन ने ये भी कहा कि 'निर्मोही अखाड़ा लंबे समय से विवादित जगह पर राम लला विराजमान का रख-रखाव और उनकी पूजा करता रहा है।
मंदिर ही जन्म भूमि है। इसलिए विवादित ज़मीन का मालिकाना हक़ निर्मोही अखाड़े का ही है। जैन ने कहा कि विवादित ज़मीन पर हमारा दावा 1934 में दायर किया गया था जबकि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने विवादित ज़मीन पर हक़ जताने का अपना वाद 1961 में दायर किया था।'
रामायण का हवाला
जैन ने सुप्रीम कोर्ट से आगे कहा था कि, 'हम इस मुक़दमे को लंबे समय से इसलिए लड़ रहे हैं क्योंकि ये हमारी भावनाओं से जुड़ा हुआ है। निर्मोही अखाड़े के पास बाहरी अहाता है। इसीलिए हमने इसके अंदरूनी आंगन के मालिकाना हक़ का मुक़दमा दायर किया।'
निर्मोही अखाड़े के वकील ने कहा था कि, 'हमारे पूजा-पाठ और प्रार्थना करने में बाधा आने की वजह से ही हम ये मुक़दमा दायर करने को मजबूर हुए। क्योंकि हमारा मालिकाना हक़ का अधिकार भी छीना गया और इसके प्रबंधन के अधिकार से भी हमें वंचित कर दिया गया। 1949 में ज़ब्ती के बाद भी इसके प्रबंधन का मालिकाना हक़ हम से नहीं छीना जा सकता।'
सुशील जैन ने अदालत के सामने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हिंदुओं ने विवादित स्थल पर 1949 में मूर्तियां रखीं, ये आरोप ही ग़लत है। जैन ने कहा कि मुस्लिम पक्ष ने विवाद खड़ा करने के लिए ही ये कहानी गढ़ी थी।
अंदरूनी अहाते पर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के दावे को चुनौती देते हुए, सीनियर वकील जैन ने तर्क दिया था कि पूरा क्षेत्र एक ही न्यायिक अहाता है और सब उसी के दायरे में आते हैं। ऐसे में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड इसके एक हिस्से पर अपना दावा नहीं जता सकता।
सीनियर वकील के. परासरन ने राम लला (जिन्हें राम लला विराजमान भी कहते हैं) की तरफ़ से बहस की। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने तर्क रखा कि वाल्मीकि रामायण में कम से कम तीन जगह इस बात का ज़िक्र है कि श्री राम का जन्म अयोध्या में हुआ था।
राम जन्म स्थान पर जिरह
परासरन के इस तर्क पर अदालत ने उनसे पूछा था कि क्या ईसा मसीह बेथलहम में पैदा हुए थे, ये सवाल भी किसी अदालत के सामने आया है?
तब वरिष्ठ वक़ील के. परासरन ने कहा था कि, 'जन्म स्थान ठीक वही जगह नहीं, जहां पर श्री राम का जन्म हुआ, बल्कि उसके आस-पास की ज़मीन भी उसी दायरे में आती है। इसलिए पूरा इलाक़ा ही जन्मस्थान है। इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि वो श्री राम का जन्म स्थान है। हिंदू और मुस्लिम, दोनों ही पक्ष विवादित ज़मीन को जन्म स्थान कहते हैं।'
राम लला की तरफ़ से सीनियर वक़ील सीएस वैद्यनाथ ने कहा कि 16 दिसंबर 1949 को मुसलमानों ने वहां पर आख़िरी बार नमाज़ पढ़ी थी। इसके 6 दिन बाद 22 दिसंबर 1949 को वहां मूर्तियां रखी गईं। इस पर अदालत ने पूछा था कि क्या मूर्तियां रख देने से मुस्लिम वहां नमाज़ नहीं पढ़ सकते? इस पर वैद्यनाथन ने जवाब दिया था कि मुसलमानों के वहां जाने पर रोक थी।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का हवाला
अपनी बहस में वैद्यनाथन ने विलियम फिंच के यात्रा वृतांत का हवाला देने की इजाज़त मांगी। विलियम फिंच 1608 से 1611 के बीच भारत के दौरे पर आए थे।
वैद्यनाथन ने कहा कि मुग़ल बादशाह अकबर और जहांगीर के ज़माने में कई यूरोपीय यात्री भारत आए थे। इनमें विलियम फिंच और विलियम हॉकिंस भी थे। इन्होंने अपने वर्णन में अयोध्या के बारे में भी लिखा था।
वैद्यनाथन ने अदालत से कहा कि, 'हम ये कहना चाह रहे हैं कि पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में भी लोग ये विश्वास करते थे कि श्री राम का जन्म वहीं हुआ था। माननीय अदालत को इस तथ्य का भी संज्ञान लेना चाहिए। क्योंकि ये इस बात का सबूत है कि वहां पहले से मंदिर मौजूद था, जिसे बाद में तोड़ डाला गया था। ये जगह हमेशा ही भगवान श्री राम का जन्म स्थान मानी जाती रही है।'
वैद्यनाथ ने कहा कि अयोध्या कोशल साम्राज्य की राजधानी थी। महाराजा दशरथ, भगवान श्री राम के पिता था, जो रामायण के नायक थे। राम का दरबार सबसे पवित्र जगह है क्योंकि श्री राम का जन्म वहीं हुआ था। जिसे बाद में तोड़ कर मस्जिद बनाई गई।
राम लला और निर्मोही अखाड़े के तर्कों पर ऐतराज़ जताते हुए मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्टों में कई कमियों की तरफ़ इशारा किया था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने विवादित स्थल को खुदाई के दौरान पुरानी कलाकृतियां, मूर्तियां, खंभे और मंदिर के दूसरे अवशेष मिले थे। एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में विवादित ढांचा, जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था, के नीचे एक विशाल मंदिर के अवशेष होने की बात कही थी।
मुस्लिम पक्षकारों की दलील
एएसआई की रिपोर्ट पर मुस्लिम पक्ष के ऐतराज़ जताने पर सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष के वक़ील डॉक्टर राजीव धवन और मीनाक्षी अरोड़ा से पूछा था कि अगर पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट में ख़ामियां थीं, तो मुस्लिम पक्षकारों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान इस पर सवाल क्यों नहीं उठाया था। अदालत ने कहा था कि, 'अगर आप ने हाई कोर्ट में एएसआई की रिपोर्ट पर ऐतराज़ नहीं जताया, तो आप यहां पर इस पर सवाल नहीं उठा सकते हैं।'
डॉक्टर राजीव धवन ने इसके जवाब में कहा था कि हम ने निश्चित ही एएसआई की रिपोर्ट पर सवाल उठाए थे। लेकिन, तब माननीय उच्च न्यायालय ने कहा था कि हम इसे जिरह के आख़िर में सुनेंगे, लेकिन, फिर वो कभी नहीं हुआ।
बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्षकारों के इस तर्क को मान लिया कि अगर उन्हें एएसआई की रिपोर्ट के बरक्स एक और एक्सपर्ट की रिपोर्ट को हाई कोर्ट के सामने पेश करने का मौक़ा दिया जाता, तो अदालत ने उसे भी माना होता।
डॉक्टर राजीव धवन ने तर्क दिया था कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मालिकाना हक़ (ज़मीन विवाद) में मुस्लिम पक्ष को 1934 से हिंदू पक्ष ने नमाज़ अदा नहीं करने दी थी।
जब जस्टिस बोबडे ने डॉक्टर राजीव धवन से ये पूछा कि हिंदुओं के नमाज़ पढ़ने से रोकने के बाद क्या मुस्लिम पक्षकारों ने नमाज़ पढ़ने के लिए कोई कार्रवाई की थी? तो राजीव धवन ने कहा था कि मुसलमान हर शुक्रवार को वहां नमाज़ पढ़ते थे। इसके अलावा वो विवादित जगह पर नमाज़ नहीं पढ़ते थे।
डॉक्टर धवन ने कहा कि मस्जिद की चाबियां मुसलमानों के ही पास थीं, लेकिन पुलिस उन्हें शुक्रवार के अलावा बाक़ी दिनों में नमाज़ नहीं पढ़ने देती थी। धवन ने कहा कि 1950 में ज़ब्ती के बाद से मस्जिद पर ताला लगा हुआ था। और उसके बाद से ही पुलिस, मुस्लिम पक्षकारों को शुक्रवार के अलावा दूसरे दिनों में वहां नमाज़ पढ़ने की इजाज़त नहीं देती थी।
मुस्लिम पक्षकारों ने पांच जजों की संविधान पीठ के सामने बाबरनामा का हवाला दिया और कहा कि मस्जिद को बाबर ने बनवाया था।
मुस्लिम पक्षकारों के वक़ील डॉक्टर राजीव धवन ने अदालत के सामने कहा कि, 'मैं बाबरनामा के हवाले से ये बात कह रहा हूं। मैं बाबरनामा और इसके अनुवादों के हवाले से बता रहा हूं कि मस्जिद को बाबर ने बनवाया था।'
डॉक्टर धवन ने ये भी कहा कि दूसरे पक्षकार सरकारी गजट के केवल गिने-चुने हिस्सों का ही हवाला नहीं दे सकते। वो उन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ सकते जिनमें ये लिखा है कि मस्जिद को बाबर ने ही बनवाया था।
ज़मीन पर अपना दावा और मज़बूत करने के इरादे से डॉक्टर राजीव धवन ने बहुत से दस्तावेज़ों, शिला लेखों और दूसरे सबूतों को भी अदालत के सामने पेश किया। इनमें से कई अरबी और फ़ारसी भाषा में अल्लाह लिखा हुआ था।
असर के लिए आगाह किया
डॉक्टर धवन ने अदालत को इस बात से भी आगाह किया कि अगर वो जन्मभूमि का दावा मान लेती है, तो उसका क्या असर होगा। धवन ने कहा कि जन्मस्थान का तर्क दो वजहों से दिया जा रहा है। एक तो मूर्ति पूजा के लिए दूसरा ज़मीन के लिए।
डॉक्टर राजीव धवन ने अदालत से कहा कि, 'ये लोगों की आस्था ही है, जो उन्हें जोड़ती है। अब सर्वोच्च अदालत को इस मामले में विचार करना है। हमें न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है कि वो इस मसले को हल करेगी और इस बेहद संवेदनशील मामले में फ़ैसला सुनाएगी। जिससे इस विवाद से जुड़े सभी पक्षों का भला होगा।