73 साल के चीन के प्रधानमंत्री चऊ एनलाई बर्फ़ीली हवाओं के थपेड़ों के बीच बीजिंग हवाई अड्डे के टरमैक पर खड़े थे। उनके इर्द-गिर्द थे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ प्रतिनिधि और वरिष्ठ सरकारी और सैनिक अफ़सर। अभी दोपहर नहीं हुई थी। दिन था 12, फ़रवरी, 1972। बार-बार उनकी निगाहें आते हुए हवाई जहाज़ को ढ़ूंढने के लिए आसमान में उठ जाती थीं। उस जहाज़ से आ रहे थे रिचर्ड निक्सन, चीन की यात्रा पर आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति।
उस दिन राष्ट्राध्यक्षों के आगमन जैसा कोई तामझाम नहीं था बीजिंग हवाई अड्डे पर। न कोई रेड कारपेट और न ही दोनों देशों की राष्ट्रधुन बजाने के लिए तत्पर कोई सैनिक बैंड। अमेरिका मेहमान के स्वागत के लिए परंपरागत 21 तोपों की सलामी देने के लिए कोई तोप भी नहीं थी।
हवाई अड्डे के टर्मिनल भवन पर धीमे-धीमे फहराते चीनी और अमेरिकी झंडों से ही थोड़ा बहुत संकेत मिल रहा था कि किसी बड़े कूटनीतिक क्षण का सबको इंतज़ार है। अचानक आसमान में राष्ट्रपति निक्सन का विमान दिखाई दिया। उस ज़माने में उसे 'एयरफ़ोर्स वन' नहीं कहा जाता था। उसका नाम था, 'स्पिरिट ऑफ़ 76.' आनन-फानन में सीढ़ियां लगाई गईं। पूरी दुनिया की नज़रें विमान के दरवाज़े पर थीं।
'दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी'
ऊर्जा से ओतप्रोत निक्सन ने तेज़ी से सीढ़ियां उतरना शुरू किया। वो अपने मेज़बान से हाथ मिलाने के लिए इतने तत्पर थे कि उन्होंने दरवाज़े से बाहर निकलते ही अपने हाथ आगे बढ़ा दिए थे।
नीचे खड़े चऊ एनलाई ने तब तक अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया जब तक निक्सन के पैरों ने चीन की धरती को नहीं छू लिया। और तब भी वो अपने हाथ को अपनी कोहनी की सीध तक ही ऊपर ले गए क्योंकि बरसों पहले एक लड़ाई में लगी चोट के कारण वह अपने हाथ को इससे ऊपर उठा ही नहीं सकते थे।
चऊ एनलाई बहुत प्रफुल्लित दिखाई नहीं दे रहे थे। उन्हें पता था कि उन्होंने 'दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी' का स्वागत कर बहुत बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाया है।
चऊ ने ये सुनिश्चित किया था कि अगले दिन चीनी अख़बारों में उनके निजी फ़ोटोग्राफ़र की ली हुई तस्वीर ही छपें जिसमें साफ़ दिख रहा था कि निक्सन अपना हाथ बढ़ाते हुए नीचे उतर रहे हैं और नीचे खड़े चऊ मुस्कुराते हुए बिना अपने हाथों को हिलाए उनका इंतज़ार कर रहे हैं। उस रात भोज में भी जब उन्होंने राष्ट्रपति निक्सन को होस्ट किया तो इस बात का ध्यान रखा कि उनके गिलास का किनारा निक्सन के गिलास के बिल्कुल बराबर हो।
चऊ की सबसे बड़ी ख़ूबी
आम लोगों को ये सब अनावश्यक विवरण लग सकते हैं। लेकिन इन्हीं विवरणों में चीनी कूटनीति की सूक्ष्म भाषा छिपी होती है। चऊ के जीवनीकार गाओ वेनकियान लिखते हैं कि चऊ ने अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन से पहले इन सब भंगिमाओं का बाकायदा अभ्यास किया था।
उन्होंने पहले से ही तय कर रखा था कि वो अमेरिकी राष्ट्रपति से न तो बहुत घुलेंगे-मिलेंगे और न ही उनसे बहुत दूरी बनाएंगे। उनके मिलने में न तो बहुत गर्मजोशी होगी और न ही बहुत ठंडापन। चऊ की सबसे बड़ी ख़ूबी थी पलक झपकते ही ये भांप लेना कि उनके नेता माओ क्या सोच रहे हैं या क्या सोचने वाले हैं।
अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने अपनी आत्मकथा 'वाइट हाउज़ ईयर्स' में उनके बारे में लिखा था, "जब मैं चऊ से पहली बार 1971 में मिला था तब तक उन्हें चीनी कम्युनिस्ट आंदोलन का नेता बने क़रीब पचास साल हो चुके थे। चाहे दर्शन हो या ऐतिहासिक विश्लेषण, रणनीतिक परख, संस्मरण या हाज़िरजवाबी, सब पर उनकी बराबर की पकड़ थी। उनकी ख़ास तौर से अमेरिकी मामलों और मेरी ख़ुद की पृष्ठभूमि की जानकारी अद्भुत थी। वो अपना एक भी शब्द ज़ाया नहीं करते थे। ये ज़ाहिर करता था कि वो कितने सुलझे हुए इंसान थे।"
माओ के नंबर 2
भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के मन में भी चऊ एनलाई के लिए बहुत इज़्ज़त है। उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा, "उनके बराबर दुनिया में बीसवीं सदी में कोई कूटनीतिज्ञ पैदा नहीं हुआ। करिश्मा तो ख़ैर था ही उनमें। लॉन्ग मार्च में रहे थे वो। जन संपर्क और कूटनीति में उनकी समझ जितनी थी, दूसरे किसी में नहीं थी।"
लेकिन कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र में चऊ एनलाई का राजनीतिक करियर पूरी तरह से दाग़रहित नहीं था। उनके एक जीवनीकार गाओ वेन क्विन लिखते हैं, "चऊ दीवार में एक मामूली दरार ढ़ूढ़ने में निपुण थे जिससे वो लोगों को भरमा सकें कि वो अपने फ़ैसले लेने में तटस्थ हैं। असल में वो माओ के वफ़ादार कुत्ते की तरह हमेशा उनके पीछे चलते और अपनी खाल बचाने के लिए अनर्गल प्रलाप का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते।"
"उनका राजनीतिक अस्तित्व इसलिए भी बना रहा क्योंकि उन्होंने माओ की अधीनता को बिना किसी हील हुज्जत के स्वीकार किया। वो हमेशा माओ के अभिन्न सहायक रहे लेकिन उन्होंने उनका हमेशा तिरस्कार किया। उन्होंने कभी भी कोई राजनीतिक जोखिम नहीं उठाया। इसलिए वो हमेशा माओ के नंबर 2 बन कर रहे।"
पहली अक्टूबर की परेड
भारत के विदेश मंत्रालय में सचिव और सत्तर के दशक में चीन में भारत के शार्डी अफ़ेयर्स रहे लखनलाल मेहरोत्रा को 1955 में चऊ एनलाई से मिलने का मौक़ा मिला था जब वो एक भारतीय छात्र प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में चीन गए थे।
मेहरोत्रा याद करते हैं, "मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र था। मुझे चीन जाने वाले छात्रों के सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में चुना गया। जब हम चीन पहुंचे तो हमें सभी डेलीगेशनों के साथ पीकिंग होटल में ठहराया गया। पहले दिन जब हम लोग भोजन करने के लिए नीचे आए तो चऊ एनलाई हमारी मेज़ पर आ कर बैठ गए। उन्होंने हमसे पूछा कि आप लोगों में से कितने मांसाहारी नहीं हैं?
फिर उन्होंने पूछा कि आप लोगों को खाना संतोषजनक मिल रहा है या नहीं? हममें से कई ने कहा कि यहां खाना हमारी पसंद का नहीं है। इसका नतीजा ये हुआ कि हम उसके बाद जहां-जहां गए वहाँ हमें बेहतरीन शाकाहारी खाना मिला। ये बताता है कि वह छोटी-छोटी चीज़ों का भी इतना ख़्याल रखते थे।"
लखन मेहरोत्रा बताते हैं, "अगले दिन यानी एक अक्टूबर को जब परेड हुई तो हमें चीन के शीर्ष नेताओं के बॉक्स में ले जाया गया। क़रीब 110 देशों के डेलीगेशन चीन आए हुए थे। वह एक के बाद एक तियानमेन स्कवायर के सामने से गुज़र रहे थे। हम लोगों का डेलिगेशन जब वहां से गुज़रा तो परेड का नियंत्रण करने वाले लोगों ने हमसे कहा कि आप लोग अलग आ जाइए। हमें फ़ॉरबिडन सिटी के ऊपर ले जाया गया, जहाँ पूरी पोलित ब्यूरो परेड देख रहा था। वहां चऊ एनलाई ने खुद आगे बढ़कर माओत्से तुंग से हमें मिलवाया।"
चऊ एनलाई का भारत दौरा
चऊ एनलाई की इन्हीं ख़ूबियों की वजह से दुनिया भर के पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक उनके मुरीद थे। जाने-माने पत्रकार जैक एंडरसन ने अपनी किताब 'कनफ़ेशन ऑफ़ ए मकरेकर' में लिखा था, "मेरे ज़हन में चऊ एनलाई की जो याद बरकरार है वो है 45 साल की उम्र में भी उनका ख़ूबसूरत चेहरा और ग़ज़ब की बुद्धिमत्ता। वो दुबले-पतले ज़रूर थे लेकिन बेहद मेहनती भी थे।"
"उनका जीवन बहुत सादा था लेकिन वो बहुत ही सजीले इंसान थे। उनके उठने-बैठने का ढंग बहुत ख़ुशनुमा था। अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और चीनी भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। अमरीकी विदेश विभाग के सुदूर पूर्व विशेषज्ञ वॉल्टर रॉबर्टसन ने उनके बारे में एक बार कहा था कि उनके जैसा मनमोहक, अक्लमंद और आकर्षक इंसान किसी भी प्रजाति में मिलना बहुत मुश्किल था।"
1960 में चऊ एनलाई भारत आए थे। ये 1962 का युद्ध टालने की उनकी तरफ़ से आख़िरी कोशिश थी। लेकिन नेहरू से उनकी बातचीत असफल रही। नेहरू ने कहा कि उनके मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य भारत का पक्ष रखने के लिए उनसे मुलाकात करेंगे। चऊ एनलाई ने कहा कि उन मंत्रियों से मिलने वो ख़ुद उनके पास जाएंगे। उस यात्रा में पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, चऊ एनलाई के संपर्क अधिकारी थे।
भारत-चीन संबंध
नटवर सिंह याद करते हैं, "जब वो उप राष्ट्रपति राधाकृष्णन, पंडित पंत और मोरारजी देसाई से मिलने गए तो मैं उनके साथ था। चऊ एनलाई की मोरारजी भाई के साथ बैठक बहुत ख़राब हुई। उपराष्ट्रपति की बैठक भी सफल नहीं हो पाई। हां पंत जी से मुलाक़ात ठीकठाक रही। एक दिन अख़बार में कार्टून छपा जिसमें चऊ को एक कोबरा के रूप में दिखाया गया था।"
"उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है? मैंने कहा कि यहां अख़बार वाले नेहरू को भी नहीं बख़्शते हैं। चऊ बोले कि क्या आपकी नज़र में ये काम करने का सही तरीक़ा है। मैं चुप रह गया। उसके बाद चीज़ें बिगड़ती ही चली गईं। भारत-चीन संबंधों की पहल संसद के पास चली गई और नेहरू बैकफ़ुट पर आ गए।"
उसी यात्रा के दौरान चीनी दूतावास से राष्ट्रपति भवन आते हुए राजपथ पर चऊ एनलाई की कार ख़राब हो गई।
नटवर सिंह याद करते हैं, "चऊ एनलाई को सड़क पर उतरकर दूसरी कार का इंतज़ार करना पड़ा। उनके साथ चल रहे चीनी सुरक्षा अधिकारी बहुत परेशान हो गए। मैं उनकी बगल में बैठा हुआ था। उनके भारतीय सुरक्षा अधिकारी थे रामनाथ काव जो आगे चलकर ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के प्रमुख बने। वो आगे की सीट पर बैठे हुए थे।"
भारत के प्रति रुख
नटवर सिंह ने बताया, "हम दोनों ये सोच कर बहुत शर्मिंदा हुए कि चऊ सोच रहे होंगे कि भारत कितना फटीचर देश है जो विदेशी मेहमान को एक ठीक-ठाक कार भी उपलब्ध नहीं करा सकता। लेकिन चऊ की भावभंगिमा से ये लगा नहीं कि उन्हें कोई फ़र्क पड़ा हो।"
लेकिन 1973 आते-आते चऊ एनलाई का भारत के प्रति रुख़ या तो पूरी तरह से बदल चुका था, या फिर उसकी शुरुआत हो चुकी थी। उस समय चीन में भारत के शार्डी अफ़ेयर्स लखनलाल मेहरोत्रा एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं, "भुट्टो साहब बीजिंग आने वाले थे। चऊ एनलाई उन्हें लेने हवाई अड्डे पहुंचे हुए थे। हम लोग भी वहाँ मौजूद थे। हम सब लोगों से हाथ मिला कर चऊ एनलाई जहाज़ के नज़दीक पहुंच गए।"
"वहां से वो अचानक लौट कर आए और उन्होंने मेरे कंधे और गर्दन को थपथपा कर मुझसे कहा मिस्टर शार्डी अफ़ेयर्स, प्लीज़ टेल इंदिरा एवरी थिंग विल बी फ़ाइन। (दूत महोदय आप इंदिरा से कह दें कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।) दो चीज़ें महत्वपूर्ण थीं। उन्होंने इंदिरा शब्द का प्रयोग किया, यॉर प्राइम मिनिस्टर शब्द का नहीं। इस शब्द में बहुत अधिक स्नेह झलक रहा था। वो पुराने दिनों को याद कर रहे थे जब वो नेहरू से मिला करते थे और इंदिरा अक्सर उनके साथ हुआ करती थीं। और दूसरे वो मुझसे ख़ास तौर से ये बात कहने मेरे पास आए थे।"
कश्मीर का जिक्र
लेकिन उसके बाद थोड़ी गड़बड़ हो गई। उस रात चऊ एनलाई भुट्टो को भोज देने वाले थे, लेकिन अचानक उनकी तबीयत ख़राब हो गई। मेहरोत्रा याद करते है, "मुझे भी उस भोज में बुलाया गया था। चऊ एनलाई की जगह आए तंग शियाओ पिंग ने भाषण दिया और उसमें उन्होंने कश्मीर के लोगों की स्वायत्तता का ज़िक्र कर दिया। मुझे उस भोज से विरोधस्वरूप वॉक आउट करना पड़ा।"
"लेकिन अगले दिन मामला संभाल लिया गया। अगले दिन जब भुट्टो ने चऊ के सम्मान में भोज दिया तो कश्मीर का कोई ज़िक्र नहीं किया गया। बल्कि भुट्टो ख़ुद मेरे पास आ कर बोले कि आप लोग उठकर क्यों बाहर चले गए थे? मैं समझा कि आप दोनों टॉयलेट जा रहे हैं। मेरी पत्नी शीला ने तुरंत जवाब दिया, हमारे यहाँ मर्द और औरत कभी साथ-साथ टॉयलेट नहीं जाते हैं। सुनते ही भुट्टो ने ज़ोर का ठहाका लगाया।"
चऊ एनलाई की मौत
अपनी मौत से पहले चऊ एनलाई ने सुनिश्चित किया कि भारत और चीन के संबंधों को राजदूत स्तर पर फिर से ले आया जाए। उन्हीं का प्रयास था कि के आर नारायणन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, चीन में भारत के राजदूत बन कर गए।
साल 1975 आते-आते चऊ एनलाई गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें पेट का कैंसर हो गया। आख़िरी बार वो अस्पताल से अपने बाल कटवाने अपने नाई ज़ू दिन हुआ के पास गए। उन्होंने ज़ू से कहा, "चलो मेरे साथ तस्वीर खिंचवाओ।" लेकिन वहाँ कोई फ़ोटोग्राफ़र मौजूद नहीं था।
तीन महीने बाद उनके नाई ज़ू ने उन्हें संदेश भिजवाया, "क्या मैं प्रधानमंत्री के बाल काटने आ सकता हूँ?" चऊ एनलाई ने जवाब दिया, "उसको यहां मत आने दो। मुझे इस हाल में देखकर उसका दिल टूट जाएगा।" आठ जनवरी, 1976 को सुबह 9 बज कर 25 मिनट पर चऊ एनलाई ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।