दिल्ली हिंसा: दंगों में शामिल लोगों को ऐसे पकड़ेगी पुलिस

रविवार, 15 मार्च 2020 (15:24 IST)
ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
पिछले साल 24 अगस्त को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के वकील रिपुदमन सिंह भारद्वाज ने कहा था कि चेहरा पहचानने की नई तकनीक इतनी बेकार है कि कुछ मामलों में ये गुमशुदा व्यक्ति के लिंग को भी नहीं पहचान सकती।
 
उन्होंने ये बात दिल्ली हाईकोर्ट कोर्ट में एक गुमशुदा लड़की के मामले में चल रही सुनवाई के दौरान कही थी। इस सुनवाई में दिल्ली पुलिस की ज़रिए चेहरा पहचानने की नई तकनीक के इस्तेमाल के नतीजों पर बहस हो रही थी।
 
अदालत ने दिल्ली पुलिस से ये जानना चाहा कि नई टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल से गुमशुदा बच्चों के चेहरों के मैच होने की संख्या एक प्रतिशत से भी कम क्यों थी। इसके साथ ही अदालत ने पुलिस से ये भी जानना चाहा कि क्या चेहरा पहचानने की इससे बेहतर टेक्नॉलॉजी उपलब्ध है?
 
इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं है कि दिल्ली पुलिस ने टेक्नॉलॉजी को अपग्रेड किया है या नहीं। लेकिन इस टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में शामिल लोगों की पहचान करने के लिए किया जा रहा है।
 
इस बात की पुष्टि खुद गृह मंत्री अमित शाह ने 11 मार्च को लोक सभा में की। गृह मंत्री ने कहा कि 1100 लोगों की शिनाख़्त फेशियल रिकग्निशन यानी चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ़्टवेयर के ज़रिए की गई है।
 
चेहरा पहचानने वाली तकनीक
गृह मंत्री के बयान पर मानवाधिकार संस्थाओं और टेक्नॉलॉजी विशेषज्ञों ने गहरी चिंता जताई है।
 
दुनिया भर के जोखिम वाले उपयोगकर्ताओं के डिजिटल अधिकारों का बचाव करने वाली संस्था एक्सेस नाउ के एशिया नीति निदेशक और वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय वकील के रूप में काम करने वाले रमन जीत सिंह चीमा कहते हैं कि गृह मंत्री के बयान से पता नहीं चलता कि कौन सी टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल किया जा रहा है, किस तरह से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है और क्या कोई थर्ड पार्टी भी इसमें शामिल है।
 
उनका कहना था कि दिल्ली पुलिस ने भी इस पर चुप्पी साधी हुई है। वो कहते हैं, "चेहरा पहचानने वाली तकनीक के इस्तेमाल में पारदर्शिता और क़ानूनी आधार का अभाव है।" वो यहाँ तक कहते हैं कि ये प्राइवेसी जैसे मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन है।
 
संविधान के विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वकील सूरत सिंह कहते हैं कि कोई भी नई टेक्नोलॉजी जिससे मौलिक अधिकारों के हनन डर है वह देश की न्याय प्रणाली और इंसाफ के विपरीत है। वो कहते हैं, "अगर इस टेक्नॉलॉजी की कामयाबी 90 प्रतिशत से कम है तो अदालत इसे शायद सबूत के तौर पर स्वीकार ही न करे।"
 
फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नॉलॉजी क्या है
फेशियल रिकॉग्निशन एक एनालिटिक्स प्रोग्राम है जो किसी व्यक्ति को किसी छवि या वीडियो में उसके चेहरे की विशेषताओं से पहचानता है। ये सॉफ्टवेयर चेहरे की ज्यामिति को मैप करने के लिए बायोमेट्रिक्स का इस्तेमाल करता है।
 
पहले से मौजूद डेटाबेस के साथ इस गणितीय सूत्र के परिणाम को क्रॉस-रेफ़र किया जाता है जिससे तुरंत व्यक्ति की पहचान की पुष्टि हो जाती है। कुछ सॉफ्टवेयर में अमेज़न का रेकॉग्निशन, गूगल का विज़न और इसके बाद दूसरी दर्जनों कंपनियों के सॉफ्टवेयर शामिल हैं।
 
गृह मंत्री के अनुसार इस टेक्नॉलॉजी के ज़रिए दिल्ली दंगों में कथित रूप से शामिल 1100 लोगों की पहचान की पुष्टि की गई है। ये कैसे किया गया? इसकी जानकारी नहीं है लेकिन इस टेक्नॉलॉजी के विशेषज्ञ बताते हैं कि दिल्ली पुलिस ने सैकड़ों सीसीटीवी फुटेज और लोगों द्वारा लिए गए वीडियो हासिल किए।
 
विशेषज्ञों के मुताबिक़ इन वीडियो क्लिप्स में हमलों में शामिल लोगों को देखा जा सकता है। इनमें नज़र आ रहे चेहरों को इनके ड्राइविंग लाइसेंस और वोटर आईडी कार्ड से मैच किया गया। इसके ज़रिए 1100 लोगों की पहचान साबित की गई।
 
हमने दिल्ली पुलिस से इस बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
 
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन?
सवाल ये भी है कि क्या दिल्ली पुलिस लोगों के ड्राइविंग लाइसेंस, वाहन रजिस्ट्रेशन कार्ड या वोटर आईडी कार्ड का इस्तेमाल कर सकती है? वोटर आईडी चुनाव आयोग की निगरानी में होते हैं जबकि वाहन रजिस्ट्रेशन कार्ड रोड ट्रांसपोर्ट मंत्रालय की निगरानी में जमा रहते हैं। क्या दिल्ली पुलिस ने इसके इस्तेमाल की इजाज़त ली?
 
सरकार का तर्क ये है कि समाज में शांति स्थापित करने जैसे बड़े हित में इन डेटा का पुलिस इस्तेमाल कर सकती है। टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल के साथ-साथ लोगों के मौलिक अधिकारों का सम्मान भी हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली-स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन काफ़ी सक्रीय है।
 
इस संस्था से जुड़ी देवदत्त मुखोपाध्याय कहती हैं, "इस समय कोई लेजिस्लेटिव ढांचा नहीं है। इस टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को अधिकृत करने के लिए संसद से कोई क़ानून पारित नहीं हुआ है। इस पर कोई गाइडलाइन्स भी नहीं हैं। यह बड़े पैमाने पर नागरिकों की निगरानी का एक उपकरण बन सकता है।"
 
एक ठोस क़ानूनी फ्रेमवर्क और गाइडलाइन्स के आभाव में इस टेक्नोलॉजी का तेज़ी से विस्तार होना वकीलों, पत्रकारों, मानवाधिकार संस्थाओं और टेक्नोलॉजी के विशेषज्ञों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है।
 
दिल्ली पुलिस पर भरोसे का अभाव?
गृह मंत्री ने लोक सभा में ये भी दावा किया कि ये टेक्नोलॉजी धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करती। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि पुलिस किसी एक समुदाय को निशाना बनाने के लिए हासिल किए गए वीडियो और सीसीटीवी फुटेज को अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकती है।
 
उदाहरण के तौर पर अगर फुटेज हिन्दू और मुस्लिम दोनों मोहल्लों के हों मगर पुलिस चाहे तो एक मोहल्ले का फुटेज इस्तेमाल करे ताकि एक ख़ास समुदाय को निशाना बनाया जा सके। वरिष्ठ पत्रकार और पंकज वोहरा पिछले 40 साल से दिल्ली पुलिस की कवरेज करते आ रहे हैं।
 
वो कहते हैं कि फेशियल रिकग्निशन टेक्नॉलॉजी तो बाद की बात है पहले इन दंगों की न्यायिक जांच होनी चाहिए। वो पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाते हैं।
 
पंकज हैरानी जताते हुए कहते हैं कि दिल्ली पुलिस के ख़िलाफ़ इस बार जितने पक्षपात और ग़ैर पेशेवर होने के इलज़ाम लगे उतने पहले कभी नहीं लगे थे। उन्होंने दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार और मुकुंद बिहारी कौशल के हवाले से कहा कि वो सभी दिल्ली पुलिस से बहुत मायूस हैं।
 
12 मार्च को कांग्रेस नेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने संसद में दिल्ली पुलिस की जम कर आलोचना की। उनका कहना था पुलिस वाले सीसीटीवी कैमरे तोड़ते देखे गए तो ज़ाहिर है वो कुछ हमलावरों को बचाना चाहते थे, ऐसी पुलिस पर कैसे भरोसा किया जाए। उन्होंने पुलिस पर दंगों में शामिल होने का भी आरोप लगाया।
 
हालांकि अमित शाह ने दिल्ली पुलिस की तारीफ़ की और कहा कि पुलिस ने 36 घंटों में हालात काबू में कर लिए गए।
 
तकनीक में गहरी ख़ामियां
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और टेक्नॉलॉजी के विशेषज्ञों ने इस तकनीक की ये कहकर आलोचना की है कि चेहरा पहचानने की तकनीक में फ़िलहाल गहरी खामियां हैं और यह प्राइवेसी जैसे मौलिक अधिकार के लिए ख़तरा है।
 
अमरीका में इस टेक्नॉलॉजी के ख़िलाफ़ एक शिकायत आम है कि ये गोरी नस्ल के लोगों पर बेहतर काम करती है। यानी काले अमरीकियों के ख़िलाफ़ भेद-भाव संभव है। भारत में भी हर रंग और नस्ल के लोग आबाद हैं।
 
विशेषज्ञ पूछते हैं इस बात कि कौन ज़मानत देगा कि इसका इस्तेमाल निर्दोष लोगों के ख़िलाफ़ नहीं होगा।
 
ब्रिटेन में इस टेक्नॉलॉजी की नाकामी 80 प्रतिशत है जबकि अमरीका के कुछ राज्यों में इस टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल पर या तो अनिश्चितकाल के लिए या सीमित अवधि के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया है।
 
टेक्नॉलॉजी को अपनाने की दौड़
तमाम सवालों के बाद भी सरकारी एजेंसियां तेज़ी से इस टेक्नॉलॉजी को अपनाने की दौड़ में शामिल हो रही हैं।
 
दंगों से पहले दिल्ली पुलिस के बारे में कहा गया कि उसने नागरिकता संशोधन क़ानून विरोधी प्रदर्शनकारियों की पहचान करने के लिए भी इसी टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल किया था जिसे मानवधिकार संथाओं ने सामूहिक निगरानी का एक कार्य बताया और इसे पूरी तरह से अवैध करार दिया।
 
भारत चेहरे की पहचान वाले सिस्टम को राष्ट्रीय-स्तर पर स्थापित कर रहा है जो दुनिया भर में इस तरह की सबसे बड़ी प्रणाली होगी। गृह मंत्रालय के तहत काम करने वाली सरकारी एजेंसी, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB), इस काम को अंजाम दे रही है। इनके इलावा राज्यों और केंद्र की कई एजेंसियां इस टेक्नॉलॉजी को अपनाने में जुटी हैं।
 
कुछ हवाई अड्डों पर भी इसे आज़माया जा रहा है जिसके अंतर्गत आप एयरपोर्ट में प्रवेश करने से विमान के अंदर जाने तक किसी पेपर या बोर्डिंग पास का इस्तेमाल नहीं करेंगे। टेक्नॉलॉजी आपके चेहरे को मैप करेगी जिससे आपकी जांच होगी और आप विमान के अंदर प्रवेश कर सकेंगे।
 
क्या इस टेक्नॉलॉजी पर रोक लगनी चाहिए?
एक्सेस नाउ संस्था के रमन जीत सिंह चीमा के अनुसार दुनिया भर में इस टेक्नॉलॉजी पर काफ़ी सवाल उठ रहे हैं और कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। रमन जीत सिंह चीमा कहते हैं, "ये टेक्नॉलॉजी विवादास्पद है। इससे प्राइवेसी जैसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। कई अमरीकी राज्यों ने इस पर रोक लगा दी है।"
 
इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की देवदत्त मुखोपाध्याय भी भारत में इस टेक्नॉलॉजी पर तीन साल के लिए रोक लगाने की वकालत करती हैं।
 
वो कहती हैं, "इस टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल पर तीन साल के लिए रोक होनी चाहिए। अगर सरकार इसे लागू करना चाहती है तो पहले एक वाइट पेपर जारी करे, ये कितना लाभदायक है और इसके सबूत इकट्ठे करे, इस पर बहस हो और आखिर में ज़रूरत पड़ने पर संसद में एक बिल पेश करे।"
 
संसद के पिछले सत्र में विरोधी दल के कुछ नेताओं ने फेशियल रिकग्निशन टेक्नॉलॉजी पर चिंता जताई थी।
 
लेकिन सरकार की सोच क्या है? इस पर बहस और सलाह क्यों नहीं ली गई? सरकार के इरादों का पता पिछले दिसंबर को पेश किए गए पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल में चलता आता है।
 
इस व्यक्तिगत डेटा संरक्षण बिल में नागरिकों की गोपनीयता और डेटा की सुरक्षा के लिए व्यापक उपाय हैं, लेकिन ये सरकारी एजेंसियों को इस क़ानून से छूट देने की अनुमति देता है। यानी अगर किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का हनन होता है तो सरकारी एजेंसियों को प्रभावी ढंग से छूट है।
 
ये बिल जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी के पास है। शायद आने वाले वक़्त में इसमें कुछ और बदलाव हो जाएं और फेशियल रिकग्निशन टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल पर होने वाली चिंताओं पर भी ध्यान दिया जाए।
 

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