200 साल पुराने ग़दर पर आखिर क्यों लड़ रहे हैं बीजद और भाजपा?

मंगलवार, 1 अगस्त 2017 (11:35 IST)
संदीप साहू (भुवनेश्वर से)
केंद्र में जब से नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई है, तब से कई बार सरकार पर भारतीय इतिहास को नए सिरे से लिखने के आरोप लगे हैं। इसी क्रम में बीजेपी अब आज से ठीक दो सौ साल पहले ओडिशा में हुए 'पाइक विद्रोह' को राजनैतिक फायदे के लिए भुनाना चाह रही है। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ बीजू जनता दल (बीजद) भी इस होड़ में पीछे नहीं रहना चाहती।
 
20 जुलाई, 2017 को जब नई दिल्ली के विज्ञान भवन में हुए एक भव्य समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 'पाइक विद्रोह' की 200वीं वर्षगांठ पर केंद्र सरकार द्वारा आयोजित होने वाले वर्षव्यापी कार्यक्रम का उद्घाटन किया तो वहाँ बीजद प्रमुख और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और बीजेपी में उनके विकल्प के रूप में देखे जा रहे केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान दोनों उपस्थित थे।
 
बीजद बनाम बीजेपी
इस समारोह में जहाँ प्रधान ने खोर्धा के बरुनेई पहाड़ के पास 'पाइक विद्रोह' का स्मारक बनाने के लिए ओडिशा सरकार से ज़मीन मुहैया कराने की अपील की तो वहीं पटनायक ने इस बगावत को 'आज़ादी की पहली लड़ाई' की मान्यता दिए जाने की अपनी मांग दोहराई।

समारोह के एक दिन पहले पटनायक ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर यह मांग रखी थी। रोचक बात यह है कि 200 साल पहले हुई इस लड़ाई के बारे में ओडिशा की नई पीढ़ी को भी बहुत कम पता है। लेकिन राजनीति की बिसात पर इसे मोहरा बनाये जाने की संभावना को क्षेत्रीय दल बीजद नहीं बल्कि राष्ट्रीय दल बीजेपी ने पहले भांपा था।
 
धर्मेंद्र प्रधान की अगुवाई में केंद्र सरकार ने 2017 में इस ग़दर की 200वीं वर्षगांठ मनाए जाने की घोषणा ही नहीं की, बल्कि 2017-18 वित्तीय वर्ष के लिए बजट में पूरे एक साल चलने वाले इस समारोह के लिए 600 करोड़ रुपयों का प्रावधान भी कर दिया। बीजेपी को इस मुद्दे पर शाबाशी बटोरते देख अब बीजद भी इस पर राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश में जी जान से जुट गई है।
 
क्या था पाइक विद्रोह?
अब सवाल ये है कि क्या था यह 'पाइक विद्रोह' जिसे 200 साल बाद इन दो पाटियों ने इतिहास के पन्नों से लेकर राजनीति के मैदान पर ला खड़ा किया है?
 
साल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को हराकर ओडिशा पर कब्ज़ा किया। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेज़ों ने खोर्धा के तत्कालीन राजा मुकुन्ददेव-2 से पुरी के विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन छीन लिया। चूंकि मुकुन्ददेव-2 उस समय नाबालिग थे, इसलिए राज्य चलाने का पूरा भार उनके प्रमुख सलाहकार जयी राजगुरु संभाल रहे थे। जयी राजगुरु को यह अपमान बर्दाश्त नहीं था और उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग छेड़ दी। लेकिन राजगुरु को कंपनी की फ़ौज ने गिरफ्तार कर लिया और फांसी दे दी।
अंग्रेज़ शायद यह मानकर चल रहे थे कि जिस बेरहमी से राजगुरु को बीच चौराहे पर फांसी दी गई उससे सहमकर ओडिशा के लोग बगावत से बाज आएंगे, लेकिन हुआ बिलकुल इसके विपरीत। राजगुरु की फांसी के बाद अंग्रेज़ों के खिलाफ गुस्सा उमड़ पड़ा और जगह-जगह उन पर हमले शुरू हो गए।
 
कौन थे पाइक?
पाइक खोर्धा के राजा के वह खेतिहर सैनिक थे, जो युद्ध के समय शत्रुओं से लड़ते थे और शांति के समय राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने में मदद करते थे। इसके बदले में उन्हें राजा की ओर से मुफ्त में जागीर मिली हुई थी, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्ता हथियाने के बाद समाप्त कर दिया।
 
यही नहीं, कंपनी ने किसानों के लगान कई गुना बढ़ा दिया, 'कौड़ी' की जगह रौप्य सिक्कों का प्रचलन किया और नमक बनाने पर पाबन्दी लगा दी। सन 1814 में पाइकों के सरदार बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र, जो मुकुन्ददेव-2 के सेनापति थे- की जागीर छीन ली गई और उन्हें पाई पाई के लिए मोहताज़ कर दिया।
 
इसके बाद अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लोगों का गुस्सा और बढ़ गया। बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में पाइकों ने जंग छेड़ दिया। शीघ्र ही इस लड़ाई में खोर्धा के अलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक, कनिका, कुजंग और केउंझर के बागी भी शामिल हो गए।
 
साल 1817 में अंग्रेज़ों के अत्याचार से नाराज़ घुमुसर (बर्तमान के कंधमाल) और बाणपुर के आदिवासी कंध संप्रदाय के लोग बख्शी के सेना के साथ मिलकर अंग्रेज़ों पर धावा बोल दिया। यह सम्मिलित आक्रमण इतना भीषण था कि अंग्रेज़ों को खोर्धा से दुम दबाकर भागना पड़ा।
 
बागियों ने करीब 100 अंग्रेज़ों की हत्या कर दी, सरकारी ख़ज़ाने को लूटा और खोर्धा में स्थित कंपनी के प्रशासनिक दफ्तर पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद भी विद्रोहियों ने कई जगह अंग्रेज़ों को मात दी, लेकिन आखिरकार कंपनी के बेहतर युद्धास्त्र के सामने उन्हें हारना पड़ा। कई बागियों को फांसी दी गई, कइयों को बंदी बना लिया गया और 100 से भी अधिक लोगों को तड़ीपार कर दिया गया। 1917 के हीरो बख्शी जगबंधु की कटक के बारबाटी किले में बंदी बनाया गया जहाँ 1821 में उनका देहांत हो गया। 1817 से शुरू हुआ जंग 1827 तक चलता रहा, लेकिन अंत में अंग्रेज़ों की जीत हुई।
क्या कहते हैं इतिहासकार?
राज्य सरकार का तर्क है कि चूँकि 'पाइक विद्रोह' एक व्यापक और जायज़ लड़ाई थी और 'सिपाही विद्रोह' से पूरे 40 साल पहले हुआ इसलिए उसे आज़ादी की पहली लड़ाई की मान्यता दी जानी चाहिए। लेकिन इतिहासकार इस तर्क से सहमत नहीं हैं।
 
उनका कहना है कि इससे पहले भी ओडिशा, बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में बगावत हुई है। इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर प्रीतिश आचार्य कहते है कि राजनेताओं को इस पर बहस करने के बजाय ये निर्णय इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन इतिहासकारों का एक तबका मानता है कि देश के इतिहास में 'पाइक विद्रोह' को उसका उचित दर्ज़ा नहीं मिला है। ऐसे ही कुछ इतिहासकारों को लेकर सरकार ने एक कमिटी बनाई है और उसे सारे तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर एक दस्तावेज तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी है, जो केंद्र सरकार को सौंपी जाएगी।
 
2019 का चुनाव
इसमें कोई संदेह नहीं है कि 'पाइक विद्रोह' को लेकर बीजद और बीजेपी के बीच चल रही रस्साकस्सी 2019 में होने वाले चुनाव के चलते है। दोनों ही पार्टी ओड़िया वीरों की गाथा सुनाकर लोगों का दिल जीतने की कोशिश में लगे हुए है और यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि अगले चुनाव में इसे भुनाया जा सकता है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इस मामले में पहल कर बीजेपी ने शुरुआती बढ़त ले ली है।

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