पूर्वोत्तर के चुनाव परिणामों से अगर गुजरात चुनाव और राजस्थान, मध्यप्रदेश के उप-चुनावों के नतीजों से पस्त हो रही भाजपा में उत्साह की नई लहर आई है तो विपक्ष पर इसका असर सबसे पहले उत्तर प्रदेश में दिखा है। 23 साल बाद बसपा और समाजवादी पार्टी के साथ आने के संकेत दिख रहे हैं।
बसपा नेता मायावती ने गोरखपुर और फूलपुर उप-चुनाव में सपा उम्मीदवारों को समर्थन देने के साथ राज्यसभा और विधान परिषद चुनाव में एक-दूसरे के उम्मीदवारों की मदद की घोषणा की है। बसपा अभी तक उप-चुनाव नहीं लड़ती थी। पर न लड़ने और घोषित समर्थन में बहुत फर्क है।
इसीलिए मायावती के गठबंधन न करने की घोषणा के बावजूद इस परिदृश्य को राजनीतिक पंडित बहुत महत्व दे रहे हैं। पिछली बार जब सपा और बसपा ने साथ चुनाव लड़ा था तो बाबरी विध्वंस के बाद ताकतवर दिख रही भाजपा बुरी तरह हारी थी।
समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कहा था कि समाज में जो तीन नई लहरें- मंडल, कमंडल और भूमंडलीकरण पैदा हुई हैं, उनमें से दोनों नुकसानदेह शक्तियों, कमंडल और भूमंडलीकरण को काटने की ऊर्जा मंडल में है।
'सही हुई थी भविष्यवाणी'
तब के उत्तर प्रदेश चुनाव में उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई थी। पर इन पच्चीस सालों में काफी कुछ बदला है। सबसे ज्यादा तो पच्चीस साल तक राज करने के चलते मंडलवादी शक्तियों को समेटने वाली सपा और बसपा की राजनीति बदली है-सपा एक परिवार की जायदाद बन गई है तो बसपा एक व्यक्ति की। इनकी विश्वसनीयता भी घटी है।
इसीलिए यह लगता है कि अगर सपा-बसपा की इस नई दोस्ती को मजबूत होना है या प्रदेश-देश की राजनीति में कुछ बड़ा करना है तो काफी और चीजें करनी होंगी। सिर्फ लोकसभा उपचुनाव, राज्यसभा और विधान-परिषद के द्विवार्षिक चुनाव में साथ का बहुत सीमित अर्थ है और कई बार इसका उल्टा असर भी हो सकता है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने केर-बेर की दोस्ती कहकर राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास शुरू भी कर दिया है।
अखिलेश यादव तो एक दौर में भाजपा विरोधी गठजोड़ की वकालत करके चुप हो गए पर मायावती ने लोकसभा चुनाव में बसपा के सफाए के बाद पहली बार रुख बदला है- पर यह क्षेपक लगा ही हुआ है कि यह गठबंधन नहीं है। अखिलेश भी सिर्फ बयान से आगे कहीं नहीं बढ़े हैं और उनके नेतृत्व वाली सपा सड़क पर उतरने से अभी भी परहेज कर रही है।
पर बात अगर अभी अजेय दिख रहे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत विकल्प बनाने और चुनौती देने की हो, तो सिर्फ बुआ-भतीजे की तरफ देखने से काम नहीँ चलेगा। इस मुहिम में अन्य दलों और नेताओं को भी आगे आना होगा और अगर कांग्रेस का दावा सबसे बड़े विपक्षी दल का है तो उसकी जिम्मेदारियां सबसे ज्यादा हैं।
सबके अपने पुण्य-पाप
आपातकाल विरोध की राजनीति और उसके बाद हुए चुनाव में लगभग पूरे विपक्ष द्वारा एक जनता पार्टी बनाने का उदाहरण भी याद रखना होगा। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, करुणानिधि-स्टालिन, शरद पवार जैसों को भी अपना पक्ष साफ करते हुए कुछ जिम्मेवारियाँ निभानी होंगी।
इनमें से हर किसी की अपनी ताकत है, हर किसी के अपने पुण्य-पाप हैं। सो सिर्फ पुण्य ही पुण्य की गिनती नहीं हो सकती तो सिर्फ पाप ही पाप गिनवाने से भी कुछ नहीं होगा।
कुछ बातें भूलनी होंगी तो कुछ नई चीज़ें करनी होंगी। पहला काम तो जनता से जुड़े मुद्दों की सक्रियता है क्योंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी टोली सबसे जिम्मेवार पद पर बैठने की स्वाभाविक ड्यूटी करने से भी ज्यादा समय और ऊर्जा चुनाव जीतने की रणनीति बनाने और काम करने पर लगाती है।
उसके मुकाबले पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स से काम नहीं चलेगा। यह बात अकेले कांग्रेसी राहुल गांधी पर ही लागू नहीं होती, सारे विपक्षी नेता ऐसा ही करते दिखते हैं। मोदी से नाराज़गी के बाद मौका मिलने की सोच बदलनी होगी क्योंकि मोदी, शाह से लेकर देवधर और राम माधव तक 365 दिन और 24 घंटे काम करने वाले कार्यकर्ता हैं।
पर सिर्फ जुटान करने और चौबीस घंटे सक्रिय रहने भर से भी बहुत बात नहीं बनेगी। मोदी और उनकी टीम एक साफ और दीर्घकालिक एजेंडे के अनुसार काम करती है। अगर उसके मुकाबले खड़ा होना है तो कम से कम कुछ बुनियादी मसलों पर साफ दृष्टि बनाने और सहमति लेकर आगे चलना होगा।
राजनीति की एकता के सूत्र
विपक्षी एकता के या नई गठबंधन की राजनीति के एकता के सूत्रों पर काफी बातें की जा सकती हैं पर कम से कम तीन चार चीजेँ बुनियादी होनी चाहिए। गांव-खेती को नुकसान करने वाली और रोजगार न पैदा करने वाली अर्थनीति का विरोध पहला मुद्दा हो सकता है।
पार्टी से लेकर शासन तक के स्वरूप का लोकतांत्रिक होना दूसरा आधार होगा और इसकी शुरुआत गठबंधन बनाने-चलाने की प्रक्रिया से ही होगी। तीसरी चीज़ समाज के कमजोर और अल्पसंख्यक जमातों के हितों पर होने वाले हर हमले का विरोध। मोदी राज में यह क्रम बढ़ा है। और इस क्रम को बदलना भी नहीं होगा।
धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा बड़ा है पर जैसे ही सेकुलरिज्म वाले मुद्दे आर्थिक-सामाजिक मुद्दों से ऊपर आते हैं संघ परिवार और मोदी जी की राजनीति को सुभीता हो जाती है। हमारे वामपंथी भाई बार-बार यही गलती करके संघ के एजेंडे से लड़ने के नाम पर उसे बढ़ाने में मदद करते रहे हैं।
यह भी ध्यान रखना होगा कि विपक्ष के नाम पर कई लोग शासक पक्ष का काम ही बढ़ाते हैं। इसलिए व्यक्ति की जगह एजेंडे को ऊपर रखना होगा। कुछ लोग तो छूटेंगे ही। काम के आधार पर ही नेतृत्व तय होना चाहिये।
यह याद रखना चाहिये कि यूपी की एक राजनैतिक घटना पर अगर इतनी लम्बी समीक्षा की जा रही है, इतने दूर की बातें कही जा रही हैँ, तो यह कितनी बड़ी जरूरत है। फिर अगर मायावती और अखिलेश झिझक से एक कदम बढ़ाते हैं तो राहुल गांधी, शरद पवार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक को चार-छह कदम बढ़ाने ही होंगे।