सरोज सिंह बीबीसी संवाददाता
गुरुवार को एम्स निदेशक के हवाले से देश के तमाम मीडिया चैनल और सोशल मीडिया में एक बयान चल रहा था - "जून-जुलाई में अपने चरम पर होगा कोरोना- डॉ. रणदीप गुलेरिया"
शुक्रवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि कोरोना का पीक आने वाला है। जब उनसे इससे जुड़ा एक सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, "मैं एक्सपर्ट नहीं हूँ। लेकिन मुझे लगता है पीक और देर से आएगा। मगर ये पीक जब भी आए, जून में आये या जुलाई या अगस्त में आए हमें लॉकडाउन से ट्रांजिशन के लिए तैयार रहना चाहिए।"
शुक्रवार को केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने कहा है कि अगर सरकार द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन करें तो हो सकता है कि कोरोना का पीक आये ही ना।
लेकिन ये पीक क्या है- इसका मतलब कहीं नहीं समझाया जा रहा। उस पीक में रोज़ कितने मामले सामने आएंगे, इस पर भी कोई बात नहीं हो रही। हर कोई इस बयान को अपने हिसाब से समझ रहा है। कोई कह रहा है अब लॉकडाउन आगे भी बढ़ाया जाएगा, अब तो दुकानें फिर से बंद करनी पड़ेंगी...वगैरह-वगैरह...
डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने क्या कहा?
इन तमाम सवालों के साथ बीबीसी ने एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया के पूरे वक्तव्य को दोबारा सुना और समझने की कोशिश की ताकि ये पता लगाया जा सके कि आख़िर इस बयान का आधार क्या है?
दरअसल रणदीप गुलेरिया से सवाल पूछा गया था - "क्या भारत में कोरोना का पीक आना बाकी है।"
रणदीप गुलेरिया का जवाब था, "अभी तो केस बढ़ रहे हैं। पीक तो आएगा ही। पीक कब आएगा, ये मॉडलिंग डेटा पर आधारित होता है। कई एक्सपर्ट ने इसकी डेटा मॉडलिंग की है। इंडियन एक्सपर्ट ने भी की है और विदेशी एक्सपर्ट ने भी की है। ज़्यादातर लोगों का मानना है कि जून-जुलाई में पीक आ सकता है। कुछ एक्सपर्ट ने इससे पहले भी पीक आने की बात कही है। कुछ एक्सपर्ट ने कहा है कि इसके आगे अगस्त तक भी पीक आ सकता है।"
इसके आगे रणदीप गुलेरिया ने कहा, "मॉडलिंग डेटा कई वेरिएबल्स (फैक्टर) पर निर्भर करता है। पहले के मॉडलिंग डेटा में अगर आप देखें तो ये कहा गया था कि कोरोना पीक मई में आएगा। उस मॉडलिंग डेटा में ये फैक्टर शामिल नहीं किया गया था कि लॉकडाउन आगे बढ़ेगा। उसको फैक्टर इन किया गया तो पीक का टाइम आगे बढ़ गया है। ये एक डायनमिक प्रोसेस है यानी निरंतर बदलते रहने वाली प्रक्रिया है। हो सकता है हफ्ते भर बाद की स्थिति को देख कर मॉडलिंग डेटा देने वाले अपना पूर्वानुमान बदल दें।"
दरअसल, डॉ. रणदीप गुलेरिया का पूरा बयान सुनने पर ये साफ़ हो जाता है कि उनके बयान का आधार मैथेमेटिकल डेटा मॉडलिंग है। लेकिन वो कौन-सी डेटा मॉडलिंग है, कहां के एक्सपर्ट ने की है? क्या ये उनके ख़ुद की है? इसके बारे में ना तो उनसे सवाल पूछे गए और ना ही उन्होंने इसका जवाब दिया।
हां, एक जगह डॉ. गुलेरिया ने ज़रूर कहा कि कई बार ज़मीनी परिस्थितियां देख कर इस तरह के पूर्वानुमान बदल भी जाते हैं। डॉ रणदीप गुलेरिया से यही सवाल करने के लिए बीबीसी गुरुवार शाम से ही उनसे सम्पर्क करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इस स्टोरी के लिखे जाने तक उनका जवाब नहीं मिल पाया है।
कैसे होती है डेटा मॉडलिंग?
ये समझने के लिए बीबीसी ने सम्पर्क किया प्रोफेसर शमिका रवि से। प्रोफेसर शमिका रवि अर्थशास्त्री हैं और सरकार की नीतियों पर रिसर्च करती हैं। वो प्रधानमंत्री के इकोनॉमिक एडवाइज़री काउंसिल की सदस्य भी रही हैं।
कोरोना काल में वो हर रोज़ कोरोना की ग्राफ़ स्टडी करते हुए अपने नतीज़ों को ट्वीटर पर साझा करती रही हैं।
शमिका रवि ने बीबीसी को बताया, "इस तरह के डेटा मॉडलिंग स्टडी दो तरह के जानकार करते हैं। पहला, मेडिकल फ़ील्ड से जुड़े एपिडेमियोलॉडिस्ट यानी महामारी रोग विशेषज्ञ स्टडी करते हैं। ये एक्सपर्ट इंफेक्शन रेट डेटा के आधार पर अपना अनुमान बताते हैं। ये ज़्यादातर थ्योरेटिकल मॉडल होते हैं। दूसरा अर्थशास्त्री वर्तमान के डेटा को देख कर ट्रेंड को समझने और समझाने की कोशिश करते हैं। वो देश में उस वक़्त अपनाई जाने वाली नीतियों के आधार पर अपना विश्लेषण करते हैं जो ज्यादतर एविडेंस (प्रमाण) के आधार पर होता है।"
हालांकि शमिका ने साफ़ कहा कि डॉ गुलेरिया का बयान उन्होंने नहीं सुना है। इसलिए उन्हें नहीं पता कि वो किस मॉडल की बात कर रहे हैं।
उनके मुताबिक़ एपिडेमियोलॉजिकल डेटा में दिक्कत ये होती है कि कभी-कभी स्टडी 2 महीने पहले की गई होती है, तो नतीज़े अलग आते हैं। आज की परिस्तिथियों में नतीजे बदल जाते हैं। मसलन मार्च की स्टडी अगर मई में पीक आने की बात कहती है, तो हो सकता है उसमें उन्होंने निजामुद्दीन का मरकज़ मामला, या लॉकडाउन बढ़ाने की बात, या लॉकडाउन के तीसरे चरण में शराब की दुकानों में छूट की बात का जिक्र ना किया गया हो।
शमिका कहती हैं, "एपिडेमियोलॉजिकल मॉडल में कई मापदंड़ होते हैं जिन पर उनका डेटा निर्भर करता है। इसलिए अगर आप भारत का डेटा नहीं लेते हैं, अर्बन-रुरल डेटा को नहीं देखते, भारतीयों की ऐज प्रोफाइल नहीं देखते, ज्वाइंट फैमिली कॉन्सेप्ट को नहीं देखते, तो आपकी स्टडी के नतीज़े बहुत सटीक नहीं आएंगे। ज्यादातर स्टडी में पैरामीटर यूरोप के लिए जा रहे हैं। इसलिए हर हफ्ते ये मॉडलिंग डेटा नया पीक देते हैं।"
ताज़ा पीक की तारीख़ पर कितना विश्वास करें
शमिका रवि बताती हैं कि डॉक्टर जब तक मॉडलिंग डेटा के पैरामीटर जस्टिफाई नहीं करते, उसकी वैलिडिटी भारत के लिए बहुत सीमित हो जाती है। पिछले 3 दिन से भारत में रोज़ 3000 से ज्यादा कोरोना पॉज़िटिव मामले सामने आ रहे हैं। जबकि दस दिन पहले तक 1500 से 2000 नए मामले रोज सामने आ रहे थे।
इतना ही नहीं, जिस डबलिंग रेट का ज़िक्र करते हुए सरकार पहले अपनी पीठ थपथपा रही थी, वो भी अब घटने लगा है। पहले 12 दिन तक पहुंच गया था। अब 10 दिन के आस-पास रह गया है।
पहले और दूसरे लॉकडाउन के दौरान कुछ एक मामलों को छोड़ दिया जाए तो लॉकडाउन का सख्ती से पालन देखने को मिला। लेकिन लॉकडाउन 3.0 में कई इलाकों में छूट दी गई। इसके बाद शराब की दुकानों की लगी भीड़ हम सभी ने देखी। अब अप्रवासी मजूदरों को लाखों की संख्या में एक जगह से दूसरी जगह ट्रेनों से ले जाया जा रहा है। अब विदेशों से भी लोगों को स्वदेश लाया जा रहा है। ऐसे में कोरोना मामलों के बढ़ना का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
शमिका रवि कहती हैं, "एक लॉकडाउन ख़त्म होने पर दूसरा लॉकडाउन तो नहीं किया जा सकता। कोरोना वायरस ऐसी बीमारी तो है नहीं, जिसका ट्रीटमेंट आपके पास है। अब तो इसके लिए मैनेजमेंट ही करना होगा। आप केवल संक्रमण के दर को कम कर सकते हैं, इसे फिलहाल पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते। सरकार को तैयारी करने के लिए जितना समय चाहिए था वो मिल गया है। लेकिन अब आगे ऐसे ही नहीं चल सकता। देश के डॉक्टरों को ये बात भी समझनी ही होगी।"
ऐसे में एम्स डायरेक्टर के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं?
सबसे अहम सवाल है कि जून-जुलाई की पीक वाले मॉडलिंग डेटा का आधार क्या है?
ये डेटा किस सरकारी एजेंसी का है? या फिर एम्स के डॉयरेक्टर ने खुद दिया है?
उसके वेरिएबल्स क्या हैं या आधार क्या हैं?
ये भारतीय मानकों के आधार पर लिया गया है या नहीं?
ये स्टडी किस अवधि में की गई है?
क्या लॉकडाउन 3 की रियायतों और ट्रेन और प्लेन से लाने ले जाने वालों को इसमें जोड़ा गया है?
और इस पीक की परिभाषा क्या है?
जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिल जाते, इस तरह की स्टडी और दावों पर विश्वास ज़रा मुश्किल है।