दलितों का आंदोलन बन सकता है बीजेपी-आरएसएस के लिए सिरदर्द

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018 (11:13 IST)
- राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर)
 
देश ने हाथ में नंगी तलवारें लेकर एक फ़िल्म का विरोध करते उत्पातियों को देखा, हिंसक 'गोरक्षकों' को देखा, जाटों का तबाही बरपा करने वाला आंदोलन देखा और बिहार-बंगाल में राम का नाम लेकर दुकानें जलाने वालों का कारनामा तो एकदम ताज़ा है।
 
बस एक चीज़ जो अब तक कहीं देखने को नहीं मिल रही थी, वह थी क़ानून-व्यवस्था क़ायम करने में पुलिस की कर्तव्यपरायणता, पुलिस ने मानो अपनी सारी ऊर्जा दलितों के 'भारत बंद' के लिए बचाकर रखी थी। जो वीडियो देखने को मिल रहे हैं उनमें पुलिस की लाठी दलितों पर पूरी मज़बूती से चल रही है।
 
जब करणी सेना अपनी जातिवादी आन की रक्षा के नाम पर हंगामा मचा रही थी तो कार्रवाई तो दूर की बात, भाजपा और सरकार के प्रवक्ता इतिहास के राजपूती वर्जन के पक्ष में बहस कर रहे थे, उसके मुख्यमंत्री लोकतंत्र और संविधान को ताक़ पर रखकर 'पद्मावत' को बैन करके उनकी आन-बान को दुलार रहे थे।
 
हर विरोध प्रदर्शन और हिंसा अपने आप में जुदा
हर प्रदर्शन और हर हिंसा अपने-आप में अलग होती है, उसके छोटे-छोटे डिटेल में उलझने की जगह सिर्फ़ एक बात पर ग़ौर करें कि सत्ता और उसकी पुलिस क़ानून-व्यवस्था भी अलग-अलग मामलों में, अलग-अलग तरीक़े से लागू करती है। सोचिए कि पैलेट गन सिर्फ़ कश्मीर में क्यों चलती है?
 
ये ज्ञान देने का नैतिक अधिकार सरकारी दमन के समर्थकों को नहीं है कि हिंसा बुरी चीज़ है। लोकतंत्र में हिंसा नहीं होनी चाहिए, किसी को नहीं करनी चाहिए, इस पर बहस की कोई गुंजाइश कहाँ है, लेकिन ज़रा ग़ौर से देखिए हमारे आस-पास कितनी हिंसा है और कौन कर रहा है वो हिंसा।
 
जो लोग सदियों से जातीय घृणा से प्रेरित सुनियोजित और निरंतर हिंसा के शिकार रहे हैं उन दलितों को भी हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए।
 
दलितों के साथ हिंसा
कोई अभी दावे के साथ नहीं कह सकता कि हिंसा कैसे हुई, लेकिन रिपोर्टें बता रही हैं कि कई स्थानों पर हथियारबंद गुटों और दलितों के बीच हिंसक झड़पें हुईं जिनमें कई लोग मारे गए हैं।
 
दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की अब तक जितनी घटनाएँ हुई हैं उनमें कौन लोग शामिल रहे हैं ये कोई राज़ नहीं है, जिन लोगों से इन दलित प्रदर्शनकारियों का टकराव हुआ उनके बारे में पूरी जानकारी मिलने में वक़्त लगेगा, लेकिन ये कोई चौंकाने वाली जानकारी नहीं होगी।
 
ये तथ्य है कि गुजरात के ऊना से लेकर सहारनपुर और कोरेगांव भीमा तक, जहाँ भी दलितों के साथ हिंसा हुई है, उनमें बिना किसी अपवाद के 'हिंदुत्व के वीर सेनानियों' का ही नाम आया है।
 
दलितों पर हिंसा करने के आरोप
हिंसा के आरोप दलितों पर भी लगेंगे और सवर्णों पर भी, हड़बड़ी में कुछ कहना ग़लत होगा, लेकिन ये कहा जाना चाहिए कि दलितों को सड़कों पर हिंसा करते अब तक इस देश ने नहीं देखा है, इस मामले में भी पूरी जानकारी के आने तक इंतज़ार करिए।
 
इस बात से इनकार करना मुश्किल होगा कि इस देश में लंबे समय से संस्थागत स्तर पर दलितों के साथ ज़्यादती होती रही है, ज़्यादातर बड़े मामले तो कांग्रेस के शासनकाल के हैं, और ये आज भी जारी हैं।
 
अनेक मिसालें दी जा सकती हैं, शंकरबीघा, लक्ष्मणपुर बाथे, बेलछी, गोहाना, कुम्हेर, मिर्चपुर, खैरलांजी, घडकौली, घाटकोपर...सब बारी-बारी से गूगल करें।
 
पुलिस की तो कौन बात करे, चर्चित भंवरी देवी बलात्कार कांड में जज ने यह कहते हुए अभियुक्तों को बरी कर दिया था कि "ऊँची जाति के लोग एक दलित को छूते भी नहीं, बलात्कार तो क्या करेंगे।"
 
जातिवाद, आरक्षण और सरकार की दुविधा
पिछले साल जून में राणा प्रताप जयंती सहारनपुर में पहली बार मनाई गई, दलितों के बीसियों घर जलाए गए और दलितों के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ज़मानत मिलने और सेहत ख़राब होने के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत लंबे समय से जेल में बंद हैं।
 
भारत में जातिवाद की बहस बहुत दिलचस्प है। जातिवादी उस व्यक्ति को कहा जाता है जो जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव की चर्चा करे, उसे रोकने की कोशिश करे, पीड़ितों को न्याय दिलाने की बात करे।
 
जातिवाद का विरोधी वह होता है जो कहे कि जात-पात पुरानी बात है, अब ख़त्म हो गई है इसलिए रिज़र्वेशन बंद कर देना चाहिए।
 
आरक्षण का मुद्दा
'दलित भी हिंदू हैं' कहने वाले, उनके घर खाना खाने का करतब दिखाने वाले, उस दिन ये बात नहीं कहते जिस दिन दलितों को मूँछ रखने पर, मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने पर या घोड़ी पर बैठने के लिए मार डाला जाता है। वे जानते हैं कि दलितों पर अन्याय की बात करने वाले 'जातिवादी' होते हैं, उन पर अन्याय करने वाले नहीं।
 
सोमवार को दलितों के हाथों में जो बैनर-पोस्टर थे वे बताते हैं कि उनकी चिंता एसएसी-एससी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से कहीं अधिक उस संविधान को लेकर है जो उन्हें आरक्षण अधिकार की तरह देता है, मोहन भागवत से लेकर सीपी ठाकुर और अनंत हेगड़े तक, हर स्तर पर सत्ता से जुड़े कई लोग संविधान और आरक्षण में बदलाव की बात कर चुके हैं।
 
आरक्षण एक भावनात्मक मुद्दा है उनके लिए भी जिन्हें उसके ज़रिए सम्मान से जी सकने की उम्मीद दिखती है, और उनके लिए भी जो ये मानते हैं कि आरक्षण नहीं होता तो उन्हें सरकारी नौकरी मिल गई होती।
 
हिंदू ध्रुवीकरण के प्यादे
ख़ुद को वंचित और कमज़ोर साबित करने के लिए पटेलों, जाटों और गूजरों ने देश में आक्रामक प्रदर्शन किए हैं, लेकिन सवर्णों का एक बड़ा बेरोज़गार तबक़ा अपना ग़ुस्सा सिर्फ़ सोशल मीडिया पर ज़ाहिर करता रहा है।
 
रोज़गार देने में सरकार की नाकामी पर जो ग़ुस्सा भड़क सकता था, वही गुस्सा फ़िलहाल उग्र हिंदुत्व के नाम पर देश के कई हिस्सों में कमाल दिखा रहा है।
 
यही वजह है कि करणी सेना, हिंदू युवा वाहिनी या हिंदुत्व/राष्ट्रवाद के नाम मोटरबाइक लेकर रैलियाँ निकालने वालों और सरकार के बीच परस्पर सहमति वाला मौन रहा है। ये वही युवा हैं जो ग्राउंड लेवल पर हिंदू ध्रुवीकरण के प्यादे हैं।
 
संघ की समरसता की नीति
आरएसएस और भाजपा के लिए ये एक बहुत बड़ी चुनौती है, उसे लगातार चुनाव जीतते रहने के लिए नए वोटर चाहिए और मुसलमानों की तरह दलित भाजपा को अछूत नहीं मानते इसलिए उसने वहाँ बड़ी संभावना देखी है, लेकिन जब उसका पुराना वफ़ादार-कट्टर समर्थक--जिसमें ब्राह्मण, राजपूत और कुछ समृद्ध ओबीसी जातियाँ शामिल हैं--नई उम्मीद से टकराएगा तो भाजपा इस हालत को कैसे संभालेगी?
 
आरएसएस की समरसता की नीति ये है कि यथास्थिति बनी रहे। कट्टर समर्थक की उम्मीद बनी रहे कि आरक्षण हटेगा, और पिछड़ी जातियों को पूजा-हवन-यज्ञ-सामूहिक भोजन वग़ैरह में शामिल करके प्रतिष्ठा का आभास दिया जाए ताकि जातियों से परे हिंदू एक चुनावी शक्ति बनें।
 
बिहार चुनाव से पहले मोहन भागवत ने कहा था आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए, उसके बाद नरेंद्र मोदी ने कहा था कि 'प्राण देकर भी आरक्षण की व्यवस्था कायम रखूँगा'।
 
अगर दलितों और आरक्षण विरोधियों के बीच ऐसे टकराव जारी रहे या बढ़े, तो मोदी और आरएसएस के लिए बहुत बड़ी मुसीबत ये होगी कि वे किसके साथ खड़े दिखना चाहेंगे, इस लिहाज से ये सरकार की अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है, वो भी ऐसे वक़्त में जब सपा और बसपा दोनों दल एकजुट होते दिख रहे हैं।

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी