कोविड-19 संक्रमण के बढ़ते मामलों पर चर्चा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को सभी मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई है।
जनवरी 2020 में धीमी गति से शुरू हुए भारत के टीकाकरण अभियान ने अब तेज़ी पकड़ ली है। कइयों को उम्मीद थी कि जितने ज़्यादा लोगों को वैक्सीन लगेगी, कोरोना के नए मामले उतने की कम देखने को मिलेंगे। लेकिन हो इससे उल्टा रहा है। इसके पीछे क्या कारण हैं, आइए आँकड़ों की मदद से समझने की कोशिश करते हैं।
14 मार्च तक भारत में कोविड-19 वैक्सीन की 2।9 करोड़ से ज़्यादा डोज़ लगाई गई। जिनमें से 18 प्रतिशत को दूसरी डोज़ दी जा चुकी है।
सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और दिल्ली जैसे छोटे राज्यों ने प्रति 10 लाख की आबादी के हिसाब से सबसे ज़्यादा टीके लगाए हैं। हालांकि दूसरे राज्य भी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। केरल, राजस्थान और गोवा ने अपनी प्रति 10 लाख की आबादी पर 35,000 से अधिक डोज़ दे दी है।
ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को वैक्सीन भले ही लग रही है लेकिन रोज़ाना बढ़ रहे कोरोना के मामलों ने चिंता भी बढ़ा दी है। ज़्यादातर राज्यों में हर दिन सामने आ रहे नए मामलों का ग्राफ ऊपर जा रहा है।
मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में फिर से रोज़ 13,000 से ज़्यादा नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं, जो जनवरी में एक दिन में 3,000 से कम तक नीचे आ गए थे।
पंजाब जैसे छोटे राज्यों में, जहां जनवरी की शुरुआत में रोज़ 300 से कम मामले दर्ज किए जाने लगे थे, अब वहां दोबारा 1200 से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। ये जनवरी से 5 गुना अधिक हैं।
वैक्सीन का असर
क्या वैक्सीन मामलों में बढ़ोतरी को रोक सकती है? ये समझने के लिए, देखना ज़रूरी है कि भारत में अब तक कितनी आबादी को वैक्सीन दी जा चुकी है।
मान लीजिए कि भारत में 100 लोग रहते हैं, तो उस हिसाब से उनमें से अब तक 2.04 को वैक्सीन मिली है। ये 2.04 डोज़ भी उन लोगों को मिली है, जो स्वास्थ्य कर्मी/फ्रंटलाइन वर्कर हैं या गंभीर बीमारियों से जूझ रहे 45 साल से ज़्यादा उम्र वाले और 60 साल से अधिक उम्र वाले लोग हैं।
अब तमिलनाडु का उद्हारण देखते हैं, जिसने जेंडर और उम्र के आधार पर रोज़ के नए मामलों का डेटा जारी किया है।
एक मार्च से जब से आम लोगों के लिए टीकाकरण शुरू किया गया है, तब से इस उम्र के लोगों (60+) की रोज़ के मामलों में संख्या कम हुई है। जनवरी की शुरुआत में नए मामलों में वृद्धि लोगों की संख्या 24 प्रतिशत थी और एक मार्च के बाद से अब 22-23 प्रतिशत तक आ गई है।
तमिलनाडु में 60+ उम्र के मामलों में आई कमी बहुत ही छोटे स्तर की है और ऐतिहासिक सीमा के अंदर ही बनी हुई है।
क्या हम इसे वैक्सीन का असर मान सकते हैं? ये कहना जल्दीबाज़ी होगी क्योंकि वायरस सभी उम्र के लोगों में समान रूप से फैल रहा है। तो हमें कब पता चलेगा कि वैक्सीन बढ़ते मामलों के ख़िलाफ़ प्रभावी हो सकती है?
अगर आने वाले महीनों में रोज़ के नए मामलों में बूढ़ें लोगों की संख्या में गिरावट जारी रहती है और रोज़ अस्पताल में भर्ती होने वालों में युवा लोग ज़्यादा होते हैं तो हम सोच सकते हैं कि वैक्सीन नए मामलों में कमी लाने में मदद कर रही है।
केरल में, टीकाकरण के बाद नए पॉज़िटिव मामलों में स्वास्थ्य कर्मियों का प्रतिशत काफ़ी कम हुआ है। बीते महीनों के मुक़ाबले ये क़रीब 40 प्रतिशत कम हुआ है।
शुरुआती आँकड़े दिखाते हैं कि भले ही राज्यों में हाल के दिनों में मामले बढ़े हैं, लेकिन वैक्सीन नए मामलों में कमी लाने में मदद कर रही है।
गाँवों और शहरों का अंतर
हालांकि टीकाकरण पहले से ज़्यादा संख्या में हो रहा है, लेकिन महाराष्ट्र, केरल और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में शहरों और गाँवों में टीकाकरण का अंतर साफ़ दिखता है (इन राज्यों का ज़िलावार डेटा ही मौजूद है)।
इसकी एक वजह है कि शहरों में लोग ज़्यादा सचेत हैं और टीकाकरण अभियान को लेकर जागरूक हैं और वैक्सीन लगवाने के लिए ज़्यादा रजिस्टर कर रहे हैं और आ रहे हैं।
मिसाल के तौर पर मुंबई में 12 मार्च तक 60 साल से ज़्यादा उम्र के 190,000 से ज़्यादा लोगों को वैक्सीन की पहली डोज़ मिल चुकी है।
इसी तरह पुणे और नागपुर जैसे बड़े शहरों जैसे अन्य ज़िलों में 90,000 और 49,000 बूढ़े लोगों को पहली डोज़ दी गई है। इसकी तुलना अगर बीड और धुले जैसे अन्य ज़िलों से करें तो वहाँ अब तक 9,000 से भी कम लोगों को वैक्सीन की पहली डोज़ मिली है।
वायरस का फैलाव घनी आबादी वाले शहरों से आगे बढ़कर छोटे ग्रामीण ज़िलों में पाँव पसार चुका है। कुछ हफ़्तों पहले ही महाराष्ट्र का एक अन्य ज़िला, अमरावती हर दिन के नए मामलों का हॉट-स्पॉट बन गया था। जब अमरावती में टीकाकरण की पड़ताल की गई तो पाया कि उसमें स्पष्ट अंतर है।
12 मार्च तक 16,000 से अधिक बूढ़े लोगों को वैक्सीन की पहली डोज़ मिली है, जो अहमदनगर और कोल्हापुर जैसे अन्य ज़िलों की तुलना में बहुत कम है।
ग्रामीण और शहरी ज़िलों का टीकाकरण का अंतर जितना कम होगा, वो रोज़ाना के बढ़ते मामलों से निपटने में राज्यों की उतनी ही मदद करेगा।